झील, समुंदर, दरिया, झरने उसके हैं मेरे तश्नालब पर पहरे उसके हैं हमने दिन भी अँधियारे में काट लिये
ताज़े-ताज़े ख़्वाब सजाये रखता है यानी इक उम्मीद जगाये रखता है उसको छूने में अँगुलि जल जाती हैं
मैं अपनी ज़िन्दगी से रूबरू यूँ पेश आता हूँ ग़मों से गुफ़्तगू करता हूँ लेकिन मुस्कुराता हूँ ग़ज़ल कहने की कोशिश में कभी ऐसा भी होता है
भरोसा इस क़दर मैंने तुम्हारे प्यार पर रक्खा शरारों पर चला बेख़ौफ़, सर तलवार पर रक्खा यक़ीनन मैं तुम्हारे घर की पुख़्ता नींव हो जाता
पुराने ख़्वाब के फिर से नये साँचे बदलती है सियासत रोज़ अपने खेल में पाले बदलती है हम ऐसे मोड़ पर आ कर अचानक टूट जाते हैं
कृष्ण सुकुमार की ग़ज़लें