जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

बच्चों के सर्वांगीण विकास में शैक्षिक गतिविधियों की महत्वपूर्ण भूमिका (विविध)

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रचनाकार: डॉ॰ पंडित विनय कुमार

हमें यह कहने में संकोच नहीं है कि आज बिहार में ही नहीं बल्कि भारत वर्ष में बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए जो कुछ प्रयास किया जाना चाहिए वह प्रयास पूरी तरह पर्याप्त नहीं है और उस प्रयास में और भी कुछ जोड़ा जाना चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 बच्चों के सर्वांगीण विकास पर बल देती है । यद्यपि महत्वपूर्ण शिक्षा वह है जो बच्चों में चरित्र निर्माण में सहयोग प्रदान कर सके। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने ठीक ही कहा था कि असली शिक्षा वह है जो बच्चों में चरित्र निर्माण पर बल देती है और उसके साथ उसके रोजी रोजगार में सहायता पहुंचाती है। सच तो यह है कि बच्चों का संसार एक अलग और अंगूठा संसार होता है । बच्चों की दुनिया एक अलग तरह की दुनिया मानी जा सकती है जहां बच्चे अपने अनुभव से खेलते हैं छोटे-छोटे बच्चे जो मिट्टी में घरौंदे बनाते हैं वे छोटे-छोटे बच्चे जो जमीन पर रेखाएं खींचते हैं वे छोटे-छोटे बच्चे जो दीवारों पर मिट्टी के ढेले से कुछ न कुछ चित्रकारी कर रहे होते हैं और वह बच्चे जो अपने से बड़े भाई - बहनों की पुस्तक या उनकी कॉपी को लेकर उसमें आड़ी - तिरछी रेखाएं खींच रहे होते हैं । उनमें भी उनका अनुभव है। उनमें भी उनकी कोई ना कोई कहानी होती है कोई न कोई दुख - सुख है उसमें भी उनका घृणा और प्रेम बसा हुआ है । उन दीवारों पर अंकित  रेखाओं में भी उनके  मन के भाव इस रूप में गूँथे हुए हैं  कि हमें समझने की जरूरत है। आज समय बदल गया है और हमारी शिक्षा पद्धति बाल केंद्रित बन गई है । हम जो कुछ भी बच्चों को पढ़ाते हैं सिखाते हैं । उसमें पहली शर्त यही  है कि उस से बच्चों का मनोरंजन हो बच्चों को संबंधित विषय अथवा पाठ में दिलचस्पी रहे और वह अपनी कक्षा में पढ़ाये जाने वाले पाठ को एकाग्रतापूर्वक सुन सकें , सीख सकें और समझ सकें ।  यह इसलिए भी जरूरी है कि हमें बच्चों के मन के अनुसार उन्हें सही रास्ते पर लाना है चाहे हम बच्चों में भाषा संबंधी विकास की बात करें अथवा गणित संबंधी उनके ज्ञान की बात करें । प्रायः दोनों ही विषयों में बच्चों के मां का जुड़ाव उनकी भावना का जुड़ाव होना चाहिए ।आज समय आ गया है कि हम उन बातों को समझ सकें और अपनी शिक्षा में उसे जगह दे सकें ताकि आगे आने वाली पीढ़ी शिक्षा से भली भांति जुड़ सके । 

बच्चे प्रकृति के अनमोल रत्न और उनका चिंतन और विचार पूरी तरह  से मुक्त रहता है । सांसारिक भेदभाव से रहित और दुर्गुणों से भी पूर्णतः असम्पृक्त !

सच तो यह है कि छोटे-छोटे बच्चे नैतिक दृष्टि से और सांसारिक दृष्टि से विभिन्न प्रकार के कानूनी बंधनों से मुक्त रहते हैं उनके लिए ना तो कोई महान होता है ना कोई छोटा होता है ना कोई बड़ा होता है वह सभी को अपने मापदंड से ही नापते हैं । ( सरोजिनी पांडे बाल साहित्य समीक्षा के प्रतिमान और इतिहास लेखन  (पुस्तक )प्रकाशक :आशीष प्रकाशन कानपुर , प्रथम संस्करण .2011 , पृष्ठ संख्या - 27 )

एक विद्वान शिक्षक को बच्चों को पढ़ने - पढ़ाने के दौरान उनकी व्यक्तिगत प्रवृत्तियों रुचियों गुणों स्वभावों आदि का भी अध्ययन करना चाहिए । यदि आप कक्षा में जाने से पूर्व बच्चों की व्यक्तिगत विभिन्न व्यक्तित्व संबंधी विशेषताएं उनका सामाजिक पारिवारिक परिवेश और वातावरण तथा माता-पिता एवं अन्य सगे संबंधियों की शिक्षा तथा साक्षरता के स्तर को जान लेते हैं तो बच्चों के सर्वांगीण विकास में आपको आगे बढ़ाने में और उन्हें कक्षा में भली प्रकार पढ़ने -लिखने में मदद मिल सकती है । इसीलिए आज विभिन्न तरह की गतिविधियों तथा खेल-खेल में शिक्षा देने का प्रचलन आ गया है ।आज जो कौशल पूर्ण शिक्षा की बात की जा रही है । उसके मूल में यही बात है कि हम बच्चों में कला के माध्यम से , खेल के माध्यम से एवं अन्य रोचक तरीके से बच्चों को पढ़ने - लिखने में मदद कर सके । राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 इस बात पर जोर देती है कि बच्चों को उनको क्षेत्रीय भाषा में ही शिक्षा दी जानी चाहिए । चाहे बच्चे जिस क्षेत्र के हैं मगही , मैथिली ,भोजपुरी ,अंगिका, बज्जिका आदि क्षेत्र के  रहने वाले बच्चे हैं उन बच्चों को उनकी ही क्षेत्रीय भाषा में पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए क्योंकि उनके द्वारा सुनना बोलना पढ़ना और लिखना यह चारों कौशलों के विकास के लिए उनके घरेलू और सामाजिक वातावरण का होना जरूरी है क्योंकि अपने घर या बाहर में बोले जानेवाले शब्दों को जब हम जवाब देने के लिए या कुछ कहने के लिए प्रेरित करते हैं तो उनमें भाषण क्षमता का विकास होता है । उनके भीतर जो झिझक है वह दूर होती है और वह अपने विषय के प्रति उत्सुक और जागृत हो जाते हैं ।

भारतवर्ष के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे । उन्होंने आजाद भारत में सबसे पहले बच्चों के सर्वांगीण विकास तथा उनके सुनहरे भविष्य के बारे में सोचते हुए कहा था कि मैं हैरत में पड़ जाता हूं कि किसी व्यक्ति या राष्ट्र का भविष्य जानने के लिए लोग तारों को देखते हैं । मैं ज्योतिष की गिनती में दिलचस्पी नहीं रखता मुझे जब हिंदुस्तान का भविष्य देखने की इच्छा होती है तो बच्चों की आंखों और चेहरे को देखने की कोशिश करता हूं । बच्चों के भाव मुझे भावी भारत की झलक दे जाते हैं । (अक्षर वार्ता , मासिक, अंतरराष्ट्रीय बियर रिव्यू एवं रिफ्रेड जनरल अक्टूबर 2024 पृष्ठ संख्या 68 वॉल्यूम 20 इशू नंबर 12 )

कहना नहीं होगा कि ऐसा उन्होंने इसीलिए कहा होगा कि एक शिक्षक ही नहीं बल्कि एक प्रत्येक जिम्मेदार नागरिक बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए उनकी समस्त शैक्षिक गतिविधियों को उनके क्रियाकलाप को उनकी विभिन्न गतिविधियों को सीखने की क्षमता को उनकी रुचि रुझान को तथा उनकी आदतों को गहराई के साथ देखने और महसूस करने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि यही कुछ ऐसे कारक हैं जिनके माध्यम से हम बच्चों का सर्वांगीण विकास कर सकते हैं।

