जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

इस पार न सही | लघुकथा (कथा-कहानी)

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रचनाकार: सुरेंद्र कुमार अरोड़ा 

"आज फिर वहाँ क्या कर रहे थे?"

"नदी का बहना मुझे अपनी ओर खींचता है, इसलिए आज भी वहाँ था।"

"नदी का बहना...? ये क्या बात हुई।“

"तुम्हीं तो कहा करती थीं कि तुम्हारा प्यार नदी के उस बहाव की तरह है जो ऊर्जा से कभी रिक्त नहीं होता।" उसने कहा।

"वो तो ठीक है पर कभी उस बहाव का हिस्सा मत बन जाना।"

"उसके लिए हिम्मत चाहिए जो मुझमें है या नहीं, मैं नहीं जानता।" उसने चाहा कि वह कह दे पर कह नहीं पाया।

"कुछ बोलते क्यों नहीं? मैने कहा है कि कभी उसके साथ बह मत जाना।"

"ऐसा कुछ हो गया तो तुम्हें अब क्या फर्क पड़ेगा?" वह यह भी नहीं कह पाया।

"मौनव्रत ले लिया है क्या?" वो झल्लायी।

"हाँ! यही समझ लो। अब मौन हो जाना चाहता हूँ। जिंदगी इतनी कठोर सतह है, इसकी तपिश अब सही नहीं जाती। नदी का प्रवाह शायद इस तपिश को समेट ले।"
"या तो बोल नहीं रहे थे और अब बोले हो तो मौन में लिपटी बातें? किसे सज़ा दे रहे हो इन बातों से?"

"ईश्वर कुछ रिश्ते सज़ा देने के लिए ही बनाता है। सज़ा भी उन अपराधों की जो अपनी मरज़ी से नहीं किए जाते।"

"बहुत ख़राब हो तुम।"

"ख़राब ही तो हूँ। ख़राब न होता तो तुमसे मिलने का अपराध कैसे करता।"

"अपराध तो मैंने किया है, सज़ा भी मुझे ही भुगतने दो।"

"कब तक झूठ बोलोगी तुम?"
"क्या करूं, और कोई चारा भी तो नहीं है। न इस पार आ पाई, न उस पार जा सकी।" वो भी कहना चाहती थी पर कह न सकी।

उत्तर नहीं मिला तो वो उठा और फिर से नदी की ओर बढ़ गया।

वह उसे जाते हुए देखती रही। उसकी आँखों में लाचारी के आंसुओं के सिवा कुछ नहीं था।

उसके बुझे और थके हुए कदम उस बड़ी नदी की ओर बढे ही थे कि उसके रास्ते में उसकी तीव्र धारा से निकली एक छोटी नदी आ गयी। उसने पूछा, "कहाँ जा रहे हो?"
"उस बड़ी नदी की तीव्र धारा का आलिंगन करने। अब यही मेरी नियति है।" उसने कहा।

"लगता है नियति से लड़ नहीं पाए! इसीलिए बहकी-बहकी बातें कर रहे हो। जानते हो मैं और मेरा जल उसी बड़ी नदी के साथ तीव्रता से बह रहे थे। हमारी नियति तय थी परन्तु तभी मार्ग में बड़े - बड़े पत्थरों के अवरोध आ गए। हमने समर्पण नहीं किया। मार्ग बदल लिया। मार्ग बदलते ही हमारी नियति भी बदल गयी। अब हम उस बड़ी नदी और उसके साथ किसी भी अवरोध से मुक्त हैं और देखो अपने नए रूप में धरती पर बिखरे छोटे-छोटे खेतों में खड़ी फसल की प्यास बुझाने जा रहे हैं।" छोटी नदी ने गर्व से अपनी करनी का बखान किया।

वह सोचने की प्रश्नवाचक मुद्रा में खड़ा हो गया।

"किस दुविधा में डूबे हो। जीवन में मार्ग कभी अवरुद्ध नहीं होते। जाओ अपनी ऊर्जा, जो छिटक गयी है, उसे फिर से संचित करो, कुछ समय बाद पाओगे कि नया मार्ग तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।" छोटी नदी के जल से आवाज आयी।

उसने पाया कि उसकी सारी थकान मिट चुकी है और पाँव आगे बढ़ने को आतुर हैं।  

-सुरेंद्र कुमार अरोड़ा 
 साहिबाबाद (उत्तर प्रदेश) 
 ई-मेल : surendrakarora1951@gmail.com

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