हिंदुस्तान की भाषा हिंदी है और उसका दृश्यरूप या उसकी लिपि सर्वगुणकारी नागरी ही है। - गोपाललाल खत्री।

धर्मवीर भारती | Dhramvir Bharti

धर्मवीर भारती  का जन्म 25 दिसंबर, 1926 को अतारसुइया, इलाहबाद में हुआ था।

हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध हस्ताक्षर धर्मवीर भारती आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार और सामाजिक विचारक थे।  आप हिंदी की प्रमुख साप्ताहिक पत्रिका 'धर्मयुग' के प्रधान संपादक थे।

धर्मयुग का संपादन डॉ धर्मवीर भारती की मुख्य पहचान बना लेकिन इससे पूर्व उनकी रचनाएँ - गुनाहों का देवता, ठंडा लोहा, कनुप्रिया और सूरज का सातवाँ घोड़ा इत्यादि हिन्दी साहित्य में अपनी पहचान बना चुकी थीं।

आपने उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध, कविता विधाओ में साहित्य सृजन किया है।

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एक वाक्य

चेक बुक हो पीली या लाल,
दाम सिक्के हों या शोहरत --
कह दो उनसे
जो ख़रीदने आये हों तुम्हें
हर भूखा आदमी बिकाऊ नहीं होता है!

-धर्मवीर भारती
[सात गीत वर्ष]

 

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उपलब्धि

मैं क्या जिया ?

मुझको जीवन ने जिया -
बूँद-बूँद कर पिया, मुझको
पीकर पथ पर ख़ाली प्याले-सा छोड़ दिया

मैं क्या जला?
मुझको अग्नि ने छला -
मैं कब पूरा गला, मुझको
थोड़ी-सी आँच दिखा दुर्बल मोमबत्ती-सा मोड़ दिया

देखो मुझे
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उत्तर नहीं हूँ

उत्तर नहीं हूँ
मैं प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!

नये-नये शब्दों में तुमने
जो पूछा है बार-बार
पर जिस पर सब के सब केवल निरुत्तर हैं
प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!

तुमने गढ़ा है मुझे
किन्तु प्रतिमा की तरह स्थापित नहीं किया
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अविष्ट

दुख आया
घुट-घुट कर
मन-मन मैं खीज गया

सुख आया
लुट-लुट कर मैं छीज गया

क्या केवल पूंजी के बल
मैंने जीवन को ललकारा था

वह मैं नहीं था, शायद वह
कोई और था
उसने तो प्यार किया, रीत गया, टूट गया
पीछे मैं छूट गया

-धर्मवीर भारती
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क्योंकि सपना है अभी भी

...क्योंकि सपना है अभी भी
इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी

...क्योंकि सपना है अभी भी!
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गुल की बन्नो

‘‘ऐ मर कलमुँहे !' अकस्मात् घेघा बुआ ने कूड़ा फेंकने के लिए दरवाजा खोला और चौतरे पर बैठे मिरवा को गाते हुए देखकर कहा, ‘‘तोरे पेट में फोनोगिराफ उलियान बा का, जौन भिनसार भवा कि तान तोड़ै लाग ? राम जानै, रात के कैसन एकरा दीदा लागत है !'' मारे डर के कि कहीं घेघा बुआ सारा कूड़ा उसी के सर पर न फेक दें, मिरवा थोड़ा खिसक गया और ज्यों ही घेघा बुआ अन्दर गयीं कि फिर चौतरे की सीढ़ी पर बैठ, पैर झुलाते हुए उसने उल्टा-सुल्टा गाना शुरू कर किया, ‘‘तुमें बछ याद कलते अम छनम तेरी कछम !''

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उत्तर नहीं हूँ

उत्तर नहीं हूँ
मैं प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!

नये-नये शब्दों में तुमने
जो पूछा है बार-बार
पर जिस पर सब के सब केवल निरुत्तर हैं
प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!

तुमने गढ़ा है मुझे
किन्तु प्रतिमा की तरह स्थापित नहीं किया
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पूजा गीत

जिस दिन अपनी हर आस्था तिनके-सी टूटे
जिस दिन अपने अन्तरतम के विश्वास सभी निकले झूठे !
उस दिन
होंगे वे कौन चरण
जिनमें इस लक्ष्यभ्रष्ट मन को मिल पायेगी
अन्त में शरण ?

हम पर जब छाये भ्रम दोहरा
जर्जर तन पर कल्मष, हारे मन पर कोहरा
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