जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

कलश का उत्तर (कथा-कहानी)

Print this

Author: भारत-दर्शन संकलन

पानी से भरा कलश सजा हुआ था। उस पर चित्रकारी भी की गई थी। कलश पर एक कटोरी रखी थी, जिससे उसे ढक कर रखा गया था। कटोरी ने कलश से कहा-"भाई कलश। तुम बड़े उदार हो। तुम सदा दूसरों को देते ही रहते हो। कोई भी खाली बरतन आए, तुम उससे अपना जल उड़ेल देते हो। किसी को खाली नहीं जाने देते।"

कलश ने कहा-"हाँ, यह तो मेरा कर्तव्य है। मैं अपने पास आने वाले हर पात्र को भर देता हूँ। मेरे अंतस् का सब कुछ दूसरों के लिए है।"

कटोरी बोली-"लेकिन आप कभी मुझे नहीं भरते। मैं तो हमेशा आपके सिर पर मौजूद रहती हूँ।"

घट बोला-"इसमें मेरा क्या दोष। तुम्हारे अभिमानी स्वभाव का है। तुम मान-अभिमान की चाहे के साथ सदा मेरे सिर पर चढ़ी रहती हो, जबकि अन्य पात्र मेरे समक्ष आकर झुक जाते हैं। अपनी पात्रता प्रमाणित करते हैं। तुम भी अभिमान छोड़ो, विनम्र बनो, मैं तुम्हें भी भर दूँगा।"

वस्तुतः पूर्णत्व नम्रता एवं पात्रता के विकास से ही प्राप्त होता है। कोई भी अनुदान बिना सौजन्य के नहीं मिलता। अभिमान ही सबसे बड़ी बाधा है।

[भारत-दर्शन संकलन]

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश