अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।

लेख की माँग (काव्य)

Print this

Author: ईश्वरीप्रसाद शर्मा

सम्पादकजी! नमोनमस्ते, पत्र आपका प्राप्त हुआ।
पढ़कर शोक समेत हर्षका भाव हृदय में व्याप्त हुआ॥
फूल गया यह पात देखकर, लेखक मुझे समझते आप।
किन्तु लेख लिख देना होगा, सोच यही होता सन्ताप॥
लेखक क्या हूँ, अनुवादक हूँ, गुपचुप लेख चुराता हूँ।
अदल-बदलकर इधर-उधरसे, अपने नाम छपाता हूँ॥
किन्तु आप से बहुभाषाविद लोगों से में डरता हूँ।
लेख आपके लिये लिखूँ क्या? सोच-सोचकर मरता हूँ॥
यही नहीं केवल है, कारण इसका और दिखाता हूँ।
लेख नहीं क्यों अब लिखता हूँ, वह सब सत्य बताता हूँ॥
बिना टके का लेख माँगते, आप नहीं शर्माते हैं।
लेखों के बदले में हम कुछ लेते हुए लजाते हैं॥
इससे तो है कहीं भला यह, असहयोग कर लें हम आप।
पत्र न भेजें आप मुझे फिर, देवें नहीं मुझे सन्ताप॥
नहीं चाहिये पत्र आपका, मुझे माफ कर दें चुपचाप।
राजी रहूँ इधर मैं भी औ'' खुश रहिये अपने घर आप॥

-पं॰ ईश्वरीप्रसाद शर्मा

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश