एक लाभ होता है लगाने का। जैसे तेल लगाना, मक्खन लगाना, चूना लगाना आदि। इसका पहला और प्रत्यक्ष लाभ तो यह है कि इस लगाने में कोई खर्च नहीं है। बस सिर्फ लगा भर देने से काम चल जाता है। पानी लगाने के लिए वास्तव में आपको न तेल चाहिए, न मक्खन और न चुना। यदि सचमुच लगाने के लिए इन वस्तुओं का इस्तेमाल करना हो तो लगाने वालों की संख्या आधी भी नहीं रह जाती। चूंकि मुफ्त में यह सब लग जाता है, इसलिए लोग मजे से दूसरों को लगा देते हैं। इसलिए यह सब लगाने वालों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, जो तनिक सिद्धांतवादी हैं, वे भी कभी-न-कभी, किसी-न-किसी को, कुछ-न-कुछ लगाने के लिए मजबूर हो ही जाते हैं। दरअसल, बिना कुछ लगाए आज के जमाने में काम ही नहीं चलता है। जब तक लगाने में हिचक होती है, दिक्कत सिर्फ तभी तक है। एक बार संकोच से बाहर आकर किसी को अपनी जरूरत के हिसाब से, इन वस्तुओं में से कुछ लगा दें तो फिर लगाते जाने का सिलसिला अपने-आप चालू हो जाता है।
एक बार यह सिलसिला बन जाए, तब विना किसी को कुछ लगाए आप मानेंगे भी नहीं। मान लीजिए कि अपना स्वार्थ साधने के लिए किसी को तेल, घी, मक्खन या चूना लगाने की जरूरत न भी पड़े, आप अपनी आदत के मुताबिक लगाकर ही रहेंगे। जब कुछ लगाकर काम निकालने की आपकी आदत पड़ जाए तो विना लगाए काम से जाने पर भी आपको मजा नहीं आएगा। समझिए कि यह लगाना भी एक गेम है। इस क्षेत्र में बड़ी जबरदस्त प्रतियोगिता है। एक-से-एक माहिर लगाने वाले मिलेंगे। जब किसी लगाने वाले को धकियाकर खुद न लगाने बैठ जाएँ, आपका काम होने से रहा। यों यह लगाना भी एक छूत का रोग है। किसी को कुछ लगाते देखकर आपको भी लगाने की खुजली होगी। इसी तरह लगाने से लगाने तक यह गेम आगे बढ़ता रहता है। इस गेम में लगाने वालों से पिछड़ने की जगह उन्हें पछाड़ने की आवश्यकता होती है। इसके लिए थोड़ा अभ्यास चाहिए। थोड़ा प्रशिक्षण मिल जाए तो पौ बारह। हमारे समाज में इसके विशेषज्ञ उपलब्ध हैं, जो किसी को कुछ भी लगाकर बता सकते हैं।
यह तो हुई लगाने वालों की बात, अब जरा लगवाने वालों की ओर झाँकें तो मामला और भी दिलचस्प जान पड़ेगा। मुझे लगता है कि ईश्वर ने मनुष्य में एक दोष कूटकर ठूंस दिया है। कमबख्त जल्दी बुरा नहीं बनना चाहता है। अच्छे बने रहने की जिद में रहता है। आपको याद होगा कि भविष्यवक्ताओं ने कई बार महाप्रलय की घोषणा कर दी थी, पर हमारा दुर्भाग्य कि वह कांड अभी तक नहीं हुआ, इसके लिए मनुष्य की इस जिद्द को ही मैं जिम्मेदार मानता हूँ। अन्यथा, सभी बुरे बन जाते तो मि. महाप्रलय को भी पृथ्वी पर प्रवेश की कितनी सुविधा रहती। खैर, बुरा सिर्फ एक ही बार बनना होता है, उसके बाद बुराई के लाभ के सारे दरवाजे फटाफट खुलने लगते हैं। उन्हीं में से एक दरवाजा तेल, मक्खन या चूना लगवाने का भी है। यह चूना लगाने की बात, शेष लगाने से भिन्न है, अधिक शास्त्रीय है। उस पर बाद में बात करूंगा। यह तेल या मक्खन लगवाने वालों की जो नस्ल तैयार हुई है, उसका श्रेय मूलतः लगाने वालों को ही जाता है। शुरू में लगवाने में थोड़ी अकवकी हो सकती है, पर बाद में बिना लगवाए जी नहीं मानता है। इसलिए प्रारंभ में छँटाक-भर से भी लगवाने वाले संतुष्ट हो जाते हैं, पर बाद में उन्हें संतुष्ट होने के लिए किलो से लेकर क्विंटल तक जरूरत पड़ सकती है।
इसमें लगवाने वाले की भूख और क्षमता पर निरंतर ध्यान रखना पड़ता है। जिसे खुश होने के लिए, आपका काम करने के लिए आधा किलो तेल या मक्खन की जरूरत हो, पर आप अपनी नासमझी के कारण ढाई सौ ग्राम से काम चलाना चाहें तो बात नहीं बनेगी। किसी की तारीफ करने-भर से काम हो जाता है। किसी के सामने दाँत भी निपोरने पड़ते हैं। किसी को केवल नमस्कार यानी साष्टांग नमस्कार की जरूरत पड़ जाती है तो किसी को इस बात की कि वह रोए तो आप आँसू बहाने लगें। वह हँसे तो आप खिलखिला उठें। इसकी आगे की डिग्री है, उसकी हर बेवकूफी पर आप खुलकर दाद दें। पानी लगवाने वाले की सामर्थ्य का अनुमान लगा लेना आसान नहीं है, खासकर नौसिखिओं के लिए। यों इस क्षेत्र में ऐसे दिग्गज मिलते हैं, जो लगवाने वाले को एक नजर देखकर ही, तेल या मक्खन की मात्रा का अनुमान लगा लेते हैं। हो सकता है, कोई लगवाने वाला आकार-प्रकार से मोटा- ताजा हो, पर कम मात्रा में ही काम हो जाए। इसके विपरीत किसी दुबले-पतले को किलो क्या, मनों की जरूरत पड़ जाए।
सच तो यह है कि तेल या मक्खन लगाने की बात काफी पुरानी हो चुकी है। अब न लगाने वालों को वह मजा मिलता है और न लगवाने वालों को, पर चूना लगाने वाली बात इससे अलग है, ऊपर है। तेल या मक्खन लगाकर आप बस किसी की खुशामद-भर कर सकते हैं, पर चूना लगाकर किसी को खुदकुशी तक ढकेल सकते हैं। इसलिए चूना लगाने का कर्म अपेक्षाकृत अधिक जटिल और गंभीर है। तेल, मक्खन तो आजकल ऐरे-गैरे भी लगा देते हैं और लगवा लेते हैं, पर चूना लगाना आसान नहीं है। इसमें काफी रिस्क है। तेल या मक्खन लगाकर छोटा-मोटा हाथ मारा जा सकता है। प्रायः लंबा हाथ मारने में चूना लगाने का उपयोग किया जाता है। जब आप किसी को तेल या मक्खन लगा रहे होते हैं, तब लगवाने वाले को भी इसका पता होता है यानी एहसास रहता है, लेकिन चूना लगने का एहसास प्रायः लग जाने के बाद ही होता है। व्याकरण की दृष्टि से तेल या मक्खन लगाने की क्रिया वर्तमान कारक है और चूना लगाने की क्रिया भूतकालिक। इसकी बुनियादी खूबी ही यह है कि क्रिया बीत जाने पर पता चलता है कि हाय! चूना लगा गया। सामान्यतः तेल या मक्खन व्यक्ति द्वारा व्यक्ति को लगाने तक सीमित होता है, पर चूना लगाने का स्कोप, व्यक्ति, विभाग, संस्था या सरकार यहाँ तक कि देश तक फैला हुआ होता है। जैसे-हर्षद मेहता ने केवल रिजर्व बैंक को ही नहीं, पूरे राष्ट्र को चूना लगाया।
तेल या मक्खन लगवाते हुए लगवाने वाला व्यक्ति, आसमान पर चढ़ता जाता है। चूना लग जाने पर और कोई चारा नहीं रह जाता, सिवाय आसमान से जमीन पर गिरने के। जैसे अयोध्या के मामले में केंद्रीय सरकार गिरी है। वस्तुतः चूना लगाना एक कला है। तेल या मक्खन लगाने वाले तो छोटे कलाकार होते हैं, चूना लगाना बड़े और सिद्धहस्त कलाकारों का काम है। जिसे आप चूना लगा रहे हैं, उसे पता तक न चले, यही इस कला का बुनियादी सौंदर्य है। यदि दूसरे शब्दों में कहा जाए तो तेल या मक्खन लगाना स्माल स्केल इंडस्ट्री है। चूना लगाने का काम मल्टी नेशनल कंपनियों जैसा विस्तृत होता है। करोड़ों और अरबों तक का चूना लगाया जा सकता है। यह जरूर माना जा सकता है कि चूना लगाने की शुरुआत तेल लगाने से की जा सकती है। आपको तेल या मक्खन लगाना हो तो वेशक लगाइए, पर अपना लक्ष्य हमेशा चूना लगाने को बनाइए।
-सी भास्कर राव