किसी विद्वान ने ठीक ही कहा है कि बच्चे गीली मिट्टी के समान होते हैं उन्हें जो आकार में ढाला जाए उस जाकर में ही वे शीघ्र ढल जाते हैं ।  उनका मन मानस कोमल होता है । (अक्षर वार्ता पत्रिका उपर्युक्त पृष्ठ )

हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि छोटा बच्चा जब पहली पहली बार विद्यालय आता है तब वह अपने घरेलू वातावरण से गुजरते हुए यहां आता है वह अपने घर मे  अपने माता-पिता , दादा दादी  , नाना नानी , चाचा-चाची , भाई बहन आदि विभिन्न लोगों के साथ हंसता खेलता ठिठोलिया भरता हुआ आता है और अपरिचित लोगों से पहली बार मिलता है जिसमें उनके हम उम्र के साथी भी होते हैं ।शिक्षक और शिक्षिकाएं भी होते हैं जहां उसे पारिवारिक शैक्षिक माहौल देने की जरूरत होती है ।इसीलिए बच्चों को खेल-खेल में शिक्षा देने की बात कही जाती है । बच्चों को प्यार भरे माहौल देने की बात कही जाती है और बच्चों को पुस्तकों के बोझ से हटाने की कोशिश की जाती है कि उसे अन्य गतिविधियों के माध्यम से भाषा का ज्ञान कराया जा सके और गणित का ज्ञान कराया जा सके ।

आज बच्चों के मानसिक तथा बौद्धिक विकास के लिए कथा , कहानी  , गीत  ,संगीत ,  कविता , गायन और वादन आदि से जोड़कर सिखाए जाने के प्रयास किये जा रहे हैं ।खेल-खेल में शिक्षा कला के माध्यम से शिक्षा गायन और नृत्य के माध्यम से शिक्षा तथा आसपास के वातावरण को दिखलाकर तथा महसूस करवा कर शिक्षा देने तथा सीखने के लिए प्रेरित कराए जा रहे हैं ।हमारे लिए यह भी जरूरी है कि बच्चों में भी नैतिकता का गुज विकसित हो तथा वह मानवीय जीवन मूल्य से अवगत हो सके और बड़े होकर एक जिम्मेदार तथा कर्तव्य निष्ठ नागरिक बन सके।इसीलिए कहा गया है कि  "बाल साहित्य के माध्यम से भी बच्चों को सीखने की क्षमता विकसित  की जा सकती है क्योंकि बाल साहित्य शब्द प्रेरणा के लिए दीप स्तंभ का कार्य करता है । (अक्षर वार्ता वही पृष्ठ  ) क्योंकि साहित्य में जादुई शक्ति होती है ।साहित्य के शब्द चाहे वह कविता हो चाहे वह गीत हो चाहे वह कहानी हो बच्चे ही नहीं बल्कि बड़ों को भी प्रभावित करती है।इसी साहित्य के द्वारा विभिन्न परिस्थितियों के अनुरूप विभिन्न रसों और भावों की अनुभूति भी कराई जाती है ।  बच्चे प्रतिपादित समस्या के बारे में सोचते हैं विचार करते हैं चिंतन करते हैं तथा पुनः एक निश्चित धारणा बनाते हैं ....इसके माध्यम से उनमें कठिन परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करने की शक्ति जागृत होती है । (अक्षर वार्ता वही पृष्ठ 69 )

बच्चों को सुनना बोलना पढ़ना और लिखना यह महत्वपूर्ण चार कौशल उनकी प्रारंभिक शिक्षा की आधारशिला है । वे यदि अपने घर से विद्यालय आते हैं तो वह घर में ही माता-पिता दादा दादी भाई-बहन और अन्य संबंधियों मित्रों से बहुत सारी बातें सीख कर आते हैं नए-नए शब्द सीख कर आते हैं । जिनमें नए-नए शब्द बोलने के हाव-भाव मन की विभिन्न मनोदशाएं और जिज्ञासाएं भी शामिल होती हैं। पहली बार विद्यालय आने वाले बच्चे ढेर सारे शब्दों को सीखकर आते हैं वे बाजार जाते है स्कूल आते जाते हैं अथवा वह जहां भी जाते हैं वे जो कुछ देखते हैं उन बातों का अनुकरण करते हैं और वह उनकी आदतों में शुमार हो जाती है ।वह जब भी दुकान जाते हैं या बाजार जाते हैं तो वह उन वस्तुओं को देखते हैं जो दुकानों में बिक रही होती है लोगों की बातों को ध्यान से सुनते हैं और आप यह महसूस कर सकते हैं कि वह नए-नए खिलौने जो आकार में बड़े तथा सुंदर तथा आकर्षक लगते हैं वह उन्हें एक ही नजर में पहचान लेते हैं और अगली बार जब  पुनः वे कभी उस दुकान की ओर जाते हैं तो उन खिलौने को लेने की जिद करने लगते हैं । इसी तरह ट्रॉफी एवं बिस्किट के जाकर उसकी सुंदरता उसके स्वाद तथा उसके वजन आदि से भी वह कहीं ना कहीं वाकिफ हो जाते हैं । उन  दुकान में रखे सामानों को देखकर पढ़ कर छूकर तथा दुकानदारों की बातचीत को भी सुनकर सीखते हैं तथा अनुभव प्राप्त करते हैं वह जब भी किसी से वार्तालाप होते देखते हैं अथवा दुकान में खरीदारी होते देखते हैं तथा उन्हें लोगों को हाथों में लिए हुए देखते हैं तो अपनी समझ विकसित करते रहते हैं क्योंकि बच्चों में जिज्ञासा का भाव प्रबल होता है । वह बहुत सारी बातें स्कूल से आते-जाते विभिन्न शैक्षिक गतिविधियों में हिस्सा लेते हुए सीखते रहते हैं ।इस तरह से उनके भीतर ज्ञान का निरंतर विकास होता रहता है तथा विचारों और भावों का भी आदान-प्रदान होता रहता है ।उन्हें शब्दों ,वाक्यों तथा कहानियों में आए विविध प्रसंगों के साथ-साथ पात्रों के प्रति आत्मीयता का भाव आने लगता है तथा वह उसी हिसाब से पात्रों के अनुरूप अपनी धारणा बना लेते हैं तथा अपनी पठन क्षमता भी विकसित कर रहे होते हैं । उनके सीखने का ढंग और सीखने की गति बहुत - कुछ इन सारी बातों पर निर्भर करता है और एक शिक्षक होने के नाते अथवा अभिभावक होने के नाते वह अपने बच्चों को गौर से यदि देख सकते हैं तो उन्हें महसूस होगा कि बच्चों में किस तरह के बदलाव आ रहे हैं और वह बदलाव में यदि शिक्षक की विभिन्न बेहतर गतिविधियां शामिल की जाए तो उसके बेहतर परिणाम सामने आ सकते हैं । इसी तरह बच्चों में सीखने की क्षमता के साथ-साथ लोगों से बातचीत करने मिलने - जुलने की प्रवृत्ति भी बढ़ती है । उनमें अपनापन का भाव भी पैदा हो जाता है और यह आत्मीयता का भाव उनके स्वभाव और विचार में शामिल हो जाता है तथा वह उसी हिसाब से पात्रों के अनुरूप अपनी धारणा बना लेते हैं तथा अपनी पठन क्षमता भी विकसित कर रहे होते हैं ।

"मनुष्य जीवन में मात्र अपने ज्ञान अनुभूतियां तथा विचारों से ही नहीं सकता है अपितु सीखने में वह अन्य लोगों के विचारों ज्ञान एवं अनुभवों से भी लाभान्वित होकर अपनी बौद्धिक व व्यावहारिक कुशलता में अभिवृद्धि करता है ।सीखने की सामाजिक प्रक्रिया नितांत मूल्यवती होती है क्योंकि सामाजिक प्रक्रिया का सक्रिय सहभागी बनकर सीखने में निरंतर रत व्यक्ति ही सामाजिक नागरिक बन सकता है । "  (डॉ आशुतोष दुबे  , प्राचार्य , राज्य शिक्षा संस्थान , उत्तर प्रदेश  ,प्रयागराज ) अधिगम शैक्षिक शोध पत्रिका अंक 15 जून 2020 संपादकीय पृष्ठ का अंश पृ० संख्या 3 )

वस्तुत: आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने बच्चों पर विशेष ध्यान दें । एक शिक्षक होने के नाते हमें इस ओर सोचना चाहिए । हमारी सरकार भी इस दिशा में बेहतर कार्य कर रही है । अतः आज आवश्यकता यह भी महसूस की जा रही है कि बच्चों में सहनशीलता आए , वे अपने जीवन के लक्ष्य को समझ सकें तथा देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने में मदद कर सकें ।इसके साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि बच्चों को पाश्चात्य  संस्कृति के बजाय भारतीय संस्कृति के प्रति लगाव हो तथा उनका आदर सम्मान कर सकें ।आज इस बात की भी जरूरत महसूस की जा रही है कि हमारे बच्चे अपने चरित्र एवं नैतिक विकास के प्रति भी जागरूक और गंभीर रहें ।मानव जीवन का इतिहास बताता है कि हम निरंतर सभ्यता और विकास की ओर उन्मुख हुए हैं ।हमें विकास के बहुआयामी सोपान और मूलभूत पक्ष को भी देखना चाहिए । क्योंकि सही शिक्षा तभी मानी जाएगी जब एक ओर बच्चों में नैतिकता का विकास हो तो दूसरी ओर उनके चरित्र का भी विकास हो ।  साथ ही बच्चों में जिस चार कौशलों के विकास की बात की जाती है जिसमें सुनना , बोलना , पढ़ना और लिखना शामिल है उसके प्रति हर माता-पिता एवं शिक्षक को सचेत रहना चाहिए , सावधान रहना चाहिए , प्रयासरत रहना चाहिए ।

वस्तुत: हमारे जीवन का लक्ष्य तो यही है बच्चों का सर्वांगीण विकास हो । यदि किसी बच्चे का एकांगी विकास ही होगा तो उसका पूर्ण विकास नहीं कहा जाएगा ।पूर्ण विकास के लिए जरूरी है कि उसकी बुद्धि उसकी भावना उसकी विचारधारा और उसकी स्वभावगत नैतिकता आदि का भी विकास हो इसीलिए बच्चों के जब संपूर्ण विकास की बात की जाती है तब हमारा लक्ष्य उनके समग्र पहलू पर भी केंद्रित हो जाता है । हमारा चिंतन और विचार और मानसिक भावनाएं ऐसी होनी चाहिए कि एक बच्चा आगे चलकर एक सभ्य तथा सुसंस्कृत नागरिक बन सके तथा देश के विकास में अपनी सक्रिय भूमिका निभा सके ।

सवाल यह उठता है कि हम अपने बच्चों का विकास आखिर किस तौर तरीकों से करते हैं ।प्रायः हर एक माता-पिता की यही इच्छा होती है कि उनका बच्चा आगे चलकर ऊंचा पद प्राप्त करें तथा अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी करे और इसके लिए प्रायः सभी माता-पिता एवं अभिभावक अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार बच्चों को अच्छे से अच्छे स्कूलों में दाखिला करवाते हैं .जहां बेहतर से बेहतर शिक्षा मिल सके तथा सामाजिक विकास की दौड़ में वे साथ-साथ चल सके ।इसके लिए महंगे स्कूल , महंगे शैक्षिक सहायक  शिक्षक  संसाधन तथा  फीस  तथा रहन -सहन अपनाते हैं या विभिन्न अधुनातम शिक्षण पद्धति और मनः स्थिति उन्हें विकास के विभिन्न मोड़ो एवं पड़ावों को देखने ,परखने , सोचने तथा अपनाने के लिए नित्य निरंतर प्रेरित करता है । इसके लिए येन - केन - प्रकारेण विधि एवं रणनीति भी अपनाते हैं । 

वस्तुत आज समस्या आया है कि हम  बच्चों के सर्वांगीण विकास में शैक्षिक गतिविधियों की महत्वपूर्ण भूमिका

हमें यह कहने में संकोच नहीं है कि आज बिहार में ही नहीं बल्कि भारत वर्ष में बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए जो कुछ प्रयास किया जाना चाहिए वह प्रयास पूरी तरह पर्याप्त नहीं है और उस प्रयास में और भी कुछ जोड़ा जाना चाहिए । राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 बच्चों के सर्वांगीण विकास पर बल देती है । यद्यपि महत्वपूर्ण शिक्षा वह है जो बच्चों में चरित्र निर्माण में सहयोग प्रदान कर सके । राष्ट्रपिता  महात्मा गांधी ने ठीक ही कहा था कि असली शिक्षा वह है जो बच्चों में चरित्र निर्माण पर बल देती है और उसके साथ उसके रोजी रोजगार में सहायता पहुंचाती है । सच तो यह है कि बच्चों का संसार एक अलग और अंगूठा संसार होता है । बच्चों की दुनिया एक अलग तरह की दुनिया मानी जा सकती है जहां बच्चे अपने अनुभव से खेलते हैं छोटे-छोटे बच्चे जो मिट्टी में घरौंदे बनाते हैं वे छोटे-छोटे बच्चे जो जमीन पर रेखाएं खींचते हैं वे छोटे-छोटे बच्चे जो दीवारों पर मिट्टी के ढेले से कुछ न कुछ चित्रकारी कर रहे होते हैं और वह बच्चे जो अपने से बड़े भाई - बहनों की पुस्तक या उनकी कॉपी को लेकर उसमें आड़ी - तिरछी रेखाएं खींच रहे होते हैं । उनमें भी उनका अनुभव है । उनमें भी उनकी कोई ना कोई कहानी होती है कोई न कोई दुख - सुख है उसमें भी उनका घृणा और प्रेम बसा हुआ है । उन दीवारों पर अंकित  रेखाओं में भी उनके  मन के भाव इस रूप में गूँथे हुए हैं  कि हमें समझने की जरूरत है ।आज समय बदल गया है और हमारी शिक्षा पद्धति बाल केंद्रित बन गई है । हम जो कुछ भी बच्चों को पढ़ाते हैं सिखाते हैं । उसमें पहली शर्त यही  है कि उस से बच्चों का मनोरंजन हो बच्चों को संबंधित विषय अथवा पाठ में दिलचस्पी रहे और वह अपनी कक्षा में पढ़ाये जाने वाले पाठ को एकाग्रतापूर्वक सुन सकें , सीख सकें और समझ सकें ।  यह इसलिए भी जरूरी है कि हमें बच्चों के मन के अनुसार उन्हें सही रास्ते पर लाना है चाहे हम बच्चों में भाषा संबंधी विकास की बात करें अथवा गणित संबंधी उनके ज्ञान की बात करें । प्रायः दोनों ही विषयों में बच्चों के मां का जुड़ाव उनकी भावना का जुड़ाव होना चाहिए ।आज समय आ गया है कि हम उन बातों को समझ सकें और अपनी शिक्षा में उसे जगह दे सकें ताकि आगे आने वाली पीढ़ी शिक्षा से भली भांति जुड़ सके । 

बच्चे प्रकृति के अनमोल रत्न और उनका चिंतन और विचार पूरी तरह  से मुक्त रहता है । सांसारिक भेदभाव से रहित और दुर्गुणों से भी पूर्णतः असम्पृक्त !

सच तो यह है कि छोटे-छोटे बच्चे नैतिक दृष्टि से और सांसारिक दृष्टि से विभिन्न प्रकार के कानूनी बंधनों से मुक्त रहते हैं उनके लिए ना तो कोई महान होता है ना कोई छोटा होता है ना कोई बड़ा होता है वह सभी को अपने मापदंड से ही नापते हैं । ( सरोजिनी पांडे बाल साहित्य समीक्षा के प्रतिमान और इतिहास लेखन  (पुस्तक )प्रकाशक :आशीष प्रकाशन कानपुर , प्रथम संस्करण .2011 , पृष्ठ संख्या - 27 )

एक विद्वान शिक्षक को बच्चों को पढ़ने - पढ़ाने के दौरान उनकी व्यक्तिगत प्रवृत्तियों रुचियों गुणों स्वभावों आदि का भी अध्ययन करना चाहिए । यदि आप कक्षा में जाने से पूर्व बच्चों की व्यक्तिगत विभिन्न व्यक्तित्व संबंधी विशेषताएं उनका सामाजिक पारिवारिक परिवेश और वातावरण तथा माता-पिता एवं अन्य सगे संबंधियों की शिक्षा तथा साक्षरता के स्तर को जान लेते हैं तो बच्चों के सर्वांगीण विकास में आपको आगे बढ़ाने में और उन्हें कक्षा में भली प्रकार पढ़ने -लिखने में मदद मिल सकती है । इसीलिए आज विभिन्न तरह की गतिविधियों तथा खेल-खेल में शिक्षा देने का प्रचलन आ गया है ।आज जो कौशल पूर्ण शिक्षा की बात की जा रही है । उसके मूल में यही बात है कि हम बच्चों में कला के माध्यम से , खेल के माध्यम से एवं अन्य रोचक तरीके से बच्चों को पढ़ने - लिखने में मदद कर सके । राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 इस बात पर जोर देती है कि बच्चों को उनको क्षेत्रीय भाषा में ही शिक्षा दी जानी चाहिए । चाहे बच्चे जिस क्षेत्र के हैं मगही , मैथिली ,भोजपुरी ,अंगिका, बज्जिका आदि क्षेत्र के  रहने वाले बच्चे हैं उन बच्चों को उनकी ही क्षेत्रीय भाषा में पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए क्योंकि उनके द्वारा सुनना बोलना पढ़ना और लिखना यह चारों कौशलों के विकास के लिए उनके घरेलू और सामाजिक वातावरण का होना जरूरी है क्योंकि अपने घर या बाहर में बोले जानेवाले शब्दों को जब हम जवाब देने के लिए या कुछ कहने के लिए प्रेरित करते हैं तो उनमें भाषण क्षमता का विकास होता है । उनके भीतर जो झिझक है वह दूर होती है और वह अपने विषय के प्रति उत्सुक और जागृत हो जाते हैं ।

भारतवर्ष के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे । उन्होंने आजाद भारत में सबसे पहले बच्चों के सर्वांगीण विकास तथा उनके सुनहरे भविष्य के बारे में सोचते हुए कहा था कि मैं हैरत में पड़ जाता हूं कि किसी व्यक्ति या राष्ट्र का भविष्य जानने के लिए लोग तारों को देखते हैं । मैं ज्योतिष की गिनती में दिलचस्पी नहीं रखता मुझे जब हिंदुस्तान का भविष्य देखने की इच्छा होती है तो बच्चों की आंखों और चेहरे को देखने की कोशिश करता हूं । बच्चों के भाव मुझे भावी भारत की झलक दे जाते हैं । (अक्षर वार्ता , मासिक, अंतरराष्ट्रीय बियर रिव्यू एवं रिफ्रेड जनरल अक्टूबर 2024 पृष्ठ संख्या 68 वॉल्यूम 20 इशू नंबर 12 )

कहना नहीं होगा कि ऐसा उन्होंने इसीलिए कहा होगा कि एक शिक्षक ही नहीं बल्कि एक प्रत्येक जिम्मेदार नागरिक बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए उनकी समस्त शैक्षिक गतिविधियों को उनके क्रियाकलाप को उनकी विभिन्न गतिविधियों को सीखने की क्षमता को उनकी रुचि रुझान को तथा उनकी आदतों को गहराई के साथ देखने और महसूस करने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि यही कुछ ऐसे कारक हैं जिनके माध्यम से हम बच्चों का सर्वांगीण विकास कर सकते हैं।

किसी विद्वान ने ठीक ही कहा है कि बच्चे गीली मिट्टी के समान होते हैं उन्हें जो आकार में ढाला जाए उस जाकर में ही वे शीघ्र ढल जाते हैं ।  उनका मन मानस कोमल होता है । (अक्षर वार्ता पत्रिका उपर्युक्त पृष्ठ )

हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि छोटा बच्चा जब पहली पहली बार विद्यालय आता है तब वह अपने घरेलू वातावरण से गुजरते हुए यहां आता है वह अपने घर मे  अपने माता-पिता , दादा दादी  , नाना नानी , चाचा-चाची , भाई बहन आदि विभिन्न लोगों के साथ हंसता खेलता ठिठोलिया भरता हुआ आता है और अपरिचित लोगों से पहली बार मिलता है जिसमें उनके हम उम्र के साथी भी होते हैं ।शिक्षक और शिक्षिकाएं भी होते हैं जहां उसे पारिवारिक शैक्षिक माहौल देने की जरूरत होती है ।इसीलिए बच्चों को खेल-खेल में शिक्षा देने की बात कही जाती है । बच्चों को प्यार भरे माहौल देने की बात कही जाती है और बच्चों को पुस्तकों के बोझ से हटाने की कोशिश की जाती है कि उसे अन्य गतिविधियों के माध्यम से भाषा का ज्ञान कराया जा सके और गणित का ज्ञान कराया जा सके ।

आज बच्चों के मानसिक तथा बौद्धिक विकास के लिए कथा , कहानी  , गीत  ,संगीत ,  कविता , गायन और वादन आदि से जोड़कर सिखाए जाने के प्रयास किये जा रहे हैं ।खेल-खेल में शिक्षा कला के माध्यम से शिक्षा गायन और नृत्य के माध्यम से शिक्षा तथा आसपास के वातावरण को दिखलाकर तथा महसूस करवा कर शिक्षा देने तथा सीखने के लिए प्रेरित कराए जा रहे हैं ।हमारे लिए यह भी जरूरी है कि बच्चों में भी नैतिकता का गुज विकसित हो तथा वह मानवीय जीवन मूल्य से अवगत हो सके और बड़े होकर एक जिम्मेदार तथा कर्तव्य निष्ठ नागरिक बन सके।इसीलिए कहा गया है कि  "बाल साहित्य के माध्यम से भी बच्चों को सीखने की क्षमता विकसित  की जा सकती है क्योंकि बाल साहित्य शब्द प्रेरणा के लिए दीप स्तंभ का कार्य करता है । (अक्षर वार्ता वही पृष्ठ  ) क्योंकि साहित्य में जादुई शक्ति होती है ।साहित्य के शब्द चाहे वह कविता हो चाहे वह गीत हो चाहे वह कहानी हो बच्चे ही नहीं बल्कि बड़ों को भी प्रभावित करती है।इसी साहित्य के द्वारा विभिन्न परिस्थितियों के अनुरूप विभिन्न रसों और भावों की अनुभूति भी कराई जाती है ।  बच्चे प्रतिपादित समस्या के बारे में सोचते हैं विचार करते हैं चिंतन करते हैं तथा पुनः एक निश्चित धारणा बनाते हैं ....इसके माध्यम से उनमें कठिन परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करने की शक्ति जागृत होती है । (अक्षर वार्ता वही पृष्ठ 69 )

