जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ

Saheed Ashfaq

 

प्रारंभिक जीवन तथा परिवार

अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ (Ashfaq Ulla Khan) का जन्म 22 अक्टूबर, 1900 को उत्तर प्रदेश में शाहजहाँपुर ज़िले में हुआ था। इनके पिता का नाम मोहम्मद शफ़ीक़ उल्ला ख़ाँ था और इनकी माता मजहूरुन्निशाँ बेगम थीं। इनकी माता बहुत सुन्दर थीं और ख़ूबसूरत स्त्रियों में गिनी जाती थीं। इनका परिवार काफ़ी समृद्ध था। परिवार के सभी लोग सरकारी नौकरी में थे। अशफ़ाक़ को विदेशी दासता विद्यार्थी जीवन से ही खलती थी। वे देश के लिए कुछ करने को बेताव रहते थे। बंगाल के क्रांतिकारियों का उनके जीवन पर बहुत प्रभाव था।


बाल्यावस्था

अपनी बाल्यावस्था में अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ का मन पढ़ने-लिखने में नहीं लगता था। खनौत में तैरने, घोड़े की सवारी करने और भाई की बन्दूक लेकर शिकार करने में इन्हें बड़ा आनन्द आता था। ये बड़े सुडौल, सुन्दर और स्वस्थ जवान थे। सभी से प्रेम करते थे। बचपन से ही उनमें देश के प्रति अपार अनुराग था। देश की भलाई के लिये किये जाने वाले आन्दोलनों की कथाएँ वे बड़ी रुचि से पड़ते थे।


कविता और शायरी

अशफ़ाक़ कविता बहुत शौक़ था। उन्होंने बहुत अच्छी-अच्छी कवितायें लिखी हैं, जो स्वदेशानुराग से सराबोर थीं। कविता में वे अपना उपनाम 'हसरत' लिखते थे। उन्होंने कभी भी अपनी कविताओं को प्रकाशित कराने की चेष्टा नहीं की। उनका कहना था कि "हमें नाम पैदा करना तो है नहीं। अगर नाम पैदा करना होता तो क्रान्तिकारी काम छोड़ लीडरी न करता?" उनकी लिखी हुई कविताएँ अदालत आते-जाते समय अक्सर 'काकोरी कांड' के क्रांतिकारी गाया करते थे।

अपनी भावनाओं का इजहार करते हुए अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ने लिखा था कि-

जमीं दुश्मन, जमां दुश्मन, जो अपने थे पराये हैं
सुनोगे दास्ताँ क्या तुम मेरे हाले परेशाँ की


रामप्रसाद बिस्मिल से मित्रता

देश में चल रहे आन्दोलनों और क्रांतिकारी गतिविधियों से अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ प्रभावित होने लगे थे। धीरे-धीरे उनमें क्रान्तिकारी भाव पैदा होने लगे। उनको बड़ी उत्सुकता हुई कि किसी ऐसे आदमी से भेंट हो जाये, जो क्रान्तिकारी दल का सदस्य हो। उस समय 'मैनपुरी षड़यन्त्र' का मामला चल रहा था। अशफ़ाक़ शाहजहाँपुर में ही स्कूल में शिक्षा पा रहे थे। 'मैनपुरी षड़यन्त्र' में शाहजहाँपुर के ही रहने वाले एक नवयुवक के नाम भी वारण्ट निकला था। वह नवयुवक और कोई नहीं, 'रामप्रसाद बिस्मिल' थे। यह जानकर अशफ़ाक़ को बड़ी प्रसन्नता हुई कि उनके शहर में ही एक आदमी है, जैसा कि वे चाहते थे। किन्तु मामले से बचने के लिये रामप्रसाद बिस्मिल फ़रार थे। जब शाही ऐलान द्वारा सब राजनीतिक कैदी छोड़ दिये गये, तब रामप्रसाद बिस्मिल भी शाहजहाँपुर आ गये। जब अशफ़ाक़ को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने बिस्मिल से मिलने की कोशिश की। उनसे मिलकर षड्यंत्र के सम्बन्ध में बातचीत करनी चाही। पहले तो रामप्रसाद बिस्मिल ने टालमटोल की लेकिन बाद में अशफ़ाक़ के व्यवहार से वह इतने प्रसन्न हुए कि उनको अपना घनिष्ट मित्र बना लिया। इस प्रकार अशफ़ाक़ का क्रान्तिकारी जीवन आरम्भ हुआ। क्रान्तिकारी जीवन में पदार्पण करने के बाद से अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ सदा प्रयत्न करते रहे कि उनकी भांति और भी थे मुस्लिम नवयुवक क्रान्तिकारी दल के सदस्य बनें। हिन्दू-मुस्लिम एकता के वे बहुत बड़े समर्थक थे।


