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दादू दयाल | Dadu Dayal | Profile & Collections
संत कवि दादू दयाल का जन्म फागुन संवत् 1601 (सन् 1544 ई.) को हुआ था। संत दादू दयाल, जिन्हें राजस्थान के कबीर के नाम से जाना जाता है, भक्ति आंदोलन के एक महान संत थे। दादू के जन्म स्थान के बारे में विद्वान एकमत नहीं है। दादू पंथी लोगों का विचार है कि वह एक छोटे से बालक के रूप में (अहमदाबाद के निकट) साबरमती नदी में बहते हुए पाये गये। दादू दयाल का जन्म अहमदाबाद में हुआ था या नहीं, इसकी प्रामाणिक जानकारी नहीं हैं, फिर भी इतना निश्चित है कि उनके जीवन का बड़ा भाग राजस्थान में बीता।
जाति से धुनिया, दादू कबीर के पुत्र कमाल की शिष्य-परंपरा में आते हैं। उनके गुरु बुड्डन बाबा माने जाते हैं, लेकिन दादू ने अपनी बानियों में कहीं भी अपने गुरु का उल्लेख नहीं किया है।
जन्म कथादादू की जन्म कथा कबीर की जन्म कथा के समान प्रचलित है। कहा जाता है कि लोदीराम नामक एक नागर ब्राह्मण को साबरमती नदी के किनारे एक नवजात बालक बहता हुआ मिला। उन्होंने उस बालक को अपने घर ले जाकर पालन-पोषण किया। यही बालक आगे चलकर दादू के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 12 वर्ष की उम्र में दादू सत्संग के लिए घर से निकल गए, लेकिन माता-पिता ने उन्हें पकड़कर उनका विवाह करा दिया। सात वर्षों बाद उन्होंने गृहस्थ जीवन छोड़ दिया और सांभर आ गए। वहाँ उन्होंने 12 वर्षों तक सहजयोग की कठिन साधना की और भक्ति रस में लीन रहते हुए ऊँची आध्यात्मिक अवस्था प्राप्त की।
भक्ति और उपदेशसांभर में दादू ने जनसाधारण को उपदेश देना प्रारंभ किया। उनके उपदेशों का स्थान ‘अलख-दरीबा’ के नाम से जाना गया। उन्होंने निर्गुण ब्रह्म की उपासना और ज्ञान मार्ग के अनुसरण का संदेश दिया। मूर्तिपूजा, भेदभाव और आडंबरों का विरोध करते हुए उन्होंने समाज में प्रेम, दया और समानता का संदेश फैलाया। उनके अनुयायी उन्हें प्रेम से ‘दयाल’ कहकर पुकारने लगे।
अकबर से भेंटसन् 1642 ई. में दादू दयाल की फतेहपुर सीकरी में अकबर से भेंट हुई। अकबर ने उनसे ख़ुदा के अस्तित्व, जाति, अंग और रंग के बारे में पूछा। इस पर दादू ने उत्तर दिया:
“इसक अलाह की जाति है, इसक अलाह का अंग। इसके अलाह औजूद है, इसक अलाह का रंग॥”
प्रमुख शिष्य और दादूपंथदादू दयाल के सैकड़ों शिष्य थे, जिनमें से 152 प्रमुख और 52 अंतरंग शिष्य माने जाते हैं। उनके शिष्यों में गरीबदास, मिस्कीनदास, बखना मिरासी, रज्जब, सुंदरदास, संतदास, जगन्नाथ, माधोदास और बालिंद प्रमुख थे। उनके शिष्य राघौदास के ‘भक्तमाल’ में उनके बावन शिष्यों का वर्णन है।
दादू ने ‘दादूपंथ’ की स्थापना की, जिसकी मुख्य पीठ वर्तमान में नरायणा (जयपुर) में स्थित है। दादूपंथियों का सत्संग ‘अलख-दरीबा’ के नाम से जाना जाता है। दादूपंथ कालांतर में पाँच भागों में विभाजित हो गया:
खालसा: नरायणा में रहने वाले गरीबदास की परंपरा के साधु।
विरक्त: गृहस्थों को उपदेश देने वाले घुमक्कड़ साधु।
उत्तरादे या स्थानधारी: राजस्थान छोड़कर उत्तरी भारत (हरियाणा और पंजाब) में बसने वाले साधु।
खाकी: भस्म लगाने वाले और खाकी वस्त्र पहनने वाले साधु।
नागा: नग्न रहने वाले और शस्त्र धारण करने वाले साधु।
दादू की रचनाएँ और दर्शनदादू दयाल की रचनाएँ गहन दार्शनिक और काव्यात्मक समन्वय का उदाहरण हैं। उनकी वाणियों में ‘कायाबेलि’ जैसे ग्रंथ शामिल हैं, जिसमें वेदांत, उपनिषद और सांख्य दर्शन का सार मिलता है। उनके शिष्य संतदास और जगन्नाथदास ने उनकी वाणी का संपादन ‘हरड़े बानी’ के नाम से किया। बाद में रज्जब ने इसे ‘अंगवधू’ के रूप में संपादित किया।
भाषा और शैलीदादू की भाषा जनपदीय थी, जिसमें विभिन्न क्षेत्रों की शब्दावली और फारसी के शब्द भी शामिल थे। उनकी रचनाओं में प्रेम और विरह का सुंदर निरूपण मिलता है। उनके शब्द और साखियाँ आत्मानुभव और भक्ति के रस में डूबी हुई हैं।
समाधि और विरासतदादू दयाल ने ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी वि.सं. 1660 (सन् 1603) को नरायणा में भैराना पहाड़ी की गुफा में समाधि ली। यह स्थान दादूपंथियों की मुख्य गद्दी है। उनकी वाणी ने कई संत कवियों को प्रेरित किया, जिन्होंने भक्ति और प्रेम का संदेश आगे बढ़ाया।
दादू दयाल को कबीर के समान निर्गुण संत कवियों में गिना जाता है। उनका जीवन और शिक्षाएँ आज भी भक्ति और समाज सुधार का प्रेरणास्रोत हैं।
दादू दयाल | Dadu Dayal's Collection
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