परमात्मा से प्रार्थना है कि हिंदी का मार्ग निष्कंटक करें। - हरगोविंद सिंह।

अनूठी गुरु शिक्षा (बाल-साहित्य )

Print this

रचनाकार: शिव कुमार गोयल

भगवान् श्रीकृष्ण को उज्जयिनी के सुविख्यात विद्वान् और धर्मशास्त्रों के प्रकांड पंडित ऋषि संदीपनीजी के पास विद्याध्ययन के लिए भेजा गया। ऋषि संदीपनी श्रीकृष्ण और दरिद्र परिवार में जन्मे सुदामा को एक साथ बिठाकर विभिन्न शास्त्रों की शिक्षा देते थे। श्रीकृष्ण गुरुदेव के यज्ञ-हवन के लिए स्वयं जंगल में जाकर लकड़ियाँ काटकर लाया करते थे। वे देखते कि गुरुदेव तथा गुरु पत्नी-- दोनों परम संतोषी हैं। श्रीकृष्ण रात के समय गुरुदेव के चरण दबाया करते और सवेरे उठते ही उनके चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया करते।

शिक्षा पूरी होने के बाद श्रीकृष्ण ब्रज लौटने लगे, तो ऋषि के चरणों में बैठते हुए हाथ जोड़कर बोले, 'गुरुदेव, मैं दक्षिणा के रूप में आपको कुछ भेंट करना चाहता हूँ। '

ऋषि संदीपनी ने मुसकराकर सिर पर हाथ रखते हुए कहा, 'वत्स कृष्ण, ज्ञान कुछ बदले में लेने के लिए नहीं दिया जाता। सच्चा गुरु वही है, जो शिष्य को शिक्षा के साथ संस्कार देता है । मैं दक्षिणा के रूप में यही चाहता हूँ कि तुम औरों को भी संस्कारित करते रहो।' ऋषि जान गए कि मैं तो मात्र गुरु हूँ, यह बालक आगे चलकर 'जगद्गुरु कृष्ण' के रूप में ख्याति पाएगा। उन्होंने कहा, 'वत्स, मैं यही कामना करता हूँ कि तुम जब धर्मरक्षार्थ किसी का मार्गदर्शन करो, तो उसके बदले में कुछ स्वीकार न करना।'

श्रीकृष्ण उनका आदेश स्वीकार कर लौट आए। आगे चलकर उन्होंने अर्जुन को न केवल ज्ञान दिया, अपितु उनके सारथी भी बने।

-शिव कुमार गोयल
[201 प्रेरक नीति कथाएँ]

Back

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें