मैं नहीं समझता, सात समुन्दर पार की अंग्रेजी का इतना अधिकार यहाँ कैसे हो गया। - महात्मा गांधी।

कपटी मित्र  (बाल-साहित्य )

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Author: सीताराम | बाल कहानी

मगध देश में चम्पकवती नाम का एक वन हैं,  वहाँ बहुत दिनों से एक हिरन और एक कौवा बड़े स्नेह से रहते थे। एक दिन हिरन इधर-उधर टहल रहा था। उसे एक सियार ने देखा। सियार ने विचारा, “अरे, इसके सुन्दर मांस को कैसे खायें ? अच्छा चलो, पहले मेल करके विश्वास तो करावें।”  ऐसा सोच उसके पास जाकर बोला, “मित्र अच्छे हो?  हिरन ने पूछा, “तुम कौन हो?  सियार बोल, मैं क्षुद्र-बद्धि नाम का सियार हूँ। इस वन में बिना किसी मित्र के अकेला मरे की नाईं रहता हूँ। अब तुमको मित्र पाके फिर से मेरा जन्म होगा। अब तो में सदा तुम्हारे साथ रहूँगा।” मृग ने कहा, “बहुत अच्छा।“

जब सूर्यनारायण अस्त हो गए, तो दोनों हिरन के कुंज में गए। वहाँ चम्पा की डार पर हिरन का पुराना मित्र सुबुद्धि नाम का काऊवा बैठा हुआ था। इन दोनों को देख, उसने पूछा, “यह कौन है?” हिरन ने कहा, “यह एक सियार है, हम लोगों से मिताई करने आया है।” कौवे ने कहा, “भाई, अकस्मात्‌ आनेवाले के साथ मिताई नहीं की जाती। यह काम तुमने अच्छा नहीं किया।” इतना सुनते ही सियार लाल-लाल आँखें करके बोला, “जब तुम्हारी हिरन की पहली भेंट हुई थी, तब तुम भी ऐसे ही थे। तुम्हारे साथ केसे आज तक प्रीति दिन-दिन बढ़ती जाती है? जैसे हिरन हमारा मित्र है, वैसे ही तुम भी।“  हिरन ने कहा, “इस बकवाद से क्‍या मिलेगा? आओ सब कोई इकट्ठे चैन से बातचीत करें।“  कौवा बोला, “अच्छा।” सबेरे सब इधर-उधर चले गए।

एक दिन सियार ने हिरन से चुपके से कहा, “भाई, इसी वन की एक ओर अनाज से भरापूरा एक खेत है, चलो तुम्हें दिखा दें।” मृग ने जो खेत देख लिया, तो नित वहीं जाकर अनाज चरा करता। एक दिन किसान ने हिरन को देख लिया और जाल फैला दिया। हिरन जो आया, वो जाल में फँस गया और सोचने लगा,  “इस काल की फाँसी ऐसे जाल से सिवाय मित्र के और कौन छुड़ा सकता है?” इतने ही में सियार भी वहाँ आ पहुंचा और हिरन को देख, सोचने लगा, “मेरा छल सफल हो गया। अब मनोरथ भी परा होगा;  क्योंकि जब यह काटा जाएगा, तो इसकी बोटियाँ हमें खाने को मिलेंगी। हिरन उसे देख खुशी से फूल गया और बोला, “भाई, मेरे बंधन काट दो। मुझे छुड़ाओ। अब देर न करो।”

सियार ने जाल को बार-बार देखकर विचारा कि हिरन तो कठिन बन्धन में बांध गया है। वह बोला, “भाई, जाल ताँत का बना है। इसमें इतवार के दिन दाँत कैसे लगाऊँ? तुम अपने मन में और कुछ मत समझना, सवेरे जो कहोगे, वही करूँगा।” जब साँझ हो गई और हिरन न आया, तो कौवा भी उसे ढूँढता हुआ वहीं आ पहुँचा और हिरन को उस दशा में देख के बोला, “भाई, यह क्या हुआ? हिरन ने कहा,  “भाई, हित की बात न मानने का फल। कौवे ने कहा,  “वह सियार कहाँ है? हिरन बोला, मेरे मांस के लालच में यहीं-कहीं होगा। कौवे ने कहा, मैंने तो  तुमसे पहले ही कहा था।” तब कोकौवा लम्बी साँस लेके बोला, “अरे दगाबाज़ पापी, तूने यह क्या किया?” सबेरे किसान को लाठी लेकर उसी ठाँव आते देख, कौवे ने कहा, “भाई हिरन, तुम अपना पेट फुला और हाथ पेर ढीले कर, मरे जैसे बन जाओ। जब में चिल्लाऊँ, तो तुम तुरन्त उठके भाग जाना।” कौबे की बात पर हिरन वैसा ही बन गया। किसान हिरन को मरा जान हँस के बोला, “अरे, यह तो आप ही मर गया।”  इतना कह वह हिरन को खोल जाल बटोरने लगा। जब किसान कुछ दूर चला गया, तो कौवा चिल्लाया और हिरन झटपट उठके भाग गया। किसान ने लाठी चलाई, वह सियार के लगी और वह मर गया।

-सीताराम
[साहित्य संग्रह]

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