हिंदी का पौधा दक्षिणवालों ने त्याग से सींचा है। - शंकरराव कप्पीकेरी
भावुक (कथा-कहानी)  Click to print this content  
Author:रेखा वशिष्ठ मल्होत्रा

पन्द्रहवाँ पार करके सोलहवें में प्रवेश कर गयी थी वह। परन्तु, अब भी उसकी पलकों में आँसू बाहर ढलकने को सदैव तैयार बैठे रहते। वह छोटी-छोटी बातों पर टसुए बहाते हुए माँ की गोद में मुँह छुपा लेती।

उसको रोते देखकर उसके दोनों भाई उसे खूब चिढ़ाते और तालियाँ पीटकर खिलखिलाने लगते। भाई जुड़वां थे व उससे दो वर्ष छोटे थे। वे दोनों कभी नहीं रोते थे। पिता भी उसको माँ के पल्लू में मुँह छिपाकर रोते देख मुस्कुरा दिया करते थे।

माँ अक्सर कहती, "इतनी भावुकता लेकर कैसे निभेगी इसकी? अगर किसी दिन मैं न रही तो इसका क्या होगा?" वह सोचती, "छी! माँ भी कैसी बात कहती है। भला माँ क्यों नहीं रहेगी? कहाँ चली जायेगी!"

एक रात माँ को दिल का दौरा पड़ा और वह सचमुच हमेशा के लिए छोड़कर चली गयी। घर में कोहराम मच गया। अंतिम संस्कार के अगले दिन फिर से सभी रिश्तेदार इकठ्ठे हुए। सबको चिन्ता थी कि छोटे-छोटे बच्चों के साथ अब घर कैसे संभलेगा। पिता को आने-जाने वालों ने घेर रखा था। दोनों भाई आँखों में आँसू लिए कोने में दुबके बैठे थे।

सब बैठे चिंता जता रहे थे, लेकिन उठकर काम कोई नहीं कर रहा था। तभी सबकी नजर उसपर पड़ी, वह हाथों में चाय की ट्रे लिए खड़ी थी। उसकी आँखों में एक भी आँसू नहीं था, वह सूनी आँखें लिए सबको ताक रही थी...

-रेखा वशिष्ठ मल्होत्रा
 ई-मेल : rekha.malhotra0811@gmail.com

Previous Page
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें