जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

सूर्यबाला | Suryabala

समकालीन व्यंग्य एवं कथा-साहित्य में अपनी विशिष्ट भूमिका और महत्व रखने वाली डा. सूर्यबाला का जन्म 25 अक्टूबर, 1943 को वाराणसी (उ.प्र.) में हुआ। 

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सूर्यबाला के दस कथा-संग्रह और तीन व्यंग्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

अजगर करे न चाकरी, धृतराष्ट्र टाइम्स, देश-सेवा के अखाड़े में (व्यंग्य-संग्रह) मेरे संधि-पत्र, सुबह के इंतज़ार तक, अग्निपंखी, यामिनी कथा, दीक्षांत (उपन्यास) एक इंद्रधनुष, दिशाहीन, थाली भर चांद, मुंडेर पर, गृहप्रवेश, सांझवाती, कात्यायनी संवाद, इक्कीस कहानियां, पांच लंबी कहानियां, सिस्टर ! प्लीज आप जाना नहीं, मानुस गंध (कथा-संग्रह)।

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अगली सदी का शोधपत्र

एक समय की बात है, हिन्दुस्तान में एक भाषा हुआ करे थी। उसका नाम था हिंदी। हिन्दुस्तान के लोग उस भाषा को दिलोजान से प्यार करते थे। बहुत सँभालकर रखते थे। कभी भूलकर भी उसका इस्तेमाल बोलचाल या लिखने-पढ़ने में नहीं करते थे। सिर्फ कुछ विशेष अवसरों पर ही वह लिखी-पढ़ी या बोली जाती थी। यहाँ तक कि साल में एक दिन, हफ्ता या पखवारा तय कर दिया जाता था। अपनी-अपनी फुरसत के हिसाब से और सबको खबर कर दी जाती थी कि इस दिन इतने बजकर इतने मिनट पर हिंदी पढ़ी-बोली और सुनी-समझी (?) जाएगी। निश्चित दिन, निश्चित समय पर बड़े सम्मान से हिंदी झाड़-पोंछकर तहखाने से निकाली जाती थी और सबको बोलकर सुनाई जाती थी।

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