राजस्थान के बूंदी राज्य में हाड़ा-राजपूतों का शासन था। सन् 1750 ई० में महाराज उमेद्र सिह यहाँ राज्य करते थे। छोटी आयु में ही पिता की मृत्यु हो जाने से इन्हें राजगद्दी मिल गयी। आपको शिकार खेलने का बड़ा शौक था। प्रायः ही, 10-15 मुसाहबों और शिकारियों को साथ लेकर पहाड़ों और जंगलों में शिकार के लिए चले जाते।
माघ का महीना था। एक दिन महाराज अपने सरदारों और शिकारियों के दल के साथ पास के पहाड़ों में शिकार के लिए गए। शाम होते-होते एक बड़े चीतल को देखा तो राजा ने अपना घोड़ा उसके पीछे छोड़ दिया। दौड़ते-दौड़ते जंगल में रास्ता भूलकर बहुत दूर निकल गये। सभी साथी पीछे छूट गए।
रात हो गई और भयंकर तूफान के साथ ओले और वर्षा शुरू हो गई। रास्तों में चारों तरफ पानी जमा हो गया। ऊपर से बर्फीली हवा साँय-सायं करके चल रही थी।
ऐसी भयंकर सर्दी में महाराज ठिठुर कर बेहोश हो गए, किन्तु घोड़ा बहुत ही समझदार था। वह उन्हें अपनी पीठ पर लादे घूमता हुआ एक झोपड़ी के द्वार पर आया और हिनहिनाने लगा। जब कुछ देर तक किवाड़ नहीं खुले तो घोड़े ने दरवाजे पर पैरों की टाप लगाई। हाथ में दीपक लिए एक वृद्ध बाहर आया और कुछ क्षणों में सारी परिस्थिति समझकर बेहोश युवक को पीठ पर लादकर भीतर ले गया। कीमती कपड़े और गहने देखकर वह यह तो समझ गया कि यह अवश्य ही कोई बड़े घर का युवक है, परन्तु उसने स्वप्न में भी यह न सोचा कि स्वयं महाराज उसके अतिथि बने हैं।
झोंपड़ी में उसकी किशोरी पुत्री रूपमती के सिवाय और कोई न था। पिता-पुत्री दोनों ने मिलकर युवक के भीगे वस्त्र उतारे और उसे आग के पास लिटा दिया। चम्मच से मुँह खोलकर गरम दूध पिलाने लगे। बहुत प्रयत्न करने पर भी युवक की बेहोशी दूर नहीं हुई। शरीर ठंडा ही बना रहा। डर लगा कि कहीं वह मर न जाय। एक क्षण को वृद्ध विचलित-सा हुआ किन्तु वह अनुभवी था, वैद्यक का ज्ञाता भी। उसने पुत्री को सकुचाते हुए कहा- "बेटी, इसके शरीर में गरमी लाने का अब एक ही उपाय है। तुम इसकी शय्याचारिणी बनो, इसके शरीर को अपने शरीर की गर्मी पहुँचाओ। बेटी को लज्जित देखकर वृद्ध ने दृढ़ स्वरों में कहा- "घर आए अतिथि के प्राण बचाना हमारा कर्तव्य है। इससे बड़ा पुण्य पृथ्वी पर नहीं है। तुम संकोच त्यागकर धर्म का पालन करो अन्यथा नरहत्या का पाप हम दोनों के मत्थे चढ़ेगा।"
उच्च आचार-विचार वाली कुमारी कन्या के लिए, जिसने पिता के सिवाय किसी पर-पुरुष को छुआ तक नहीं था, उसके लिए पिता की यह आज्ञा बहुत ही कठोर थी। गहरे मानसिक द्वन्द्व के उपरान्त वह पिता के आदेश को मानते हुए मेहमान को भीतर ले गयी ।
बहुत देर बाद युवक के शरीर में गरमी आयी। उसने अपने आपको एक किशोरी की नग्न बाहों में पाया तो विचलित हो उठा। जब सुबह हुई तो कुमारी रूपमती स्त्री बन चुकी थी।
महाराज ने अपने वृद्ध मेजबान के कुल, जाति आदि की जानकारी ली तो ज्ञात हुआ कि वह भी राजपूत सरदार है, अपनी स्त्री के किसी सामाजिक अपराध से दुःखी होकर एकमात्र कन्या के साथ लोगों की दृष्टि से दूर 14 वर्षों से इस निर्जन गाँव में रहने लगा है। परन्तु अब उसे अपनी जवान पुत्री के विवाह की चिन्ता है।
दूसरे दिन सुबह महाराज के साथी उन्हें खोजते हुए इसी झोंपड़ी के पास आए, बाहर बड़े अश्व ने हिनहिनाकर स्वामी के अन्दर होने का संकेत दिया। महाराज को सुरक्षित पाकर सबको बड़ी प्रसन्नता हुई।
राजा ने वृद्ध को बहुत-सा धन उपहार में देना चाहा, परन्तु बाप-बेटी दोनों ने नम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया। कहने लगे कि हमने जो कुछ किया, वह सब कर्तव्य के वश किया है, न कि धन के लोभ में।
विदा होते समय महाराज ने वृद्ध के समक्ष उसकी पुत्री को अपनी रानी बनाने का प्रस्ताव रखा। एक बार तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ, परन्तु जब हीरे-जड़ी अँगूठी पहना दी गयी तो उसकी आँखों में हर्ष के आँसू आ गए।
तीन-चार महीने बीत गए। इसबीच बेटी के कहने से पिता दोबारा बूंदी गए। महाराज से भेंट हुई, कन्या के विवाह की उन्हें याद दिलाई तो यह क्रोधित हो उठे। कहा- "आदमी को अपनी हैसियत देखकर संबंध की बात करनी चाहिए। तुम लोग चाहो तो सौ-दो सौ रुपये महीने का वसीका राज्य से मिल सकता है। फिर कभी मत आना, नहीं तो अपमानित होकर जाना पड़ेगा।"
आखिर, एक दिन रूपमती ने संकोच त्यागकर अपने पिता को सारी बात कह दी और बता दिया कि उसे महाराज का गर्भ है। यह सुनकर वृद्ध को ऐसा सद्मा पहुँचा कि वह थोड़े दिनों में मर गया।
समय पाकर रूपमती ने एक बहुत ही सुन्दर बालक को जन्म दिया। सेवा-सुश्रूषा के लिए देहाती स्त्रियाँ थीं जो इस पितृहीन युवती को प्यार करती थीं।
पूछने पर रूपा बराबर यही कहती कि उसका पति एक बहुत बड़ा राजा है और जल्द ही उसे राजधानी ले जायेगा।
एक दिन उसने सुना कि महाराज आमेर की राजकुमारी से विवाह करके बारात लिए लौट रहे हैं। यद्यपि रूपमती ने राजधानी न जाने की एक प्रकार से सौगन्ध खा ली थी, पर उस दिन मन को कड़ा करके, बच्चे को जुलूस दिखाने नगर की ओर चल दी।
सारे शहर में अपूर्व सजावट हुई थी। चारों तरफ तोरण-बन्दनवार बंधे थे। शहनाइयाँ बर रही थी, पटाखे छूट रहे थे, पुर-नारियाँ मधुर गीत गा रही थीं।
रूपवती ने देखा गाजे-बाजे सहित महाराज की सवारी आ रही है। सोने के हौदे सजे हाथी पर महाराज और उनके पीछे रथ में नव-विवाहिता महारानी। लोग गर्व से एक दूसरे से कह रहे थे कि महाराज कितने प्रतापी हैं, तभी तो आमेर की राजकुमारी से सम्बन्ध हुआ है, आदि।
लोगों के धक्कों से किसी प्रकार बचती हुई रूपवती अपने शिशु को लिए राजा के सामने जा पहुंची। महाराज ने उन्हें क्षण भर के लिए देखा और मुँह फेर लिया।
थोड़ी देर बाद भीड़ में शोर मचा, कुछ हलचल हुई। लोगों ने देखा कि अतीव सुन्दर नवयौवना अपने नवजात शिशु के साथ जमीन पर कुचली पड़ी थी। चारों तरफ ताजे लहू की धार बह रही थी। उनमें से कुछ लोग कह रहे थे--"हमने इसे, दौड़कर हाथी के पैरों के नीचे जाते देखा था।"
लोगों को रास्ते से अलग हटा दिया गया। बाजे और नगाड़े फिर जोरों से बजने लगे। आखिर किसी पगली के पीछे इतने बड़े उत्सव में व्यवधान क्यों आये?
छज्जों से महाराज के हाथी पर पुष्पों की वर्षा हो रही थी। 'महाराज की जय हो', 'अन्नदाता घणी खम्मा' की आवाजों से आकाश गूंज रहा था।
-रामेश्वर टांटिया
[रामेश्वर टांटिया समग्र, हिन्दी प्रचारक संस्थान, वाराणसी]