सांईं बेटा बाप के बिगरे भयो अकाज।
हरिनाकस्यप कंस को गयउ दुहुन को राज॥
गयउ दुहुन को राज बाप बेटा में बिगरी।
दुश्मन दावागीर हँसे महिमण्डल नगरी॥
कह गिरधर कविराय युगन याही चलि आई।
पिता पुत्र के बैर नफ़ा कहु कौने पाईं॥
सांईं बैर न कीजिये गुरु पण्डित कवि यार।
बेटा बनिता पौरिया यज्ञ करावन हार॥
यज्ञ करावन हार राजमन्त्री जो होई।
विप्र परोसी वैद्य आप को तपै रसोई॥
कह गिरधर कविराय युगन से यह चलि आई।
इन तेरह सों तरह दिये बनि आवे सांईं॥
सांईं ऐसे पुत्र ते बाँझ रहे बरु नारि।
बिगरी बेटे बाप से जाइ रहे ससुरारि॥
जाइ रहे ससुरारि नारि के हाथ बिकाने।
कुल के धर्म नसाय और परिवार नसाने॥
कह गिरधर कविराय मातु झंखे वहि ठाईं।
असि पुत्रिन नहिं होय बांझ रहतिउँ बस सांईं।
सांईं तहाँ न जाइए जहाँ न आपु सुहाय।
वरन विषै जाने नहीं, गदहा दाखै खाय॥
गदहा दाखै खाय गऊ पर दृष्टि लगावै।
सभा बैठि मुसक्याय यही सब नृप को भावै॥
कह गिरधर कविराय सुनो रे मेरे भाई।
तहाँ न करिये बास तुरत उठि अइये सांईं॥
-सांईं
विशेष: ये गिरिधर कविराय की स्त्री थीं। ये 1470 ई के लगभग की हैं, ऐसा लोगों का विश्वास है। गिरिधर जी के नाम से मशहूर कुण्डलियाँ दो हैं। एक वे जिनमें सांई शब्द है और दूसरी जिनमें साँई शब्द नहीं है। अनुमान है कि सांईं शब्दवाली कुण्डलियाँ कविराज गिरिधर की नहीं हैं बल्कि उनकी पत्नी सांईं की हैं। उन्हीं की कुछ कुण्डलियाँ यहाँ उद्धृत की गई हैं।