ज्ञान-गुलाल पास नहिं, श्रद्धा-रंग न समता-रोली है ।
नहीं प्रेम-पिचकारी कर में, केशव शांति न घोली है ।।
स्याद्वादी सुमृदंग बजे नहिं, नहीं मधुर रस बोली है ।
कैसे पागल बने हो चेतन ! कहते ‘होली होली है' ।।
ध्यान-अग्नि प्रज्जवलित हुई नहिं, कर्मेन्धन न जलाया है ।
असद्भाव का धुआं उड़ा नहिं, सिद्ध स्वरुप ना पाया है ।।
भीगी नहीं जरा भी देखो, स्वानुभूति की चोली है ।
पाप-धुली नहीं उड़ी, कहो फिर कैसे ‘होली होली है' ।।
-जुगलकिशोर मुख्तार
[रघुवीर भारती]