जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

मेरी मधुशाला | कविता  (काव्य)

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रचनाकार: टीकम चन्दर ढोडरिया 

अनुभव की भट्टी में तपकर,
बनी आज मेरी हाला।
खट्टा-मीठा कड़ा-कसैला,
रस इसमें मैंने डाला।
      मुस्कायेगी कभी अधर पर,
      आँसू कभी बहायेगी।
मन अधीर हो जब भी प्रियवर,
आ जाना तुम मधुशाला।।

भावों का आसव निकला है,
तपकर अनुभव की ज्वाला।
शब्दों के प्याले में भरकर,
लाया हूँ मैं मतवाला।  
          समय मिले मन हो पढ़ने का,
          मान इसे भी दे देना।
आप सभी को अर्पित मेरी,
छन्दों की यह मधुशाला।।

जीवन के उस काल-खण्ड में,
चला राह मैं मतवाला।
नीरव वन था पथ था दुर्गम,
प्रखर भानु की थी ज्वाला।
           थकित देह थी मन भी व्याकुल,
           थी मंजिल भी दूर बहुत।
तुम ही तो आयी थी बनकर,
प्रियतम मेरी मधुशाला।।

घिर-घिर आयी मधुर यामिनी,
धरे रूप वह मधुबाला।
उडुगण की चूनर को ओढ़े,
लिये हाथ में विधु-प्याला।
             छलकी धवला अमिय कौमुदी,
             वसुंधरा के आँचल पर।
झूम उठे लतिका तरूवर सब,
सजी सुभग नव मधुशाला।।

बचपन से पीता आया हूँ,
पीड़ाओं की मैं हाला।
और पिला दे और पिला दे,
घबरा मत साकी बाला।
         सुख की चाह नहीं मुझको अब,
          नहीं स्नेह का अभिलाषी।
आह कराह अश्रु से सिंचित,
मेरी जीवन मधुशाला।।

दिनकर डूबा संध्या उतरी,
लेकर कर में मधु प्याला।
झील किनारे लगी विचरने,
सिन्दूरी वह सुर बाला।
                      रसिक रिन्द की बातें छोड़ो,
                     कभी नहीं पीने वालों।
यदा-कदा ही पीकर देखो,
आकर तुम भी मधुशाला।।

जाति-धर्म से ऊपर उठकर,
चले राह जो मतवाला।
दीप ज्ञान का जला चुकी हो,
जिसके विवेक की ज्वाला।
           श्रम-सीकर से शोभित तन ले,
           आये कोई रिन्द यहाँ।
आगे बढ़ करती है स्वागत,
उसका मेरी मधुशाला।।

धीरे-धीरे छम-छम करती,
आयी थी तुम सुर-बाला।
दृग-मूंदे कंपित अंधेरों से,
मुझे पिलाने मधु-प्याला।
                 दिवस मास वर्षों बीते पर,
                 प्रीति अहा! कब मन्द हुयी।
बनी रहो चिर-नूतन प्रियतम,
चिर-नूतन हो मधुशाला।।

नदिया बहती निर्मल पावन,
वन सुभग सघन हरियाला।
भ्रमर हठीले चुन-चुन कलियाँ,
पीते मकरन्दी हाला।
                 शीत-पवन करता आह्लादित,
                  हर्षित था जीवन सारा।
उमंग भरी रसवन्ती प्रिये,
 कहाँ गयी वह मधुशाला।।

नेह-भाव से जिनको भर-भर,
रहा पिलाता मैं हाला।
पात्र नहीं थे उसके वे सब,
समझा अब भोला-भाला।
          मैंने अपना कर्म किया बस,
         उनकी तो वे ही जानें।
सबको गले लगाती आयी,
मेरी जीवन मधुशाला।।

जाति-धर्म का भेद न होगा,
हो कोई पीने वाला।
श्रम अनुसार भरेगी साकी,
सबके हाथों का प्याला।
            मार्ग सभी होंगे निष्कंटक,
           अवसर सब ही पायेंगे।
वर्ग- हीन संरचना वाली,
होगी मेरी मधुशाला।।

बालक भूखे तड़प रहे हैं,
खाने को नहीं निवाला।
फटी कमीजें टूटी चप्पल,
बनता फिरता मतवाला।
           जर्जर  काया रोग-ग्रस्त है,
           काम नहीं कुछ कर पाता।
लकड़ी टेके फिर भी क्यों तू,
आ जाता है मधुशाला।।

कम्पित अधेरों से जब प्रिय ने,
अधरों पर चुम्बन डाला।
नहीं होश आया पीकर फिर,
प्रथम मिलन की वह हाला।
         उसकी ही चाहों में खोया,
        उलझा उसकी  बाँहों में,
वो ही है रसवन्ती साकी,
वो ही मेरी मधुशाला।।

न्यायालय में आये कोई,
कभी साक्ष्य देने वाला।
साकी की सौगंध खिलाना,
और पिलाना तुम हाला।
             जागृत होगा पौरुष उसमें,
             चेतन होगी मानवता।
झूठ बुलाये ग्रन्थ भले सब,
सत्य बुलाती मधुशाला।।

याचक बनकर ही जाता है,
देवालय जाने वाला।
हाथ जोड़ता शीश झुकाता,
हो कैसा भी बल वाला।
              सीना ताने  जाते हैं सब,
               सभी लुटा कर आते हैं।
स्वाभिमान की रक्षा करती,
एक यही तो मधुशाला।।

अखिल सृष्टि इक मदिरालय हो,
और जलधि का हो प्याला।
ताप हरे तीनों पल-भर में,
हो ऐसी उसमें हाला।
            त्रिविध-हवा करती हो स्वागत,
            साकी बन अमराई में,
निर्मल मन हो जिसका पीने,
आये वो ही मधुशाला।।

संस्कारों में पला बढ़ा हूँ,
व्यसन नहीं कोई पाला।
चखने की तो बात दूर की,
छुई नहीं अब तक हाला।
            पूर्व जन्म का शायद मद्यप,
           नशा उसी का हो बाकी।
उसी खुमारी में रच डाली,
मैंने भी यह मधुशाला।।

अक्षर-अक्षर जोड़ बनाया,
मैंने शब्दों का प्याला।
और उँडेली अपने कर से,
उसमें भावों की हाला।
        जितनी बार पिओगे इसको,
      नशा नया देगी तुमको।
मन चाहे जब पीने आना,
तुम छन्दों की मधुशाला।।

-टीकम चन्दर ढोडरिया
 अधिवक्ता, राजस्थान 
 मोबाइल : 9413826979
 ई-मेल : teekamchanddhodria@gmail.com

 

 

 


                
             

         

             

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