मैं नहीं समझता, सात समुन्दर पार की अंग्रेजी का इतना अधिकार यहाँ कैसे हो गया। - महात्मा गांधी।

नशा (कथा-कहानी)

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Author: मन्नू भण्डारी

"सत्यानाश हो उस हरामी के पिल्ले का, जिसने ऐसी जान लेवा चीज बनाई!" ...खाली बोतल को हिला हिलाकर शंकर इस तरह जोर-जोर से चिल्ला रहा था, जिससे कि रसोई में काम करती हुई उसकी पत्नी सुन ले। "घर का घर तबाह हो जाए, आदमी की जिन्दगी तबाह हो जाये; पर यह जालिम तरस नहीं खाती! कैसा मूर्ख होता है आदमी भी, यह समझता है वह इसे पी रहा है; पर असल में यह आदमी को पीती है, आदमी की जान को, आदमी के खून को पीती है उसके ईमान को पीती है, हाँ-हाँ!" यों ही बकता-बहकता, खाली बोतल की मुग्दर घुमाता हुआ शंकर रसोई के दरवाजे पर पहुँच गया, "देखा, यह खाली हो गई?" और बोतल को उलटी करते हुए बोला, "एक दम खाली! अब मैं चाहता हूँ कि मैं इसे भरूँ और पिऊँ और यह कम्बख्त चाहती है कि यह मेरे पेट में भर जाये और मुझे पिये! ...पियें... दोनों खूब पियें!"

आनन्दी सिर झुकाये हुए जौ की मोटी-मोटी रोटियाँ सेक रही थी। वह सब सुनती है, पर बोली नहीं। क्या बोले? बोलने को उसके पास कुछ है भी नहीं, कभी भी तो कुछ नहीं रहा। वाणी कुन्द हुए वर्षों हो गए। वह जानती है, शंकर को कल पीने को नहीं मिला, वह बहुत कष्ट पा रहा है। परसों उसने बहुत चाहा था कि किसी तरह कुछ पीस डाले, पर उठा ही नहीं गया। सारा बदन जैसे जुड़ गया था। इस गठिया ने उसे अपाहिज बना दिया है। कल सारे दिन शंकर बका था, आनन्दी पर दो-तीन लातें भी पड़ी थीं; पर वह पैसा न दे सकी।

कल रात तो तूने बड़ी देर तक पीसा था, आनन्दी। पिसाई नहीं मिली क्या?" बिना पिये शायद शंकर को सारी रात नींद नहीं आई, तभी तो मालूम है कि उसने सारी रात पीसा। पर पिसाई, कैसे दे-दे वह पिसाई? ग्रानन्दो का मन बहा बोझिल हो आया, एक हूक-सी उठी मन में। हथेलियों के छाले पीड़ा उठे।  ...पर शंकर को फिर नींद नहीं आएगी। ये जौ की रोटियाँ जो उसने बनाई हैं, वह खायेगा नहीं। सारी दोपहर, सारी रात बकेगा, तड़पेगा, उसे मारेगा। आनन्दी उठी, तांबे की कटोरी में से कुछ पैसे लाकर उसने शंकर के हाथ में रख दिये।

"तेरी जैसी सती नार का भगवान जरूर भला करेगा, आनन्दी! तेरा बेटा भी एक दिन लौट आएगा, जरूर, जरूर लौट आयेगा। ऐसी औरत के साथ तो भगवान् भी दुश्मनी नहीं निभा सकता!"

शंकर चला गया तो अपनी हथेलियाँ देखने लगी--छालों से भरी हुई हथेलियों। टप-टप आँसू टपकने लगे आँखों से। उसके छालों पर हमेशा आँसुओं का ही तो मरहम लगा है।

"हे मगवान, मुझे मौत आ जाये! कोई मुझे यहां से ले जाये!" एक घुटी-घुटी सी आह और उससे भी ज्यादा घुटी-घुटी आवाज!

