जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

पर्यावरण पर दोहे  (काव्य)

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रचनाकार: शकुंतला अग्रवाल 'शकुन' 

तरुवर हैं सहमे हुए,पंछी सभी उदास।
दाँव लगी है जिन्दगी, दुश्मन बना विकास॥

नदिया सागर से कहे,मत तकना अब बाट।
मेघ हुए हैं बेवफा, सूख गए हैं घाट॥

कुंजों से झरती रही, कनक सुनहरी धूप।
धरणी ने भी धर लिया, तभी दुल्हन का रूप॥

फुनगी पर ठहरी प्रभा,पिला रही है जाम।
ठुमक-ठुमक ठुमके पवन,महके आठों याम॥

बंजारन-सी धूप अब,रही चिकोटी काट।
बतियाती अब फुनगियाँ,रोशन है सब घाट॥

जल विहीन सरिता हुई, निर्जन सारे घाट।
मेघ बसो किस देश में,हर पल जोऊँ बाट॥

नदी हुई अब बेवफा, कौन मिटाए प्यास।
सागर आहें भर रहा, रूठ गया मधुमास॥

मंजर महके आम्र पर,कोयल छेड़े राग।
दहका टेसू कर रहा, प्रकृति खेलती फाग॥

 चलकर मस्त समीर जब,गाती मंगलाचार।
सरसित होकर तब धरा,खूब लुटाती प्यार॥

तरुवर-तरुवर से कहे, चलती आरी देख।
प्रभु ने दुख में ही लिखी,अपनी किस्मत  रेख॥

फुनगी चूमी ओस ने,नाचे डाल विभोर।
तरुवर इतराने लगा, देख सुहानी भोर॥

महक गई है यामिनी,पाकर शशि का प्यार।
महुआ महका संग में,महका हरसिंगार॥

किश्ती लहरों से कहे,ले मत अधिक उछाल।
टूटेंगे तटबन्ध तो, लेगा कौन  सम्भाल॥

यामा घूँघट काढ़ कर,जाती प्रीतम-देश।
भानु करे अठखेलियाँ,पहन सुनहरा वेश॥

दम-दम दमके दामिनी,सघन घटा के बीच।
झम-झम बरसे मेघ भी,अपना प्रेम उलीच॥

हौले-हौले ढल गया, जब दिनकर का तेज।
विधु,तारों को यामिनी,देती पाती भेज॥

शीतल-मंद-समीर से, प्रमुदित है मधुमास।
वसुधा होकर बावरी,खूब रचाती रास॥

होकर व्याकुल प्यास से बैठा पथिक उदास।
दूर तलक होता नहीं,पानी का अनुभास॥

एक झलक पा सूर्य की, घूँघट खोले रात।
नटखट किरणें कर गई,दीवाना हर पात॥

पवन नशीली हो गई, मिल ऋतुपति के संग।
टेसू पर यौवन चढ़ा,महुआ आम मलंग॥

नील-गगन रोने लगा,बंजर वसुधा देख।
मेघों ने पल में लिखे, प्रेम -भरे आलेख॥

मेघों को जब-जब मिला, वसुधा का संदेश 
नीलाम्बर पर छा गए,धर कजरारा वेश॥

लेकर कुमकुम थाल जब,प्राची आई द्वार।
धरती ले आगोश में,चूमे बारम्बार॥

ऋतुपति की पदचाप सुन,हर्षित है हर शाख।
खिलकर प्रेम-पलाश ने,किया वैर का नाश॥

देखो सावन ने किया,जग में खूब धमाल।
चुल्हा पानी पी गया, कैसे पकती दाल॥

पतझड़ बैठा पाल पर,छीन विटप के पात।
दिखलाता मधुमास ही,पतझड़ को औकात॥

पुष्प प्रभाती गा रहे, भ्रमर करे मनुहार।
आया देख बसंत अब, बाँट रहे सब प्यार॥

पर्वत,सरिता अरु धरा,करते रोज गुहार।
रौंदो मत अब तो हमें, होता दर्द अपार॥

जब-जब मेघ उँड़ेलते,घट भर-भर मृदु-रंग।
केशर-क्यारी -सा खिले,वसुधा का हर-अंग॥

आँख दिखाने जब लगी,सकल जगत को शीत।
भास्कर जी भी सो गए , ओढ़ रजाई मीत॥

बंजर धरती कर रही,हमसे यही सवाल।
बोलो मेरा क्यों किया, विधवा जैसा हाल॥

वृक्षों से जीवन मिले,मिलती शितल -छाँव।
धन-दौलत की भूख पर,इन्हें लगा मत दाँव॥

धरती मेघों से करे, गुपचुप-गुपचुप बात।
पलभर में होने लगी, नेह भरी बरसात॥

नयन मिलाकर फाग से, महक रहा कचनार।
खुशियों के टेसू खिले, आई मस्त-बहार॥

छ्लकाता है माघ जब,घट भर-भर कर प्यार।
खिल उठती है फुनगियाँ, छू कर प्रेम-तुषार॥

देख कुहासा व्योम में,सूरज दादा आज।
ओढ़ रजाई सो गए,रख सिरहाने ताज॥

पंख पसारे शीत ने,पकड़ माघ का हाथ।
तब से मंजर मौत का,देख रहा फुटपाथ॥

सागर सरि की चाह में,लेता तट को चूम।
असमय लहरों में तभी,मच जाती है धूम॥

प्राणवायु देते हमें,विटप धरा की शान।
मनुज चलाता आरियाँ,यह कैसा प्रतिदान॥

-शकुंतला अग्रवाल 'शकुन' 
 भीलवाड़ा राजस्थान
 ई-मेल : shakuntalaagrwal3@gmail.com

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