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सुशांत सुप्रिय | Profile & Collections
सुशांत सुप्रिय ( Sushant Supriya )
कवि व कथाकार
जन्म: 28 मार्च , 1968 ( पटना )
शिक्षा: अमृतसर ( पंजाब ) व दिल्ली में ।
प्रकाशित कृतियाँ: हत्यारे, हे राम ( कथा-संग्रह )
एक बूँद यह भी ( काव्य-संग्रह )
सम्मान: भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा रचनाएँ पुरस्कृत ।
कमलेश्वर - कथाबिंब कथा प्रतियोगिता ( मुंबई ) में लगातार दो वर्ष प्रथम पुरस्कार ।
अन्य उपलब्धियाँ: कई कहानियाँ व कविताएँ अंग्रेज़ी, उर्दू, पंजाबी, उड़िया, असमिया, मराठी, कन्नड़ व मलयालम आदि भाषाओं में अनूदित व प्रकाशित ।
कहानियाँ कुछ राज्यों के कक्षा सात व नौ के हिंदी पाठ्यक्रम में शामिल ।
कविताएँ पुणे वि.वि. के बी.ए. ( द्वितीय वर्ष ) के पाठ्य-क्रम में शामिल ।
कहानियों पर आगरा विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय व गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर के हिंदी विभागों में शोधकर्ताओं द्वारा शोध-कार्य ।
अंग्रेज़ी व पंजाबी में भी लेखन व प्रकाशन ।
संप्रति: संसदीय सचिवालय , नई दिल्ली में अधिकारी ।
सम्पर्क: मो - 8512070086
ई-मेल: sushant1968@gmail.com
सुशांत सुप्रिय's Collection
Total Records: 12
वे
रेलगाड़ी के इस डिब्बे में वे चार हैं, जबकि मैं अकेला । वे हट्टे-कट्टे हैं , जबकि मैं कमज़ोर-सा । वे लम्बे-तगड़े हैं, जबकि मैं औसत क़द-काठी का । जल्दबाज़ी में शायद मैं ग़लत डिब्बे में चढ़ गया हूँ । मुझे इस समय यहाँ इन लोगों के बीच नहीं होना चाहिए -- मेरे भीतर कहीं कोई मुझे चेतावनी दे रहा है ।
बदबू
रेल-यात्राओं का भी अपना ही मज़ा है । एक ही डिब्बे में पूरे भारत की सैर हो जाती है । 'आमार सोनार बांग्ला' वाले बाबू मोशाय से लेकर 'बल्ले-बल्ले' वाले सरदारजी तक, 'वणक्कम्' वाले तमिल भाई से लेकर 'केम छो ' वाले गुजराती सेठ तक -- सभी से रेलगाड़ी के उसी डिब्बे में मुलाक़ात हो जाती है । यहाँ तरह-तरह के लोग मिल जाते हैं । विचित्र क़िस्म के अनुभव हो जाते हैं ।
इंडियन काफ़्का
मैं हूँ, कमरा है, दीवारें हैं, छत है, सीलन है, घुटन है, सन्नाटा है और मेरा अंतहीन अकेलापन है। हाँ, अकेलापन, जो अकसर मुझे कटहे कुत्ते-सा काटने को दौड़ता है । पर जो मेरे अस्तित्व को स्वीकार तो करता है । जो अब मेरा एकमात्र शत्रु-मित्र है । खुद में बंद मैं खुली खिड़की के पास जा खड़ा होता हूँ । अपनी अस्थिरता का अकेला साक्षी । बाहर एड्स के रोगी-सी मुरझाई शाम मरने-मरने को हो आई है । हवा चुप है । सामने पार्क में खड़े ऐंठे पेड़ चुप हैं । वहीं बेंच पर बैठे रोज़ बहस करने वाले दो सठियाए ख़बीस बूढे चुप हैं । बेंच के नीचे पड़ा प्रतिदिन अपनी ही दुम से झगड़ने वाला आवारा कुत्ता चुप है । एक मरघटी उदासी आसमान से चू-चू कर चुपचाप सड़क की छाती पर बिछती जा रही है । और सड़क चुप्पी की केंचुली उतार फेंकने के लिए कसमसा रही है ।
एक चोरी अजीब-सी