 

X X X

 

"सुनती है, आनन्दी, तेरे बेटे की चि‌ट्ठी आई है! अरे, वह जीता जागता है, बड़ा आदमी हो गया है!" हाथ में चि‌ट्ठी लिये दौड़ता-सा शंकर आनन्दी के पास आया। "देख-देख, किशनू की चि‌ट्ठी आई है! उसने कपड़े की दुकान कर ली है। ...ले, देख, देख!"

अवाक्-सी आनन्दी शंकर का मुंह देखती रह गई। शंकर के हाथ में बोतल नहीं, कागज था। गोबर से सने हाथ आनन्दी ने एक बार आगे बढ़ाए फिर वापस खींच लिये। कहीं पैसे लेने के लिए शंकर उसके साथ मजाक तो नहीं कर रहा है? उसकी आँखों में कुछ ऐसा बाव उभर आया, मानो कह रही हो, ऐसा क्रूर मजाक मत करो मेरे साथ! तुम्हें पैसे चाहिए तो यों ही माँग लो।

"बुद्ध-जैसी क्या देख रही है? देख, अपने बेटे की लिखाई पहचानती है या नहीं?" और पत्र को उसने आनन्दी की आँखों से सटा दिया, "तेरे नाम लिखी है--अपनी माँ के नाम। मुझसे तो वह आज भी गुस्सा है। हरामी कहीं का!"

गाली आनन्दी के सीने में जा लगी।

"सुन, क्या लिखा है," और शंकर जोर-जोर से पत्र पढ़कर सुनाने लगा।

"कपड़े की दूकान जम गई तो शादी भी कर ली! ...एक छोटा-सा पक्का मकान भी बना लिया। ...अब तुझे मैं अपने ही साथ रखूँगा, यह सब मैंने तेरे ही लिए किया है, माँ। ...मैं तुझे लेने आ रहा हूँ।"

आनन्दी को लगा, जैसे यह सब शंकर पढ़ नहीं रहा; किशन बोल रहा है। किशन की आवाज वह कभी भूल सकती है भला? उसकी आँखों के सामने किशनू का आँसू-भरा चेहरा उभर आया।

"अरे, कल तेरा बेटा आ रहा है--बारह साल बाद। राम चौदह साल बाद आये थे तो अयोध्या वालों ने दीवाली मनाई थी। तू भी दीवाली मना, तेरा राम आ रहा है न! ...आज तो दो रुपये माँगू तो भी कम हैं। सच कहता है जो परसों से एक बूंद भी गले के नीचे गई हो तो! और अब क्या बात है? तेरे बेटे के मकान है, कपडे की दूकान है!" कहकर शंकर ने सामने रखी गोबर की ढेरी पर कसकर लात मारी। दूर-दूर तक गोबर छिटक गया। "तू अब उपले नहीं थापेगी, समझी? कुछ नहीं करेगी। चल, दो रुपये दे, निकाल।"

आनन्दी ने चुपचाप हाथ धोये। दो रुपये दिए। दो रात उसने सिलाई की थी, और दिन में उपले थापे थे, सूत काता था, तब जाकर अढ़ाई-रुपये मिले थे। आठ आने का धान लाई थी, बाकी रुपये...।

रुपए हाथ आते ही शंकर ने जल्दी-जल्दी सिर पर साफा लपेटा और चलने लगा। आनन्दी ने धीरे से कहा, "चि‌ट्ठी तो देते जाओ।"

"ले ये चिट्ठी। अरे, मैं कोई झूठ थोड़े ही बोल रहा हूँ? कल तेरा बेटा आ रहा है। जा किसी से पढ़वा ले। सत्यानासी बुलाए बिना नहीं मानी। बदजात कहीं की!" और लम्बे-लम्वे डग भरता वह बाहर निकल गया।

