अद्भुत है, अनमोल है, महानगर की भोर रोज़ जगाता है हमें, कान फोड़ता शोर अद्भुत है, अनमोल है, महानगर की शाम
बाबुल अब ना होएगी, बहन भाई में जंग डोर तोड़ अनजान पथ, उड़कर चली पतंग बाबुल हमसे हो गई, आख़िर कैसी भूल
मौन ओढ़े हैं सभी तैयारियाँ होंगी ज़रूर राख के नीचे दबी चिंगारियाँ होंगी ज़रूर आज भी आदम की बेटी हंटरों की ज़द में है
राजगोपाल सिंह की ग़ज़लें भी उनके गीतों व दोहों की तरह सराही गई हैं। यहाँ उनकी कुछ ग़ज़लें संकलित की जा रही हैं। गज़ल
इन चिराग़ों के उजालों पे न जाना, पीपल ये भी अब सीख गए आग लगाना, पीपल जाने क्यूँ कहता है ये सारा ज़माना, पीपल
मैं रहूँ या न रहूँ, मेरा पता रह जाएगा शाख़ पर यदि एक भी पत्ता हरा रह जाएगा बो रहा हूँ बीज कुछ सम्वेदनाओं के यहाँ
अजनबी नज़रों से अपने आप को देखा न कर आइनों का दोष क्या है? आइने तोड़ा न कर यह भी मुमकिन है ये बौनों का नगर हो इसलिए
मौज-मस्ती के पल भी आएंगे पेड़ होंगे तो फल भी आएंगे आज की रात मुझको जी ले तू
काग़ज़ी कुछ कश्तियाँ नदियों में तैराते रहे जब तलक़ ज़िन्दा रहे बचपन को दुलराते रहे रात कैसे-कैसे ख्याल आते रहे, जाते रहे
जितने पूजाघर हैं सबको तोड़िये आदमी को आदमी से जोड़िये एक क़तरा भी नहीं है ख़ून का
उनका मक़सद था आवाज़ को दबाना अग्नि को बुझाना
लूटकर ले जाएंगे सब देखते रह जाओगे पत्थरों की वन्दना करने से तुम क्या पाओगे मांगने से पहले कुछ भी, सोच लो, फिर मांगना
बग़ैर बात कोई किसका दुख बँटाता है वो जानता है मुझे इसलिए रुलाता है है उसकी उम्र बहुत कम इसलिए शायद
आजकल हम लोग बच्चों की तरह लड़ने लगे चाबियों वाले खिलौनों की तरह लड़ने लगे ठूँठ की तरह अकारण ज़िंदगी जीते रहे
तू इतना कमज़ोर न हो तेरे मन में चोर न हो जग तुझको पत्थर समझे
ऐसे कुछ और सवालों को उछाला जाये किस तरह शूल को शूलों से निकाला जाये फिर चिराग़ों को सलीक़े से जलाना होगा
धरती मैया जैसी माँ सच पुरवैया जैसी माँ
हंसों के वंशज हैं लेकिन कव्वों की कर रहे ग़ुलामी यूँ अनमोल लम्हों की प्रतिदिन
सीते! मम् श्वास-सरित सीते रीता जीवन कैसे बीते हमसे कैसा ये अनर्थ हुआ
ज़िंदगी इक ट्रेन है और ये संसार भागते हुए चित्रों की