मैं नहीं समझता, सात समुन्दर पार की अंग्रेजी का इतना अधिकार यहाँ कैसे हो गया। - महात्मा गांधी।

ठंडक (कथा-कहानी)

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Author: महीप सिंह

जैसे से ही उस विशाल भवन का कुछ भाग दिखाई दिया, जीवन ने कहा, 'देखो, वह है...पूरा एयरकंडीशंड है।' फिर वह स्वयं ही संकुचित-सा हुआ, सत्या एयरकंडीशंड का मतलब क्या समझेगी। वह समझाने लगा, 'देखो, अभी कितनी गर्मी है। वहाँ पहुँचोगी, तो ऐसा लगेगा. जैसे किसी ठंडे पहाड़ पर आ गई हो।' परंतु वह फिर संकुचित हुआ, सत्या ठंडा पहाड़ भी क्या समझेगी। क्या वह कभी वहां गई है? और वह खुद भी कहां गया है। उसने भी तो केवल सुना ही है कि पहाड़ ठंडे होते हैं। अमीर लोग गर्मियों में पहाड़ पर चले जाते हैं।

उसने फिर समझाया, 'देखो, इसमें ऐसी मशीन लगी है, जिससे सारा मकान ठंडा हो जाता है।' फिर उसने एक नजर सत्या के कपड़ों की ओर डाली। पतली-सी सत्या के पतले-से शरीर पर पतली-सी साड़ी थी, पतला सा ब्लाउज था। वह बोला, 'तुमको हाल में ठंड लगने लगेगी, देखना।'

उसे लगा, यदि हाल में सत्या को सचमुच ठंड लगने लगे तो वह बड़ा खुश हो। इससे एयरकंडीशन के संबंध में बताई हुई बात पुष्ट हो जाएगी।

सत्या उसके साथ बढ़ी चली जा रही थी। उसे लग रहा था, वह चल नहीं रही है, कोई हिलोर है जो उसे अपने-आप बढ़ाए लिए जा रही है। दो महीने हुए, अपने छोटे-से नगर से वह इस महानगरी में आ गई थी। ससुर के साथ घूँघट में कब वह गाड़ी से उतरी, कब टैक्सी में बैठी और कब अपनी खोली में पहुँच गई, उसे अच्छी तरह याद नहीं। अपने कानों में पड़े कोलाहल से वह जान गई थी कि वह शहर में आ गई है। पर शहर ऐसा होता है। हाँ, शहर ऐसा ही होता है। सभी तो इसे शहर कहते हैं। तभी उसके कस्बे का हर आदमी वहाँ भाग आना चाहता है।

वे सिनेमा-हाल के निकट पहुँच गए। एयरकंडीशनिंग की भीनी-भी खुशबू उस तक पहुंचने लगी थी। जीवन के चेहरे पर गर्व की खुशी दौड़ गई। बोला 'देखा, कैसे ठंडी-ठंडी खुशबू आ रही है।'

सिनेमा-हाल के बाहर बड़ी भीड़ थी। अभी पहला शो समाप्त नहीं हुआ था। रंग-बिरंगी साड़ियों, पैंटों और टाइयों की चहल-पहल सत्या को मेले जैसी लग रही थी। वह मेला ही याद कर सकती है। मेला उसने कई बार देखा है। वहाँ भी कुछ ऐसी ही चहल-पहल होती। पर कितना अंतर है दोनों मेलों में! एक में वह हलकी-फुलकी डोंगी-सी उतराती चली जाती है, दूसरे में भारी पत्थर की तरह बैठती जा रही है।

जीवन ने नजर इधर-उधर दौड़ाई। पता नहीं शो समाप्त होने में अभी कितनी देर है, पर बाहर की यह रंगीन चहल-पहल भी तो किसी शो से कम नहीं। लोग गुटों में बँधे हुए हैं, हँस रहे हैं, बातें कर रहे हैं, कुछ खा-पी रहे हैं। इस वातावरण में वह भी अपने-आपको किसी चीज से वंचित नहीं पाता। सत्या सहित उसका भी अपना एक गुट है। लोगों को आपस में बातचीत करते देख वह भी सत्या से कुछ बातचीत करने लगता है। लोगों को हँसता देख वह हँस पड़ता है। वह और सत्या एक ही पैकेट से निकालकर बेफर खा रहे हैं। चारों और फैली हुई फिजा में वह अपने-आपको कितना हल्का महसूस कर रहा है।

सिनेमा-हाल के बाहर रखे हुए हाउस फुल के बोर्ड की ओर इशारा करते हुए जीवन ने सत्या से कहा, 'भीड़ काफी है। देखो, अब एक भी टिकट नहीं बचा। कितने लोग बेचारे निराश लौटे जा रहे हैं।' फिर उसने अपनी पैंट की जेब में पड़े पर्स को अनुभव किया, उसमें पड़े दो टिकटों को अनुभव किया और एक गहरे संतोष की लहर उसके सारे शरीर में दौड़ गई।

'सुनो,' सत्या बोली, 'वह सामने एक लड़का खड़ा है... देख रहे हो न...?' जीवन ने उधर देखा, 'कौन लड़का ...?'

'अरे वो, जो गंदी-सी बुश्शर्ट पहने है। लंबा-सा।' जीवन फिर भी कुछ नहीं समझा, क्योंकि उस ओर गंदी बुश्शर्ट की कमी थी, न लंबों की, परंतु यदि वह उसे देख भी ले तो क्या? बोला, 'आखिर बात क्या है?'

'वो अर्जुन है।'

'अर्जुन...? कौन अर्जुन...?'

'अर्जुन को नहीं जानते?' सत्या खीझती हुई बोली, 'अपनी गली के मोड़ पर वो सिंधी नहीं रहते, मनसुखानी, उनका लड़का।'

जीवन खीझ उठा। उसकी गली में बहुत से सिंधी रहते हैं और उनके बहुत लड़के हैं-अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव। पर क्या वह सबकी खोज खबर रखता है? बोला, 'उसका लड़का? पर हमें इससे क्या?'

सत्या ने उसे ऐसे आश्चर्य से देखा जैसे वह दिन को रात कह रहा हो, 'तुम्हें मालूम नहीं, वह कई दिन से अपने घर से लापता है? इसकी माँ बेचारी रो-रोकर अंधी हुई जा रही है।'

जीवन ने फिर उस ओर देखा। गंदी बुश्शर्ट वाला चौदह-पंद्रह साल का लंबा लड़का अब उसकी नजर में आ गया था।

'सुनो,' सत्या बोली, 'जरा बुलाओ तो उसे।'

जीवन को यह कहना कुछ अजीब-सा लगा, फिर भी उसने सी... सी करके उसे बुलाया। वह पास आ गया। जीवन ने सत्या की ओर देखा और सत्या ने जीवन की ओर, फिर दोनों ने उस लड़के की ओर देखा। सत्या ने आँखों से ही इशारा किया, 'पूछो।'

जीवन को कुढ़न हुई, 'क्या पूछें भला...?' सत्या ने जीवन की आकृति निरपेक्ष देखी, तो उस लड़के की ओर उन्मुख हुई, 'तुम्हारा क्या नाम है?... तुम्हारा नाम अर्जुन है न...?'

दोनों प्रश्न एक साथ सुनकर जैसे उस लड़के की सिट्टी मारी गई। वह कुछ क्षण टुकर-टुकर दोनों को देखता रहा, फिर धीरे से बोला, 'नहीं, मेरा नाम तो किशन है।'

उत्तर सुनकर सत्या को लगा, जैसे भरे बाजार में किसी ने उसका पल्लू खींच लिया है और जीवन को लगा, जैसे सचमुच सत्या का पल्लू ही खिंच गया है। दोनों हक्के-बक्के से खड़े कभी एक-दूसरे को और कभी उस लड़के को देखते रहे। वह फिर उसकी ओर उन्मुख हुई, 'तुम्हारा नाम अर्जुन नहीं है...? तुम कुर्ला में नहीं रहते हो?' इस बार उस लड़के के मुँह से 'नहीं, नहीं' निकला। वह चुपचाप खड़ा रहा। सत्या को बल मिला, 'तुम तीन दिन से अपने घर से भागे हुए नहीं हो?'

लड़का चुप रहा। पर जीवन के लिए यह सब असह्य हो गया था। खीझकर बोला, 'इससे तुम्हें क्या लेना-देना है, सत्या? ख़ामख़्वाह बेकार की झंझट ले बैठी हो। यह अर्जुन है या किशन, हमें इससे क्या मतलब है?'