कल किशनू आ रहा है, सचमुच ही किशनू आ रहा है। और जैसे इतनी देर बाद उसे पहली बार बोध हुआ कि उसके जीवन में क्या कुछ घट गया? बारह साल बाद उसका बेटा आ रहा है... एकाएक चबूतरे पर बैठकर ही आनन्दी फूट-फूट कर रो पड़ी। ऊपर से सदा ही शान्त रहने वाला पर्वत के भीतर का ज्वालामुखी जब फूटता है तो कोई भी शक्ति उस आवेश को रोक नहीं पाती। बारह साल बाद वह कल अपने किशनू को देखेगी! उसका बेटा उसका खोया हुआ बेटा वापस आ रहा है! ...शंकर आज के दिन भी शराब पीने गया। क्यों नहीं वह सारे मुहल्ले में दौड़ता फिरा? क्यों नहीं उसने घर-घर जाकर खबर दी कि किशनू या रहा है? क्यों नहीं उसके पास बैठकर उसने बात की कि किशनू के आने की तैयारी में क्या-क्या किया जाए? ...तैयारी? उसकी आँखों के सामने ताँबे की खाली कटोरी घूम गई। शंकर के प्रति तीखी घृणा और विरक्ति से उसका मन भर गया।

वह उठी। अपने घर के चारों ओर उसने नजर डाली। कितना बदल गया है उसका घर इन बारह सालों में! कच्ची दोवारों में मोटी-मोटी दरारें पड़ गई हैं, आंगन में जहाँ-तहाँ से गोबर की मोटी-मोटी पपड़ियाँ उतर गयी हैं; उसने आजकल लीपना पोतना भी छोड़ ही दिया था। इतना समय ही कहाँ रहता था उसके पास। फिर किसके लिए लीपे-पोते? किशनू क्या कहेगा यह घर देखकर? लेकिन एक दिन में अब वह कर भी क्या सकती है?

साँझ आयी और चारों ओर धुंधलका छा गया तो मूँज की ढीली-ढाली खटिया आंगन में डालकर वह लेट गयी।

दीया बाट, बहु खाट!' थककर बड़ी रात गए वह सोने जाती तो उसकी सास उसे ताना सुनाया करती थी। आज तो सचमुच ही वह दिया जलाते ही खाट पर आ लेटी थी। आज वह रोटी नहीं बनाएगी। सवेरे उसने रोटी नहीं खायी थी, उससे खायी ही नहीं गयी। शंकर आकर वही रोटी खा लेगा। पीकर आता है तो उसे गर्म रोटी चाहिए, न मिलने पर वह गुस्से में मार भी बैठता है। फिर भी आनन्दी नहीं उठी। आज और मार ले, कल तो फिर उसका बेटा आ जाएगा। फिर देखे, कोई तो उसके हाथ लगा के! किशनू ने सारी चि‌ट्ठी माँ के लिए ही लिखी है। अपने कक्का के लिए कुछ भी नहीं लिखा। कुछ भी हो, कम-से-कम चिट्ठी में तो कुछ लिख देता। आखिर बाप है। पर वह जानती है कि किशनू कितना जिद्दी है कितना गुस्सैल है। तभी तो भाग गया। फिर भी बाप के लिए एक अजीब-सी करुणा बसके मन में उभर आयी।

शंकर अभी तक नहीं लौटा। पता नहीं, कब लौटेगा। आज के दिन न पीता तो क्या हो जाता?

सामने मिट्टी के पक्के चबूतरे पर नजर गई। सीमेंट के गमले में सूखी मरियल-सी तुलसी की चार-पांच टहनियाँ इधर-उधर सिर झुकाये दिखायी दे रही थीं, आठ-दस पीले मुरझाये पत्ते हवा में लटक रहे थे, पत्तों पर धूल की परत जमी हुई थी। आनन्दी आजकल तुलसी पर दीया नहीं जलाती। जिस दिन किशनू भागा था, उस दिन से उसने कभी दीया नहीं जलाया। कौन-सी कामना बाकी रह गई थी, जिसके लिए वह दीया जलाती? पर इस समय मन हुआ कि एक दीया जलाकर रख दे। आनन्दी ने उठकर पहले तुलसी में पानी दिया, फिर दीया जलाकर रख दिया।

 प्रकाश का एक वृत रह-रहकर काँपने लगा। अनेक स्मृतियाँ कांपने लगीं--अनेक चित्र काँपने लगे।

...दस साल की आनन्दी जेवरों से लदी-फदी इस घर की पुत्र-वधू बनकर आई थी। उसकी सास ने उससे चबूतरे पर दीया जलवाया था और कहा था कि अपने सुहाग की मनौती मांग लेना, बहू, रोज इस पर दीया जलाना घर की यह तुलसी कलप-तरु है।

सुहाग का वह तब अर्थ भी नहीं जानती थी; फिर मी उसने अपने सुहाग की कुशल की कामना की थी, रोज दीया जलाने का संकल्प किया था।

बहू का नयापन दो ही दिन में उतर गया था और उसे पता लग गया था कि इस घर, इन जेवरों और गायों-भैसों के बीच जो कुछ है वह बहुत ही कष्टकर है। उसे पल-पल में रोना आने लगा। ...माँ, कक्का, दद्दा आदि याद आते, वह छिप-छिपकर बिसूरती। सास देख लेती तो ऐसी नोंचती कि माँस निकल आता। किसी काम में कसर रह जाती तो सास ऐसे लतियाती कि वह औंधे मुंह गिरकर तड़पड़ाने लगती। ...उसकी बोली बन्द हो गयी, बस, आँसू बहते रहते और आँसू बहाते-बहाते एक दिन उसे एक नया ज्ञान हुआ कि यह सास उसके जीवन की कर्णधार नहीं-- शंकर उसके जीवन का कर्णधार है। और तब वह उस दिन की राह में समय काटने लगी जब उसका असली कर्णधार उसका भार संभालेगा। वह दिन तो जल्दी ही आ गया; पर कर्णधार भार संभालने के बजाय भार बन गया--ऐसा भार, जिसे ढोने के लिए उसे अपने कन्धे बड़े कमजोर लगे।

शंकर घर का इकलौता लड़का था। पिता थे नहीं, माँ के पास बेटे के अवगुण देखने वाली आँखें नहीं थी। उसे सही रास्ते पर लगाने वाला कोई अंकुश नहीं था। उसे पीने की जो लत पड़ी तो घर का धन ही नहीं गया, आनन्दी की किस्मत और बच्चों का भविष्य भी चला गया। माँ के मरने के बाद शंकर बिल्कुल लल्ला ही हो गया। दो बच्चे बीमारी में तड़पकर मर गये। बच्चे चले गये, खेत-खलिहान चले गये, गाय-भैसें चली गयीं। रह गए शंकर और किशनू। किशनू को छाती से लगाए-लगाए वह काम करती । न हाथ रुकते, न आँसू शंकर या तो पीता या नशे में उत्पात मचाता। वह मार खाती, किशनू मार खाता।

चौदह साल का किशनू एक दिन तैश में आ गया और बाप पर झपट पड़ा: "कक्का! तुमने माँ को हाथ लगाया तो मैं तुम्हारा खून पी जाऊँगा। मैं सच कहता हूँ, तुम्हारा खून पी जाऊंगा!" और वह बाप से जूझ गया।

"मैं तेरे हाथ जोड़ती हैं, किशनू, तू हट जा। तुझे मेरे सिर की सौगन्ध है जो तू कक्का पर हाथ उठाये। तू हट जा, किशनू, हट जा।"

और किशनू हटा तो ऐसा हटा कि बारह साल तक मुंह नहीं दिखाया।

नन्दी शकर के पैरों पर गिर-गिरकर रोयी, लोटी "मेरे बेटे को ढुँढवा दो। मैं उसे लेकर कहीं चली जाऊँगी। उसके बिना मुझसे जिन्दा नहीं रहा जाएगा। मैं तुम्हें जिन्दगी भर पीने दूंगी, अपना हाड़ गला-गलाकर पीने को दूंगी। तुम मेरे किशनू को ढूंढ़ दो!"

पर न शंकर ने किशनू को ढूंढ़ा, न आनन्दी मरी। हां, हाड़ गला गलाकर वह पिलाती रही और शंकर पीता रहा।

 

X X X

 

"माँ, मेरा बटुआ रख लेना जरा," बटुआ थमाकर, धोती कन्धे पर डाल किशनू नहाने चला गया।

आनन्दी का मन हुआा था, कह दे; मेरे पास बटुआ मत रख किशनू नहीं तो... पर उससे कुछ भी नहीं कहा गया था।

किशनू घर से अभी निकला भी नहीं था कि शंकर सामने खड़ा था: "निकाल रुपये। तू सोचती है, सारी कमाई तू अकेली ही हड़प लेगी। बेटे का पैसा अकेले-अकेले न पचेगा, वह मेरा भी बेटा है, निकाल।"

काँपते हाथ से आनन्दी ने दो रुपये निकालकर दे दिए। अन्दर कितने रुपए हैं, उसने झांककर भी नहीं देखा। वह किशनू से कह देगी कि उसी ने रुपए निकाले हैं, उसे जरूरत थी। लेकिन शंकर को क्या कभी समझ नहीं आएगी? वह पीकर आएगा, वैसे ही बकेगा-झकेगा। क्या सोचेगा किशनू? अभी तक किशनू ने नहीं पूछा था कि कक्का अब भी पीते हैं या छोड़ दी।

क्या पूछे, पीने वालों की सूरत ही बता देती है! पर क्या आज ही वह सब नाटक फिर होना था? क्यों उसने रुपए दिए? उसे अपने पर ही क्रोध आने लगा। मना कर देती तो क्या कर लेता? अब उसे डर ही किस बात का है? उसका कमाऊ बेटा उसे लेने आ गया है। वह अपने को ही कोसने लगी--उसे रुपए नहीं देने थे। क्यों दे दिए उसने रुपए?

किशनू खा-पीकर गाँव में लोगों से मिलने निकला, तो बोला, "मां जरा बटुआा देना।" काँपते हाथ से आनन्दी ने बटुआ पकड़ा दिया। दो रुपए की बात गले में आकर अटक गई। बिना देखे ही बटुना जेब में रख, किशनू निकल गया। आनन्दी उसे देखती रही लम्बा-चौड़ा जवान! ...कल पड़ी-पड़ी यह सोच रही थी कि बेटे को अपनी दुःख-गाथा सुनाएगी...इतने दिनों का अपना बोझ हलका करेगी।

पर बेटे के सामने तो उसको जीभ ही जैसे तालू को सट गई। यह किशनू अब बारह साल पहले वाला किशनू नहीं रह गया था। वह सोच रही थी कि पहले की तरह ही वह उसकी गोद में सो जाएगा और वह एक-एक करके बताएगी कि उसने कितना कुछ सहा। लेकिन...।

"सत्यानास हो उस हरामी के पिल्ले का, जिसने ऐसी जानलेवा चीज बनाई।" नशे में धुत लडखडाता शंकर घुसा तो किशनू अवाक्-सा उसका मुंह ही देखता रह गया। उसकी आँखों में खून उतर आया। उसने आनन्दी की ओर देखा। आनन्दी की अपराधी नजरें झुक गई। "क्या-क्या लाड लड़ रहा है माँ से? ...अरे, अरे अपने बाप को भी तो कुछ दे! ...जो कुछ देना है इधर दे, इधर। मैं तेरा बाप हूँ, साले!" लड़खड़ाता हुआ शंकर भीतर चला गया।

"यह पैसा कहाँ से लाते हैं?"

आनन्दी चुप।

"मैं पूछता हूँ, यह पैसा कहाँ से लाते हैं?"

आनन्दी की आँखों से टप-टप आँसू बहने लगे।

"तू देती है? तू पीने को देती है? क्यों? क्यों देती है तू उसे पैसा? तू अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रही है, माँ?"

सिसकियां, दबी-दबी, घुटी-घुटी सिसकियाँ।

"मैं सोच रहा था कि पैसा नहीं रहा होगा तो कक्का रास्ते पर आ गया होगा। पर अभी भी वही हाल है। पिछले 12 सालों में यों ही तू इस निख‌ट्टू को पिला रही है न?"

"मुझे यहाँ से ले चल, किशनू... यहाँ से ले चल। मैं अब एक दिन भी इस घर में रहना नहीं चाहती। मैंने बहुत सहा है, अब और नहीं सहा जाता, मुझे यहां से ले चल आज ही।" आनन्दी फूट-फूटकर रोने लगी।

किशनू ने कमीज की बाहों से ही आँखें पोंछते हुए कहा--"आज ही तुझे ले चलूँगा माँ, आज ही। सोचा तो था कि कक्का को भी ले चलूँगा, पर अब नहीं। यह ले जाने लायक ही नहीं है।"

"कौन साला जाता है तेरे साथ? निकल जा तू मेरे घर से। दोनों निकल जाओ। कोई बेटा-बेटी नहीं है मेरा। कोई औरत-वोरत नहीं है मेरी। जाओ सब जाओ।" खटिया पर बैठा-बैठा शंकर अनाप-शनाप बक रहा था।

आनन्दी सारे दिन रोयी। इसने अपने फटे-पुराने कपड़ों की गठरी बाँध ली। रो-रोकर सबसे मिल आई। उसका बेटा उसे लेने आ गया। वह जा रही है, अब कभी इस घर में नहीं आएगी। पिछले चालीस साल उसने इसमें काटे हैं, इस घर को और घरवाले को अपना खून पिलाया है। रो-रोकर उसने कामना की है कि हे भगवान्, किसी तरह मेरा बेटा लौटा दे अपने बेटे को लेकर मैं कहीं चली जाऊँ।...

आज वह दिन आ गया। फिर भी आनन्दी रो ही रही है। शाम को शंकर आया तो नशे में धुत। कपड़े की बंधी गठरी को लात से एक ओर उछालता हुआ बोला--"मैं एक-एक का खून पी जाऊँगा।... देखें कौन माई का लाल ले जाता है मेरी जोरू को।" और उसने आनन्दी को बडी बेरहमी से पीटना शुरू कर दिया। एक भरपूर लात पेट में पड़ी तो आनन्दी को गश-सा आ गया। कराहकर इतना ही वह कह सकी--"बचा, बेटे किशनू, बचा।" 

किशनू के नथुने फड़क रहे थे और आँखों के डोरे सुर्ख हो उठे थे। एक धक्के में उसने शंकर को दूर पटक दिया और आनन्दी को खाट पर डालता हुआ बोला--"और दे पैसे! ...मेहनत-मजदूरी कर और पिला इस सांड को!"

किशनू आनन्दी पर ही बरसने लगा। दर्द से कराहती हुई आनन्दी कह रही थी--"मुझे यहां से ले चल किशनू।"

निकलने की बेला आई तो रुलाई का आवेग सँभल नहीं रहा था। आस-पास की सभी औरतें विदा करने आई थीं।

"ले जा भइया, अपनी माँ को, बड़े-बड़े दुःख सहे हैं बेचारी ने।"

"अरे किशनू, इस गाय को ले जा शंकर कसाई के घर से। कसाई भी अच्छा जो एक दिन ही मारकर छुट्टी कर देता है। इससे तो..।" चलने से पहले झिझकते-झिझकते आनन्दी ने कहा--"बेटा, दस रुपए हों तो दे, मानकी की माँ के चुकाने हैं।"

"हाँ-हाँ ले," दस का एक नोट किशनू ने माँ के हाथ में थमा दिया।

सबकी नजरें बचाकर आनन्दी उस नोट को ताम्बे की कटोरी में डाल आई। फिर घबराते दिल से आकर सबके बीच में मिल गई। रात के धुंधलके में आनन्दी किशनू के साथ इक्के पर बैठकर चली। धूल उड़ाता इक्का आगे बढ़ गया। घर पीछे छूट गया। पता नहीं, कहाँ बैठकर वह पी रहा होगा।

 

X X X

 

शहर में बना छोटा-सा, साफ-सुथरा, पक्का मकान। आनन्दी की छोटी से-छोटी आज्ञा को पूरी करने में सदा तत्पर बेटे-बहू। इससे बड़े सुख की कल्पना वह नहीं कर सकती थी।

दूकान से आते ही किशनू पास आकर पूछता--"क्या खबर है?"

"अच्छी हूँ, बेटा।"

"कुछ भी चाहिए तो माँग लेना। मन ऊबे तो पड़ोसियों के यहां चली जाया करो।"

किशनू खाता तो माँ को पास बिठा लेता। बहू गर्म-गर्म फुलकियाँ उतार कर देती जाती। घी महक़ता रहता। दो तरकारियां, दाल, चटनी ...और अनायास ही आनन्दी की आँखों में न जाने ऐसा क्या पड़ जाता कि पानी ही पानी बहने लगता? वह बार-बार आँखें पोंछती, पर एक चित्र था कि मिटता नहीं धुंधला नहीं होता, उभर-उभर कर आता रसोई के अंधेरे कोने में अधजली, अधपकी सूखी रोटियां, न घी न तरकारी, पानी के छूटे के सहारे जैसे-तैसे निगलता हुआ शंकर...

"देखो अम्मा, एक और रोटी नहीं लेते। एकदम करारी करके लाई हूँ। यह भी कोई खाना हुआ भला?" बहू ठुनक कर शिकायत करती।

करारी और गर्म रोटी का कितना शौक है शंकर को। ठण्डी रोटी देखकर वह आनन्दी को मार बैठता था।

"कितना तो खा लिया, तुम तो हद कर देती हो। देखो माँ, तुम्हारी इस बहू ने कितना मोटा कर दिया है मुझे।"

"कहाँ हो रहा है मोटा? जवानी में ऐसा शरीर नहीं रहेगा तो बुढ़ापे में क्या करेगा? सारा दिन काम करके आता है, खिलाएगी नहीं? कौन औरत होगी जो अपने सुहाग का खयाल न रखती होगी? अपने आदमी का..." बाकी बातें गले में ही अटक जातीं।

"आज यह क्या हो रहा है, माँ?"

"कुछ नहीं यों ही जरा सिलाई लेकर बैठ गई।" सिटपिटाते हुए आनन्दी ने कहा।

"तुम बहू से करवा लिया करो, तुम्हारी बहू सिलाई जानती है।"

"मेरी सिलाई नहीं है, बेटा, पड़ोसियों की ले आई हूँ। सारे दिन खाली बैठे-बैठे ऊब जाती हूँ न, इसी से।"

"ओ-हो! यह बात है? भले लोग हैं, चली जाया करो उधर।"

"दिन में चली जाती हूँ।"

आते-जाते किशनू पूछता ही रहता--माँ, कुछ चाहिए तो नहीं?

माँ, तुम कभी घूमने-फिरने भी चली जाया करो। ...माँ तुम्हारा मन तो लग जाता है न?

बहू दिन में दस चक्कर लगाती--अम्मा जी यह खा लीजिए।

"अम्मा, आज क्या तरकारी बनाऊँ? ...लाओ, अम्मा तुम्हारे सिर में तेल डाल दूँ।"

आजकल आनन्दी सारा दिन सिलाई करती है। पडोसियों के घर में शादी है, ढेर सारी सिलाई ले आई है। बहू सोचती, चलो अच्छा है, अम्मा का मन लगा रहता है। अम्मा ने बड़ी लगन से बहू से क्रोशिये की बेल बनाना सीखा। आनन्दी की लीची जैसी खिचमिची आँखें और महीन धागे का फन्दा--आँखों पर जोर पडता है, पर वह छोड़ती नहीं।

रात में देर तक आँखें गड़ाए हुए क्रोशिया चलाते देख एक दिन किशनू बोला--"माँ छोटी-मोटी सिलाई कर दिया करो। तुम तो बेगार ही लेकर बैठ गई पडोसियों की। अब क्या तुम्हारी आँखें ऐसी हैं जो यह सब काम करो?"

तो आनन्दी ने उठाकर रख दिया और बत्ती बुझाकर सो गई।

लेकिन आधी रात के करीब जब सब सो गए तो वह फिर उठी दरवाजा बन्द किया और बत्ती जलाकर बुनने बैठ गई। अंगुलियां उसकी जकड़ रही थीं, पर वह बुनती रही। धीरे-धीरे फन्दे में से फन्दा निकलता रहा। दूसरे दिन आनन्दी को मामूली-सी हरारत हो गई। आनन्दी बुखार में भी बराबर काम करने की आदी थी पर किशनू और बहू ने उसे सुला दिया। किशनू नाराज भी हुआ, "इस तरह सिलाई-बुनाई करने की क्या जरूरत थी भला? बैठे बिठाए बुखार बुला लिया।"

"मैं तो अच्छी हैं, तुम लोगों ने जबरदस्ती मुझे बीमार बना दिया।"

"अच्छा-अच्छा तुम बिस्तरे से मत उठो। देखो माँ को उठने मत देना। आऊंगा तो दवा लेता आऊँगा।"

देवी-देवता जैसे हैं उसके बेटे-बहू। कितना खयाल रखते हैं उसका। जाने कौन-सा पुण्य किया था उसने, जो उसका बुढ़ापा सुधर गया? एक ठण्डी साँस उसके कलेजे से निकल गई--संतोष की या विषाद की, वह स्वयं नहीं समझ पाई।

किशनू दवाई लेकर लौटा तो आनन्दी तकिए के सहारे बैठी अपनी जकडी हुई उंगलियों को देख रही थी। जब तक हाथ चलते रहे, कुछ पता नहीं लगा था, पर अब तो जरा-सा हिलाने में भी दर्द होता है। किशनू को देखते ही उसने हाथ चादर के नीचे ढँक लिए।

"क्या खबर है माँ, कैसा है बुखार?" और आनन्दी के पास बैठकर उसने उसका हाथ खींचकर बाहर निकाला।

आनन्दी दर्द को पी गई।

"बुखार तो इस समय नहीं लगता।" पत्नी को पुकारते हुए किशनू बोला--"अरे सुनती हो, जरा एक गिलास पानी लाना। अम्मा को दवाई बेनी है।" और फिर जेब से पुड़िया और शीशी निकालने लगा। तभी पड़ोसियों का दस साल का लडका हाथ में कागज का एक छोटा-सा टुकड़ा लिए हुए घुसा।

"नानी जी, अम्मा ने यह रसीद भेजी है और कहा है कि देख लीजिए, पूरे बीस रुपए भेज दिए हैं।" रटे हुए वाक्य की तरह वह बोला और कागज उसने आनन्दी की ओर बढ़ा दिया।

"रसीद? बीस रुपए?" आश्चर्य से किशन ने कहा और आनन्दी के उठे हुए हाथ को पीछे छोड़कर उसने लड़‌के के हाथ से रसीद ले ली। वह बीस रुपए के मनीआर्डर की रसीद ही थी। मनीआर्डर शंकर के पास भेजा गया था। किशनू ने आनन्दी की ओर देखा।

लडका लौट रहा था; पर जैसे उसे फिर कुछ याद आ गया हो, वह फिर मुड़ा--"अम्मा ने कहा है, आपका सारा हिसाब साफ हो गया है नानी जी।" और वह दौड़ गया।

आनन्दी की अपराधी नजरें एक क्षण को किशनू से मिलीं और फिर नीचे को झुक गई।

"ऐसा ही था तो तू मुझसे कह देती, माँ। रात-दिन जुतकर सिलाई-बुनाई करने की क्या जरूरत थी?" आनन्दी की आँखों से टप्-टप् आँसू बह रहे थे।

 -मन्नू भण्डारी

['यही सच है' से]

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