यह इनका गणतंत्र-दिवस है 
तुम दूर से उन्हें देख कहोगे
गिनती सीखने की उम्रवाले बच्चे चार-पाँच 
पकड़े हुए एक-एक हाथ में एक-एक नहीं, कई-कई 
नन्हें काग़ज़ी राष्ट्रीय झंडे तिरंगे 
लेकिन थोड़ा क़रीब होते ही 
तुम्हारा भरम मिट जाता है 
पचीस जनवरी की सर्द शाम शुरू-रात 
जब एक शीतलहर ठेल रही है 
सड़कों से लोगों को असमय ही घरों की ओर 
वे बेच रहे हैं ये झंडे 
घरमुँही दीठ के आगे लहराते 
झंडे, स्कूल जानेवाले उनके समवयसी बच्चे जिन्हें पकड़ेंगे 
गणतंत्र-दिवस की सुबह 
स्कूली समारोह में 
पूरी धज में जाते हुए
उनके क़रीब 
उनके खेद-खाए उल्लास के क़रीब 
और छुटकों में जो बड़का है 
बतलाता है तुतले शब्दों, भेद-भरे स्वर में 
साठ रुपए सैकड़ा ले 
बेचते एक-एक रुपय में
—हिसाब के पक्के!
गिनती सीखने की उम्र वाले बच्चे 
गणतंत्र-दिवस-समारोह के शामियाने के बाहर खड़े 
जड़ाती रात की उछीड़ सड़क पर 
झंडों का झुँड उठाए, दीठ के आगे लहराते : 
झंडा उँचा रहे हमारा!
-ज्ञानेंद्रपति
[संशयात्मा से]
