यह संदेह निर्मूल है कि हिंदीवाले उर्दू का नाश चाहते हैं। - राजेन्द्र प्रसाद। 

होली पद  (काव्य)

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रचनाकार: जुगलकिशोर मुख्तार

ज्ञान-गुलाल पास नहिं, श्रद्धा-रंग न समता-रोली है ।
नहीं प्रेम-पिचकारी कर में, केशव शांति न घोली है ।।
स्याद्वादी सुमृदंग बजे नहिं, नहीं मधुर रस बोली है ।
कैसे पागल बने हो चेतन ! कहते ‘होली होली है' ।।

ध्यान-अग्नि प्रज्जवलित हुई नहिं, कर्मेन्धन न जलाया है ।
असद्भाव का धुआं उड़ा नहिं, सिद्ध स्वरुप ना पाया है ।।
भीगी नहीं जरा भी देखो, स्वानुभूति की चोली है ।
पाप-धुली नहीं उड़ी, कहो फिर कैसे ‘होली होली है' ।।

-जुगलकिशोर मुख्तार
[रघुवीर भारती]

 

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