'तुम्हें मालूम है, जब से यह लापता है, इसके घर की क्या हालत है?' सत्या के चेहरे पर अजीब-सी तमतमाहट आ गई थी।

जीवन घबरा-सा गया। जैसे उसे कुछ सूझा नहीं कि वह क्या कहे। इतने में वह लड़का मुड़ा और चल पड़ा। पर सत्या ने झट से उसका हाथ पकड़ लिया और बोली, 'तुम्हें शर्म नहीं आती, बिना खबर दिए तीन दिन से घर से गायब हो। तुम्हारी माँ रो-रोकर अंधी हुई जा रही है। तुम्हारा बाप तुम्हें ढूंढ़ता हुआ मारा-मारा फिर रहा है और और तुम सिनेमा देखने आए हो...। बेशरम...!'

जीवन खीझा और भौंचक्का-सा सत्या को देख रहा था। यह उसे क्या हो गया है? और सत्या की तमतमाहट ऊर्ध्वमुखी होकर जब विगलित हो रही थी। उसका गला रुंध गया था और नेत्र भर आए थे। उसके होंठ काँप रहे थे। उस लड़के की बांह पकड़ते हुए उसके हाथ में अजीब-सी थरथराहट हो रही थी। और लड़का सत्या के सम्मुख भेड़ बना खड़ा था-न उसके मुँह से कुछ निकल रहा था, न किसी प्रकार का प्रतिरोध करने की वह चेष्टा कर रहा था।

जीवन को बड़ी बेचैनी महसूस हुई जब उसने देखा चारों ओर खड़े लोगों का ध्यान भी उधर आकर्षित हो गया है। तमाशबीन उसके चारों ओर इकट्ठे होने लगे थे। वह धीरे से बोला, 'अच्छा, इसे छोड़ो तो।'

सत्या ने हाथ ढीला कर दिया। लड़का मुड़कर बिना कुछ बोले चला गया था। जीवन ने देखा, लोग सामने के दरवाजे से अंदर जा रहे हैं। बोला, 'चलो, पहला शो छूट गया।' सत्या ने एक बार उधर देखा, जिस तरफ वह लड़का गया था, फिर वह चल दी। अंदर घुसते ही। एग्रकंडीशनिंग की ठंडक ने जीवन को अभिभूत कर दिया। उसने मुस्कराकर सत्या की ओर देखा, परंतु उसके चेहरे पर छाई तप्तता वैसी ही बनी थी। जीवन को लगा, जैसे उसके समग्र आनंद को किसी चीज ने खंडित कर दिया है। कितनी साध थी उसे, सत्या को यह राजमहल जैसा सिनेमा हाल दिखाने की! पर बीच में यह काँटा कहाँ से चुभ गया? उसने फिर कोशिश की, 'सत्या, बिलकुल राजमहल जैसा लगता है न?  देखो, ज़मीन पर बिछे गलीचे कैसे मुलायम हैं। पैर धँसते चले जाते हैं।'

सत्या ने नीचे की ओर देखा, फिर जीवन की ओर। उसकी आँखों में उसकी बात का समर्थन तो था, पर वह उल्लास नहीं था, जो जीवन देखना चाहता था।

जीवन का उत्साह मंद पड़ गया। वह पता नहीं कितनी चीजें दिखाना चाहता था--चारों ओर दीवारों पर लगे आदमकद शीशे, छत से लटकते फानूस, पर वह दिखाए किसे? सत्या तो वहाँ थी ही नहीं।

वे हाल के अंदर अपनी सीटों पर जाकर बैठ गए। सामने लगा कीमती मखमल का परदा धीरे-धीरे दोनों और खिसक गया। पीछे सफेद परदा दिखाई दिया। हाल में बत्तियाँ बुझ गई। सफेद परदे पर विज्ञापन दौड़ने लगे। फिर न्यूजरील शुरू हुई। जीवन को सत्या की धीमी आवाज सुनाई दी, 'सुनो, यह अर्जुन अपने घर से भाग क्यों गया?"

जीवन को लगा, जैसे किसी ने उसे कचोट लिया। तुनककर बोला, 'वह मुझे बताकर तो भागा नहीं। मुझे क्या मालूम?'

'तुम तो बेकार नाराज हो रहे हो। मैं पूछती हूँ आखिर ये लड़के अपने घर से भाग क्यों जाते हैं?'

जीवन और तुनका, 'अच्छा, पिक्चर देख लेने दो। घर चलकर मैं इसी विषय पर रिसर्च शुरू करूंगा।'

सत्या चुप हो गई।

पिक्चर शुरू हो गई। जीवन इस पिक्चर का पूरा आनंद लेना चाहता था। वह सत्या को उस पिक्चर में काम करने वाले हर पात्र का नाम और उसके गुण बताना चाहता था। वह दुःख के स्थलों पर संवेदना प्रकट करना चाहता था। वह हँसी के स्थानों पर जी भरकर हँसना चाहता था। परंतु यह क्या हो गया है। जीवन के आनंद की शीतल जल धारा जैसे किसी तप्त रेगिस्तान में खो गई।

जाने कितनी देर दोनों गुमसुम पिक्चर देखते रहे। उसे सत्या की धीमी आवाज फिर सुनाई दी, 'सुनो, अर्जुन की माँ ने तीन दिन से अन्न का दाना मुंह में नहीं डाला।'

जीवन ने उस अंधेरे में ही घूरकर सत्या की ओर देखा। उसने अन्न का दाना मुँह में नहीं डाला तो वह क्या करे? क्या उसने उसके लड़के को घर से भगा दिया है? और सत्या भी बस विचित्र है। इतनी देर से उसी का रोना लिए बैठी है।

वह कुछ नहीं बोला। आधा घंटा गुजर गया। सत्या की बुदबुदाहट उसे फिर सुनाई दी, 'सुनो, हम लोगों ने गलती की। उसे छोड़ना नहीं चाहिए था। उसके बाप ने तीन दिन से अपनी दुकान नहीं खोली। उसके छोटे भाई-बहन स्कूल नहीं गए। माँ तो हमेशा रोती रहती है। हम उसे पकड़कर घर ले जाते। पिक्चर का क्या काम है? पिक्चर फिर कभी देख लेते।'

जीवन को लगा, सत्या ने उसके सिर के बाल नोच लिए है। वह क्रोध में उबल पड़ा। दाँत पीसता और आवाज दबाता हुआ बोला, 'तुम बकबक किए ही जाओगी या चुप भी बैठोगी? उस लड़के के घरवालों के साथ इतनी हमदर्दी है, तो मेरे साथ इतनी दुश्मनी क्यों कर रही हो? सारी पिक्चर का मजा किरकिरा करके रख दिया। पगली कहीं की! अब ज्यादा बकबक की तो मैं हाल छोड़कर चला जाऊँगा।'

सत्या सुन्न हो गई। पिक्चर चलती रही, परंतु वह स्थिर थी। इंटरवल हुआ। पिक्चर फिर शुरू हुई, परंतु वह स्थिर ही रही, न हिली, न डुली, न कोई बात की।

दूसरे दिन सुबह जीवन उठा, तो सत्या चाय का प्याला सामने रखती हुई बोली, 'सुनो, देखो सुबह-सुबह नाराज मत होना। अब इतना तो करो कि अर्जुन के पिता को बता आओ कि वह हमें कल सिनेमा में मिला था। बेचारों की कुछ चिंता तो दूर हो।'

परंतु जीवन के मुँह में कल का कसैलापन पूरी तरह बाकी था। वह सख्ती से बोला, 'मुझे क्या गरज पड़ी है। मैंने क्या दुनिया का ठेका ले रखा है? तुम्हें बड़ी हमदर्दी है तो जाओ, रोकता कौन है?'

सत्या चुप होकर बिस्तर सँभालने लगी। इतने में दरवाजे पर खटखट हुई। सत्या ने दरवाजा खोला। जीवन ने अंदर बैठे-बैठे ही सुना, कोई स्त्री कह रही थी, 'बहन, तुम्हारी बड़ी मेहरबानी! अर्जुन रात को ही घर आ गया था। तुम उसे सिनेमा में मिली थी न। तुमने उसे खूब डाँटा था न...। बस, वह सीधा घर आ गया। बहन, तुम्हारी बहुत मेहरबानी। तुमने मेरे बेटे को मिलाया, मेरा दिल ठंडा कर दिया।'

-महीप सिंह

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