बच्चों को सुनना बोलना पढ़ना और लिखना यह महत्वपूर्ण चार कौशल उनकी प्रारंभिक शिक्षा की आधारशिला है । वे यदि अपने घर से विद्यालय आते हैं तो वह घर में ही माता-पिता दादा दादी भाई-बहन और अन्य संबंधियों मित्रों से बहुत सारी बातें सीख कर आते हैं नए-नए शब्द सीख कर आते हैं । जिनमें नए-नए शब्द बोलने के हाव-भाव मन की विभिन्न मनोदशाएं और जिज्ञासाएं भी शामिल होती हैं। पहली बार विद्यालय आने वाले बच्चे ढेर सारे शब्दों को सीखकर आते हैं वे बाजार जाते है स्कूल आते जाते हैं अथवा वह जहां भी जाते हैं वे जो कुछ देखते हैं उन बातों का अनुकरण करते हैं और वह उनकी आदतों में शुमार हो जाती है ।वह जब भी दुकान जाते हैं या बाजार जाते हैं तो वह उन वस्तुओं को देखते हैं जो दुकानों में बिक रही होती है लोगों की बातों को ध्यान से सुनते हैं और आप यह महसूस कर सकते हैं कि वह नए-नए खिलौने जो आकार में बड़े तथा सुंदर तथा आकर्षक लगते हैं वह उन्हें एक ही नजर में पहचान लेते हैं और अगली बार जब  पुनः वे कभी उस दुकान की ओर जाते हैं तो उन खिलौने को लेने की जिद करने लगते हैं । इसी तरह ट्रॉफी एवं बिस्किट के जाकर उसकी सुंदरता उसके स्वाद तथा उसके वजन आदि से भी वह कहीं ना कहीं वाकिफ हो जाते हैं । उन  दुकान में रखे सामानों को देखकर पढ़ कर छूकर तथा दुकानदारों की बातचीत को भी सुनकर सीखते हैं तथा अनुभव प्राप्त करते हैं वह जब भी किसी से वार्तालाप होते देखते हैं अथवा दुकान में खरीदारी होते देखते हैं तथा उन्हें लोगों को हाथों में लिए हुए देखते हैं तो अपनी समझ विकसित करते रहते हैं क्योंकि बच्चों में जिज्ञासा का भाव प्रबल होता है । वह बहुत सारी बातें स्कूल से आते-जाते विभिन्न शैक्षिक गतिविधियों में हिस्सा लेते हुए सीखते रहते हैं ।इस तरह से उनके भीतर ज्ञान का निरंतर विकास होता रहता है तथा विचारों और भावों का भी आदान-प्रदान होता रहता है ।उन्हें शब्दों ,वाक्यों तथा कहानियों में आए विविध प्रसंगों के साथ-साथ पात्रों के प्रति आत्मीयता का भाव आने लगता है तथा वह उसी हिसाब से पात्रों के अनुरूप अपनी धारणा बना लेते हैं तथा अपनी पठन क्षमता भी विकसित कर रहे होते हैं । उनके सीखने का ढंग और सीखने की गति बहुत - कुछ इन सारी बातों पर निर्भर करता है और एक शिक्षक होने के नाते अथवा अभिभावक होने के नाते वह अपने बच्चों को गौर से यदि देख सकते हैं तो उन्हें महसूस होगा कि बच्चों में किस तरह के बदलाव आ रहे हैं और वह बदलाव में यदि शिक्षक की विभिन्न बेहतर गतिविधियां शामिल की जाए तो उसके बेहतर परिणाम सामने आ सकते हैं । इसी तरह बच्चों में सीखने की क्षमता के साथ-साथ लोगों से बातचीत करने मिलने - जुलने की प्रवृत्ति भी बढ़ती है । उनमें अपनापन का भाव भी पैदा हो जाता है और यह आत्मीयता का भाव उनके स्वभाव और विचार में शामिल हो जाता है तथा वह उसी हिसाब से पात्रों के अनुरूप अपनी धारणा बना लेते हैं तथा अपनी पठन क्षमता भी विकसित कर रहे होते हैं ।

"मनुष्य जीवन में मात्र अपने ज्ञान अनुभूतियां तथा विचारों से ही नहीं सकता है अपितु सीखने में वह अन्य लोगों के विचारों ज्ञान एवं अनुभवों से भी लाभान्वित होकर अपनी बौद्धिक व व्यावहारिक कुशलता में अभिवृद्धि करता है ।सीखने की सामाजिक प्रक्रिया नितांत मूल्यवती होती है क्योंकि सामाजिक प्रक्रिया का सक्रिय सहभागी बनकर सीखने में निरंतर रत व्यक्ति ही सामाजिक नागरिक बन सकता है।"  (डॉ आशुतोष दुबे  , प्राचार्य , राज्य शिक्षा संस्थान, उत्तर प्रदेश  ,प्रयागराज ) अधिगम शैक्षिक शोध पत्रिका अंक 15 जून 2020 संपादकीय पृष्ठ का अंश पृ० संख्या 3 )

वस्तुत: आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने बच्चों पर विशेष ध्यान दें । एक शिक्षक होने के नाते हमें इस ओर सोचना चाहिए । हमारी सरकार भी इस दिशा में बेहतर कार्य कर रही है । अतः आज आवश्यकता यह भी महसूस की जा रही है कि बच्चों में सहनशीलता आए , वे अपने जीवन के लक्ष्य को समझ सकें तथा देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने में मदद कर सकें ।इसके साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि बच्चों को पाश्चात्य  संस्कृति के बजाय भारतीय संस्कृति के प्रति लगाव हो तथा उनका आदर सम्मान कर सकें ।आज इस बात की भी जरूरत महसूस की जा रही है कि हमारे बच्चे अपने चरित्र एवं नैतिक विकास के प्रति भी जागरूक और गंभीर रहें ।मानव जीवन का इतिहास बताता है कि हम निरंतर सभ्यता और विकास की ओर उन्मुख हुए हैं ।हमें विकास के बहुआयामी सोपान और मूलभूत पक्ष को भी देखना चाहिए । क्योंकि सही शिक्षा तभी मानी जाएगी जब एक ओर बच्चों में नैतिकता का विकास हो तो दूसरी ओर उनके चरित्र का भी विकास हो ।  साथ ही बच्चों में जिस चार कौशलों के विकास की बात की जाती है जिसमें सुनना , बोलना , पढ़ना और लिखना शामिल है उसके प्रति हर माता-पिता एवं शिक्षक को सचेत रहना चाहिए , सावधान रहना चाहिए , प्रयासरत रहना चाहिए ।

वस्तुत: हमारे जीवन का लक्ष्य तो यही है बच्चों का सर्वांगीण विकास हो । यदि किसी बच्चे का एकांगी विकास ही होगा तो उसका पूर्ण विकास नहीं कहा जाएगा ।पूर्ण विकास के लिए जरूरी है कि उसकी बुद्धि उसकी भावना उसकी विचारधारा और उसकी स्वभावगत नैतिकता आदि का भी विकास हो इसीलिए बच्चों के जब संपूर्ण विकास की बात की जाती है तब हमारा लक्ष्य उनके समग्र पहलू पर भी केंद्रित हो जाता है । हमारा चिंतन और विचार और मानसिक भावनाएं ऐसी होनी चाहिए कि एक बच्चा आगे चलकर एक सभ्य तथा सुसंस्कृत नागरिक बन सके तथा देश के विकास में अपनी सक्रिय भूमिका निभा सके ।

सवाल यह उठता है कि हम अपने बच्चों का विकास आखिर किस तौर तरीकों से करते हैं ।प्रायः हर एक माता-पिता की यही इच्छा होती है कि उनका बच्चा आगे चलकर ऊंचा पद प्राप्त करें तथा अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी करे और इसके लिए प्रायः सभी माता-पिता एवं अभिभावक अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार बच्चों को अच्छे से अच्छे स्कूलों में दाखिला करवाते हैं .जहां बेहतर से बेहतर शिक्षा मिल सके तथा सामाजिक विकास की दौड़ में वे साथ-साथ चल सके ।इसके लिए महंगे स्कूल , महंगे शैक्षिक सहायक  शिक्षक  संसाधन तथा  फीस  तथा रहन -सहन अपनाते हैं या विभिन्न अधुनातम शिक्षण पद्धति और मनः स्थिति उन्हें विकास के विभिन्न मोड़ो एवं पड़ावों को देखने ,परखने , सोचने तथा अपनाने के लिए नित्य निरंतर प्रेरित करता है । इसके लिए येन - केन - प्रकारेण विधि एवं रणनीति भी अपनाते हैं । 

वस्तुत आज समस्या आया है कि हम बच्चों के सर्वांगीण विकास पर बोल दें औरदेश के सर्वांगीण विकास में अपनीमहत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सके ।प्रधानमंत्रीमाननीय नरेंद्र मोदी जी का यह कथन विशेष महत्व रखता है कि 2047 तक भारत को विकसित भारतके रूप में विश्व के पटल पर उभर कर आना चाहिए और हर एक क्षेत्र में विकास के विभिन्न रूपपरिलक्षित होना चाहिए जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण बच्चों की शिक्षा है उनके देखरेख हैक्योंकिकिसी भी देशकाबेहतर विकास वहां के शिक्षण व्यवस्था से ही संभव हो सकता है । के सर्वांगीण विकास पर बोल दें औरदेश के सर्वांगीण विकास में अपनीमहत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सके ।प्रधानमंत्रीमाननीय नरेंद्र मोदी जी का यह कथन विशेष महत्व रखता है कि 2047 तक भारत को विकसित भारतके रूप में विश्व के पटल पर उभर कर आना चाहिए और हर एक क्षेत्र में विकास के विभिन्न रूपपरिलक्षित होना चाहिए जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण बच्चों की शिक्षा है उनके देखरेख हैक्योंकिकिसी भी देशकाबेहतर विकास वहां के शिक्षण व्यवस्था से ही संभव हो सकता है । वह प्रयास पूरी तरह पर्याप्त नहीं है और उस प्रयास में और भी कुछ जोड़ा जाना चाहिए । राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 बच्चों के सर्वांगीण विकास पर बल देती है । यद्यपि महत्वपूर्ण शिक्षा वह है जो बच्चों में चरित्र निर्माण में सहयोग प्रदान कर सके । राष्ट्रपिता  महात्मा गांधी ने ठीक ही कहा था कि असली शिक्षा वह है जो बच्चों में चरित्र निर्माण पर बल देती है और उसके साथ उसके रोजी रोजगार में सहायता पहुंचाती है । सच तो यह है कि बच्चों का संसार एक अलग और अंगूठा संसार होता है । बच्चों की दुनिया एक अलग तरह की दुनिया मानी जा सकती है जहां बच्चे अपने अनुभव से खेलते हैं छोटे-छोटे बच्चे जो मिट्टी में घरौंदे बनाते हैं वे छोटे-छोटे बच्चे जो जमीन पर रेखाएं खींचते हैं वे छोटे-छोटे बच्चे जो दीवारों पर मिट्टी के ढेले से कुछ न कुछ चित्रकारी कर रहे होते हैं और वह बच्चे जो अपने से बड़े भाई - बहनों की पुस्तक या उनकी कॉपी को लेकर उसमें आड़ी - तिरछी रेखाएं खींच रहे होते हैं । उनमें भी उनका अनुभव है । उनमें भी उनकी कोई ना कोई कहानी होती है कोई न कोई दुख - सुख है उसमें भी उनका घृणा और प्रेम बसा हुआ है । उन दीवारों पर अंकित  रेखाओं में भी उनके  मन के भाव इस रूप में गूँथे हुए हैं  कि हमें समझने की जरूरत है ।आज समय बदल गया है और हमारी शिक्षा पद्धति बाल केंद्रित बन गई है । हम जो कुछ भी बच्चों को पढ़ाते हैं सिखाते हैं । उसमें पहली शर्त यही  है कि उस से बच्चों का मनोरंजन हो बच्चों को संबंधित विषय अथवा पाठ में दिलचस्पी रहे और वह अपनी कक्षा में पढ़ाये जाने वाले पाठ को एकाग्रतापूर्वक सुन सकें , सीख सकें और समझ सकें ।  यह इसलिए भी जरूरी है कि हमें बच्चों के मन के अनुसार उन्हें सही रास्ते पर लाना है चाहे हम बच्चों में भाषा संबंधी विकास की बात करें अथवा गणित संबंधी उनके ज्ञान की बात करें । प्रायः दोनों ही विषयों में बच्चों के मां का जुड़ाव उनकी भावना का जुड़ाव होना चाहिए ।आज समय आ गया है कि हम उन बातों को समझ सकें और अपनी शिक्षा में उसे जगह दे सकें ताकि आगे आने वाली पीढ़ी शिक्षा से भली भांति जुड़ सके । 

बच्चे प्रकृति के अनमोल रत्न और उनका चिंतन और विचार पूरी तरह  से मुक्त रहता है । सांसारिक भेदभाव से रहित और दुर्गुणों से भी पूर्णतः असम्पृक्त !

सच तो यह है कि छोटे-छोटे बच्चे नैतिक दृष्टि से और सांसारिक दृष्टि से विभिन्न प्रकार के कानूनी बंधनों से मुक्त रहते हैं उनके लिए ना तो कोई महान होता है ना कोई छोटा होता है ना कोई बड़ा होता है वह सभी को अपने मापदंड से ही नापते हैं । ( सरोजिनी पांडे बाल साहित्य समीक्षा के प्रतिमान और इतिहास लेखन  (पुस्तक )प्रकाशक :आशीष प्रकाशन कानपुर , प्रथम संस्करण .2011 , पृष्ठ संख्या - 27 )

एक विद्वान शिक्षक को बच्चों को पढ़ने - पढ़ाने के दौरान उनकी व्यक्तिगत प्रवृत्तियों रुचियों गुणों स्वभावों आदि का भी अध्ययन करना चाहिए । यदि आप कक्षा में जाने से पूर्व बच्चों की व्यक्तिगत विभिन्न व्यक्तित्व संबंधी विशेषताएं उनका सामाजिक पारिवारिक परिवेश और वातावरण तथा माता-पिता एवं अन्य सगे संबंधियों की शिक्षा तथा साक्षरता के स्तर को जान लेते हैं तो बच्चों के सर्वांगीण विकास में आपको आगे बढ़ाने में और उन्हें कक्षा में भली प्रकार पढ़ने -लिखने में मदद मिल सकती है । इसीलिए आज विभिन्न तरह की गतिविधियों तथा खेल-खेल में शिक्षा देने का प्रचलन आ गया है ।आज जो कौशल पूर्ण शिक्षा की बात की जा रही है । उसके मूल में यही बात है कि हम बच्चों में कला के माध्यम से , खेल के माध्यम से एवं अन्य रोचक तरीके से बच्चों को पढ़ने - लिखने में मदद कर सके । राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 इस बात पर जोर देती है कि बच्चों को उनको क्षेत्रीय भाषा में ही शिक्षा दी जानी चाहिए । चाहे बच्चे जिस क्षेत्र के हैं मगही , मैथिली ,भोजपुरी ,अंगिका, बज्जिका आदि क्षेत्र के  रहने वाले बच्चे हैं उन बच्चों को उनकी ही क्षेत्रीय भाषा में पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए क्योंकि उनके द्वारा सुनना बोलना पढ़ना और लिखना यह चारों कौशलों के विकास के लिए उनके घरेलू और सामाजिक वातावरण का होना जरूरी है क्योंकि अपने घर या बाहर में बोले जानेवाले शब्दों को जब हम जवाब देने के लिए या कुछ कहने के लिए प्रेरित करते हैं तो उनमें भाषण क्षमता का विकास होता है । उनके भीतर जो झिझक है वह दूर होती है और वह अपने विषय के प्रति उत्सुक और जागृत हो जाते हैं ।

भारतवर्ष के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे । उन्होंने आजाद भारत में सबसे पहले बच्चों के सर्वांगीण विकास तथा उनके सुनहरे भविष्य के बारे में सोचते हुए कहा था कि मैं हैरत में पड़ जाता हूं कि किसी व्यक्ति या राष्ट्र का भविष्य जानने के लिए लोग तारों को देखते हैं । मैं ज्योतिष की गिनती में दिलचस्पी नहीं रखता मुझे जब हिंदुस्तान का भविष्य देखने की इच्छा होती है तो बच्चों की आंखों और चेहरे को देखने की कोशिश करता हूं । बच्चों के भाव मुझे भावी भारत की झलक दे जाते हैं । (अक्षर वार्ता , मासिक, अंतरराष्ट्रीय बियर रिव्यू एवं रिफ्रेड जनरल अक्टूबर 2024 पृष्ठ संख्या 68 वॉल्यूम 20 इशू नंबर 12 )

कहना नहीं होगा कि ऐसा उन्होंने इसीलिए कहा होगा कि एक शिक्षक ही नहीं बल्कि एक प्रत्येक जिम्मेदार नागरिक बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए उनकी समस्त शैक्षिक गतिविधियों को उनके क्रियाकलाप को उनकी विभिन्न गतिविधियों को सीखने की क्षमता को उनकी रुचि रुझान को तथा उनकी आदतों को गहराई के साथ देखने और महसूस करने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि यही कुछ ऐसे कारक हैं जिनके माध्यम से हम बच्चों का सर्वांगीण विकास कर सकते हैं।

किसी विद्वान ने ठीक ही कहा है कि बच्चे गीली मिट्टी के समान होते हैं उन्हें जो आकार में ढाला जाए उस जाकर में ही वे शीघ्र ढल जाते हैं ।  उनका मन मानस कोमल होता है । (अक्षर वार्ता पत्रिका उपर्युक्त पृष्ठ )

हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि छोटा बच्चा जब पहली पहली बार विद्यालय आता है तब वह अपने घरेलू वातावरण से गुजरते हुए यहां आता है वह अपने घर मे  अपने माता-पिता , दादा दादी  , नाना नानी , चाचा-चाची , भाई बहन आदि विभिन्न लोगों के साथ हंसता खेलता ठिठोलिया भरता हुआ आता है और अपरिचित लोगों से पहली बार मिलता है जिसमें उनके हम उम्र के साथी भी होते हैं ।शिक्षक और शिक्षिकाएं भी होते हैं जहां उसे पारिवारिक शैक्षिक माहौल देने की जरूरत होती है ।इसीलिए बच्चों को खेल-खेल में शिक्षा देने की बात कही जाती है । बच्चों को प्यार भरे माहौल देने की बात कही जाती है और बच्चों को पुस्तकों के बोझ से हटाने की कोशिश की जाती है कि उसे अन्य गतिविधियों के माध्यम से भाषा का ज्ञान कराया जा सके और गणित का ज्ञान कराया जा सके ।

आज बच्चों के मानसिक तथा बौद्धिक विकास के लिए कथा , कहानी  , गीत  ,संगीत ,  कविता , गायन और वादन आदि से जोड़कर सिखाए जाने के प्रयास किये जा रहे हैं ।खेल-खेल में शिक्षा कला के माध्यम से शिक्षा गायन और नृत्य के माध्यम से शिक्षा तथा आसपास के वातावरण को दिखलाकर तथा महसूस करवा कर शिक्षा देने तथा सीखने के लिए प्रेरित कराए जा रहे हैं ।हमारे लिए यह भी जरूरी है कि बच्चों में भी नैतिकता का गुज विकसित हो तथा वह मानवीय जीवन मूल्य से अवगत हो सके और बड़े होकर एक जिम्मेदार तथा कर्तव्य निष्ठ नागरिक बन सके।इसीलिए कहा गया है कि  "बाल साहित्य के माध्यम से भी बच्चों को सीखने की क्षमता विकसित  की जा सकती है क्योंकि बाल साहित्य शब्द प्रेरणा के लिए दीप स्तंभ का कार्य करता है । (अक्षर वार्ता वही पृष्ठ  ) क्योंकि साहित्य में जादुई शक्ति होती है ।साहित्य के शब्द चाहे वह कविता हो चाहे वह गीत हो चाहे वह कहानी हो बच्चे ही नहीं बल्कि बड़ों को भी प्रभावित करती है।इसी साहित्य के द्वारा विभिन्न परिस्थितियों के अनुरूप विभिन्न रसों और भावों की अनुभूति भी कराई जाती है ।  बच्चे प्रतिपादित समस्या के बारे में सोचते हैं विचार करते हैं चिंतन करते हैं तथा पुनः एक निश्चित धारणा बनाते हैं ....इसके माध्यम से उनमें कठिन परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करने की शक्ति जागृत होती है । (अक्षर वार्ता वही पृष्ठ 69 )

बच्चों को सुनना बोलना पढ़ना और लिखना यह महत्वपूर्ण चार कौशल उनकी प्रारंभिक शिक्षा की आधारशिला है । वे यदि अपने घर से विद्यालय आते हैं तो वह घर में ही माता-पिता दादा दादी भाई-बहन और अन्य संबंधियों मित्रों से बहुत सारी बातें सीख कर आते हैं नए-नए शब्द सीख कर आते हैं । जिनमें नए-नए शब्द बोलने के हाव-भाव मन की विभिन्न मनोदशाएं और जिज्ञासाएं भी शामिल होती हैं। पहली बार विद्यालय आने वाले बच्चे ढेर सारे शब्दों को सीखकर आते हैं वे बाजार जाते है स्कूल आते जाते हैं अथवा वह जहां भी जाते हैं वे जो कुछ देखते हैं उन बातों का अनुकरण करते हैं और वह उनकी आदतों में शुमार हो जाती है ।वह जब भी दुकान जाते हैं या बाजार जाते हैं तो वह उन वस्तुओं को देखते हैं जो दुकानों में बिक रही होती है लोगों की बातों को ध्यान से सुनते हैं और आप यह महसूस कर सकते हैं कि वह नए-नए खिलौने जो आकार में बड़े तथा सुंदर तथा आकर्षक लगते हैं वह उन्हें एक ही नजर में पहचान लेते हैं और अगली बार जब  पुनः वे कभी उस दुकान की ओर जाते हैं तो उन खिलौने को लेने की जिद करने लगते हैं । इसी तरह ट्रॉफी एवं बिस्किट के जाकर उसकी सुंदरता उसके स्वाद तथा उसके वजन आदि से भी वह कहीं ना कहीं वाकिफ हो जाते हैं । उन  दुकान में रखे सामानों को देखकर पढ़ कर छूकर तथा दुकानदारों की बातचीत को भी सुनकर सीखते हैं तथा अनुभव प्राप्त करते हैं वह जब भी किसी से वार्तालाप होते देखते हैं अथवा दुकान में खरीदारी होते देखते हैं तथा उन्हें लोगों को हाथों में लिए हुए देखते हैं तो अपनी समझ विकसित करते रहते हैं क्योंकि बच्चों में जिज्ञासा का भाव प्रबल होता है । वह बहुत सारी बातें स्कूल से आते-जाते विभिन्न शैक्षिक गतिविधियों में हिस्सा लेते हुए सीखते रहते हैं ।इस तरह से उनके भीतर ज्ञान का निरंतर विकास होता रहता है तथा विचारों और भावों का भी आदान-प्रदान होता रहता है ।उन्हें शब्दों ,वाक्यों तथा कहानियों में आए विविध प्रसंगों के साथ-साथ पात्रों के प्रति आत्मीयता का भाव आने लगता है तथा वह उसी हिसाब से पात्रों के अनुरूप अपनी धारणा बना लेते हैं तथा अपनी पठन क्षमता भी विकसित कर रहे होते हैं । उनके सीखने का ढंग और सीखने की गति बहुत - कुछ इन सारी बातों पर निर्भर करता है और एक शिक्षक होने के नाते अथवा अभिभावक होने के नाते वह अपने बच्चों को गौर से यदि देख सकते हैं तो उन्हें महसूस होगा कि बच्चों में किस तरह के बदलाव आ रहे हैं और वह बदलाव में यदि शिक्षक की विभिन्न बेहतर गतिविधियां शामिल की जाए तो उसके बेहतर परिणाम सामने आ सकते हैं । इसी तरह बच्चों में सीखने की क्षमता के साथ-साथ लोगों से बातचीत करने मिलने - जुलने की प्रवृत्ति भी बढ़ती है । उनमें अपनापन का भाव भी पैदा हो जाता है और यह आत्मीयता का भाव उनके स्वभाव और विचार में शामिल हो जाता है तथा वह उसी हिसाब से पात्रों के अनुरूप अपनी धारणा बना लेते हैं तथा अपनी पठन क्षमता भी विकसित कर रहे होते हैं ।

"मनुष्य जीवन में मात्र अपने ज्ञान अनुभूतियां तथा विचारों से ही नहीं सकता है अपितु सीखने में वह अन्य लोगों के विचारों ज्ञान एवं अनुभवों से भी लाभान्वित होकर अपनी बौद्धिक व व्यावहारिक कुशलता में अभिवृद्धि करता है ।सीखने की सामाजिक प्रक्रिया नितांत मूल्यवती होती है क्योंकि सामाजिक प्रक्रिया का सक्रिय सहभागी बनकर सीखने में निरंतर रत व्यक्ति ही सामाजिक नागरिक बन सकता है । "  (डॉ आशुतोष दुबे  , प्राचार्य , राज्य शिक्षा संस्थान , उत्तर प्रदेश  ,प्रयागराज ) अधिगम शैक्षिक शोध पत्रिका अंक 15 जून 2020 संपादकीय पृष्ठ का अंश पृ० संख्या 3 )

वस्तुत: आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने बच्चों पर विशेष ध्यान दें । एक शिक्षक होने के नाते हमें इस ओर सोचना चाहिए । हमारी सरकार भी इस दिशा में बेहतर कार्य कर रही है । अतः आज आवश्यकता यह भी महसूस की जा रही है कि बच्चों में सहनशीलता आए , वे अपने जीवन के लक्ष्य को समझ सकें तथा देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने में मदद कर सकें ।इसके साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि बच्चों को पाश्चात्य  संस्कृति के बजाय भारतीय संस्कृति के प्रति लगाव हो तथा उनका आदर सम्मान कर सकें ।आज इस बात की भी जरूरत महसूस की जा रही है कि हमारे बच्चे अपने चरित्र एवं नैतिक विकास के प्रति भी जागरूक और गंभीर रहें ।मानव जीवन का इतिहास बताता है कि हम निरंतर सभ्यता और विकास की ओर उन्मुख हुए हैं ।हमें विकास के बहुआयामी सोपान और मूलभूत पक्ष को भी देखना चाहिए । क्योंकि सही शिक्षा तभी मानी जाएगी जब एक ओर बच्चों में नैतिकता का विकास हो तो दूसरी ओर उनके चरित्र का भी विकास हो ।  साथ ही बच्चों में जिस चार कौशलों के विकास की बात की जाती है जिसमें सुनना , बोलना , पढ़ना और लिखना शामिल है उसके प्रति हर माता-पिता एवं शिक्षक को सचेत रहना चाहिए , सावधान रहना चाहिए , प्रयासरत रहना चाहिए ।

वस्तुत: हमारे जीवन का लक्ष्य तो यही है बच्चों का सर्वांगीण विकास हो । यदि किसी बच्चे का एकांगी विकास ही होगा तो उसका पूर्ण विकास नहीं कहा जाएगा ।पूर्ण विकास के लिए जरूरी है कि उसकी बुद्धि उसकी भावना उसकी विचारधारा और उसकी स्वभावगत नैतिकता आदि का भी विकास हो इसीलिए बच्चों के जब संपूर्ण विकास की बात की जाती है तब हमारा लक्ष्य उनके समग्र पहलू पर भी केंद्रित हो जाता है । हमारा चिंतन और विचार और मानसिक भावनाएं ऐसी होनी चाहिए कि एक बच्चा आगे चलकर एक सभ्य तथा सुसंस्कृत नागरिक बन सके तथा देश के विकास में अपनी सक्रिय भूमिका निभा सके ।

सवाल यह उठता है कि हम अपने बच्चों का विकास आखिर किस तौर तरीकों से करते हैं ।प्रायः हर एक माता-पिता की यही इच्छा होती है कि उनका बच्चा आगे चलकर ऊंचा पद प्राप्त करें तथा अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी करे और इसके लिए प्रायः सभी माता-पिता एवं अभिभावक अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार बच्चों को अच्छे से अच्छे स्कूलों में दाखिला करवाते हैं .जहां बेहतर से बेहतर शिक्षा मिल सके तथा सामाजिक विकास की दौड़ में वे साथ-साथ चल सके ।इसके लिए महंगे स्कूल , महंगे शैक्षिक सहायक  शिक्षक  संसाधन तथा  फीस  तथा रहन -सहन अपनाते हैं या विभिन्न अधुनातम शिक्षण पद्धति और मनः स्थिति उन्हें विकास के विभिन्न मोड़ो एवं पड़ावों को देखने ,परखने , सोचने तथा अपनाने के लिए नित्य निरंतर प्रेरित करता है । इसके लिए येन - केन - प्रकारेण विधि एवं रणनीति भी अपनाते हैं । 

वस्तुत: आज समस्या यह है कि हम बच्चों के सर्वांगीण विकास पर बल दें और देश के सर्वांगीण विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकें ।प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी का यह कथन विशेष महत्व रखता है कि 2047 तक भारत को विकसित भारत के रूप में विश्व के पटल पर उभर कर आना चाहिए और हर एक क्षेत्र में विकास के विभिन्न रूप परिलक्षित होना चाहिए जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य बच्चों की शिक्षा है उनका देखरेख है क्योंकि किसी भी देश का बेहतर विकास वहां के शिक्षण व्यवस्था से ही संभव हो सकता है । 

 

-डॉ॰ पंडित विनय कुमार
व्याख्याता  (हिन्दी)
शीतला नगर, रोड न . 3
गुलजार बाग, अगमकुआँ, पटना , बिहार
मो० -9334504100
ई-मेल :  pt.kumar960@gmail.com

 

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