दिल्ली, बंबई, काशी, देहरादून मिला हमको,
बस्ती-बस्ती इंसानों का खून मिला हमको।
वे जाने किस मौसम के पंछी होंगे जिनकी,
ऑंखें सावन-भादो, चेहरा जून मिला हमको।
जिनकी जेबों में झरने थे, खातों में गुलशन
उनकी सोचों के भीतर नाखून मिला हमको।
हँसते में रोता सा लगता, रोते में हँसता,
इस बस्ती का आदम अफलातून मिला हमको।
अंधा, बहरा, लंगड़ा, लूला कोने में दुबका,
एक मिनिस्टर के घर पर कानून मिला हमको।
-प्रदीप चौबे