काकोरी काण्ड

महात्मा गांधी का प्रभाव अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ के जीवन पर प्रारम्भ से ही था, लेकिन जब 'चौरी चौरा घटना' के बाद गांधीजी ने 'असहयोग आंदोलन' वापस ले लिया तो उनके मन को अत्यंत पीड़ा पहुँची। रामप्रसाद बिस्मिल और चन्द्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में 8 अगस्त, 1925 को शाहजहाँपुर में क्रांतिकारियों की एक अहम बैठक हुई, जिसमें हथियारों के लिए ट्रेन में ले जाए जाने वाले सरकारी ख़ज़ाने को लूटने की योजना बनाई गई। क्रांतिकारी जिस धन को लूटना चाहते थे, दरअसल वह धन अंग्रेज़ों ने भारतीयों से ही हड़पा था। 9 अगस्त, 1925 को अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ, रामप्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आज़ाद, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह, सचिन्द्र बख्शी, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल, मुकुन्द लाल और मन्मथलाल गुप्त ने अपनी योजना को अंजाम देते हुए लखनऊ के नजदीक 'काकोरी' में ट्रेन द्वारा ले जाए जा रहे सरकारी ख़ज़ाने को लूट लिया। 'भारतीय इतिहास' में यह घटना "काकोरी कांड" के नाम से जानी जाती है। इस घटना को आज़ादी के इन मतवालों ने अपने नाम बदलकर अंजाम दिया था। अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ने अपना नाम 'कुमारजी' रखा। इस घटना के बाद ब्रिटिश हुकूमत पागल हो उठी और उसने बहुत से निर्दोषों को पकड़कर जेलों में ठूँस दिया। अपनों की दगाबाजी से इस घटना में शामिल एक-एक कर सभी क्रांतिकारी पकड़े गए, लेकिन चन्द्रशेखर आज़ाद और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ पुलिस के हाथ नहीं आए।


गिरफ्तारी

इस घटना के बाद अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ शाहजहाँपुर छोड़कर बनारस आ गए और वहाँ दस महीने तक एक इंजीनियरिंग कंपनी में काम किया। इसके बाद उन्होंने इंजीनियरिंग के लिए विदेश जाने की योजना बनाई ताकि वहाँ से कमाए गए पैसों से अपने क्रांतिकारी साथियों की मदद करते रहें। विदेश जाने के लिए वह दिल्ली में अपने एक पठान मित्र के संपर्क में आए, लेकिन उनका वह दोस्त विश्वासघाती निकला। उसने इनाम के लालच में अंग्रेज़ पुलिस को सूचना दे दी और इस तरह अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ पकड़ लिए गए।


सरकारी गवाह बनाने की कोशिश

जेल में अशफ़ाक़ को कई तरह की यातनाएँ दी गईं। जब उन पर इन यातनाओं का कोई असर नहीं हुआ तो अंग्रेज़ों ने तरह-तरह की चालें चलकर उन्हें सरकारी गवाह बनाने की कोशिश की, लेकिन अंग्रेज़ अपने इरादों में किसी भी तरह कामयाब नहीं हो पाए। अंग्रेज अधिकारियों ने उनसे यह तक कहा कि हिन्दुस्तान आज़ाद हो भी गया तो भी उस पर मुस्लिमों का नहीं हिन्दुओं का राज होगा और मुस्लिमों को कुछ नहीं मिलेगा। इसके जवाब में अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ने अंग्रेज़ अफ़सर से कहा कि- "फूट डालकर शासन करने की चाल का उन पर कोई असर नहीं होगा और हिन्दुस्तान आज़ाद होकर रहेगा"। उन्होंने अंग्रेज़ अधिकारी से कहा- "तुम लोग हिन्दू-मुस्लिमों में फूट डालकर आज़ादी की लड़ाई को अब बिलकुल नहीं दबा सकते। अपने दोस्तों के ख़िलाफ़ मैं सरकारी गवाह कभी नहीं बनूँगा।"


शहादत

19 दिसम्बर, 1927 को अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ को फैजाबाद जेल में फांसी दे दी गई। इस तरह भारत का यह महान सपूत देश के लिए अपना बलिदान दे गया। उनकी इस शहादत ने देश की आज़ादी की लड़ाई में हिन्दू-मुस्लिम एकता को और भी अधिक मजबूत कर दिया। आज भी उनका दिया गया बलिदान देशवासियों को एकता के सूत्र में पिरोने का काम करता है।

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सुनाएँ ग़म की किसे कहानी

Shaheed Ashfaq Ki Kalam Se

सुनाएँ ग़म की किसे कहानी हमें तो अपने सता रहे हैं।
हमेशा सुबहो-शाम दिल पर सितम के खंजर चला रहे हैं।।

न कोई इंग्लिश न कोई जर्मन न कोई रशियन न कोई टर्की।
मिटाने वाले हैं अपने हिन्दी जो आज हमको मिटा रहे हैं।।

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कस ली है कमर अब तो

कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएँगे
आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे।

हटने के नहीं पीछे, डर कर कभी जुल्मों से
तुम हाथ उठाओगे, हम पैर बढ़ा देंगे।

बेशस्त्र नहीं है हम, बल है हमें चरखे का
चरखे से जमीं को हम, ता चर्ख गुँजा देंगे।

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