यह कहानी सुनने के लिए आपको अपना काम छोड़ कर मेरे साथ रात के नौ बजे नुक्कड़ के ढाबे के भीतरी केबिन में चलना होगा जहाँ इलाक़े के चार-पाँच चोर और पॉकेटमार जमा हैं। जी हाँ, आपने सही पहचाना। मैं भी एक चोर हूँ। एक-दो दिन पहले हमारे इलाक़े के दादा ने कहीं तगड़ा हाथ मारा। उसी की ख़ुशी में आज रात दादा ने हम सब को खिलाने-पिलाने का वादा किया है। दादा चोर ज़रूर है लेकिन है दरियादिल आदमी।
गनेशी की कथा - सुशांत सुप्रिय की कहानी
कहानी की शुरुआत कैसे की जानी चाहिए ? मैं इस कहानी की शुरुआत 'वंस अपान अ टाइम, देयर लिव्ड अ पर्सन नेम्ड गनेशी' वाले अंदाज़ में कर सकता हूँ । या मैं कहानी की शुरुआत तिरछे अक्षरों ( इटैलिक्स ) में लिखे कुछ धमाकेदार वाक्यों से कर सकता हूँ । मसलन --
लौटना - सुशांत सुप्रिय की कहानी
समुद्र का रंग आकाश जैसा था । वह पानी में तैर रही थी । छप्-छप्, छप्-छप् । उसे तैरना कब आया ? उसने तो तैरना कभी नहीं सीखा । फिर यह क्या जादू था ? लहरें उसे गोद में उठाए हुए थीं । एक लहर उसे दूसरी लहर की गोद में सौंप रही थी । दूसरी लहर उसे तीसरी लहर के हवाले कर रही थी । सामने, पीछे, दाएँ, बाएँ दूर तक फैला समुद्र था । समुद्र-ही समुद्र। एक अंतहीन नीला विस्तार । "सिस्टर , रोगी का ब्लड-प्रेशर चेक करो ।" पास ही कहीं से आता हुआ एक भारी स्वर । "डाक्टर, पेशेंट का ब्लड-प्रेशर बहुत 'लो' है ।" "सिस्टर, नब्ज़ जाँचो ।" "नब्ज़ बेहद धीमी चल रही है, सर ।" लहरें नेहा को समुद्र की अतल गहराइयों में लिए जा रही हैं । वह लहरों पर सवार हो कर नीचे जाती जा रही है । नीचे, और नीचे । वहाँ जहाँ कोई गोताखोर पहले कभी नहीं जा पाया । कमाल की बात यह है कि उसके पास कोई अॉक्सीजन -सिलिंडर नहीं है । नीचे समुद्र का तल सूरज-सा चमक रहा है । उसे अपने पास बुला रहा है । उसे आग़ोश में लेना चाह रहा है । आह ! समुद्र का जल कितना साफ़ है । कितना स्वच्छ है । कितना पारदर्शी । नर्सें और डॉक्टर आपस में बातें कर रहे हैं । "सिस्टर , क्या पेशेंट यूरिन पास कर रही है ?" एक भारी स्वर पूछ रहा है । "नहीं , डॉक्टर ।" दूसरा मुलायम स्वर जवाब दे रहा है ।
बौड़म दास
बौड़म दास को मैं क़रीब से जानता था । हमारा गाँव चैनपुर भैरवी नदी के किनारे बसा हुआ है । उसके दूसरे किनारे पर बसा है धरहरवा गाँव । साल के बाक़ी समय में यह नदी रिबन जैसी पतली धारा-सी बहती है । पर बरसात का मौसम आते ही यह नदी विकराल रूप धारण कर लेती है । बाढ़ के मौसम में इसका दूसरा किनारा भी नज़र नहीं आता । बरसात का मौसम छोड़ दें तो गाँव के लोग इसी नदी के किनारे नहाते हैं । यहीं किनारे के पत्थरों पर कपड़े धुलते हैं । थोड़ी दूरी पर मवेशी और ढोर-डंगर प्यास बुझाने आते हैं । यहीं गाँव के बच्चे चपटे पत्थरों से नदी के पानी में 'छिछली' खेलते हुए बड़े होते हैं ।
कुतिया के अंडे
उन दिनों एक मिशन के तहत हम दोनों को शहर के बाहर एक बंगले में रखा गया था - मुझे और मेरे सहयोगी अजय को। दोपहर में सुनीता नाम की बाई आती थी और वह दोपहर और शाम - दोनों समय का खाना एक ही बार में बना जाती थी। उसे और झाड़ू-पोंछे वाली बाई रमा को ख़ुद करकरे साहब ने यहाँ काम पर रखा था। हम लोग केवल करकरे साहब को जानते थे। उन्होंने ही हमें इस मिशन को पूरा करने का काम सौंपा था।