बदन पे जिसके शराफत का पैरहन देखा वो आदमी भी यहाँ हमने बदचलन देखा खरीदने को जिसे कम थी दौलते दुनिया
जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए । नई ज्योति के धर नये पंख झिलमिल,
अब तो मजहब कोई, ऐसा भी चलाया जाए जिसमें इनसान को, इनसान बनाया जाए आग बहती है यहाँ, गंगा में, झेलम में भी
जितना कम सामान रहेगा उतना सफ़र आसान रहेगा जितनी भारी गठरी होगी
तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो, मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊँगा! सूनी है मांग निशा की चंदा उगा नहीं
दिए से मिटेगा न मन का अँधेरा, धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ ! बहुत बार आई-गई यह दिवाली
(1) कवियों की और चोर की गति है एक समान दिल की चोरी कवि करे लूटे चोर मकान
मुझे न करना याद, तुम्हारा आँगन गीला हो जायेगा! रोज रात को नींद चुरा ले जायेगी पपिहों की टोली, रोज प्रात को पीर जगाने आयेगी कोयल की बोली,
खिड़की बन्द कर दो अब सही जाती नहीं यह निर्दयी बरसात-खिड़की बन्द कर दो। यह खड़ी बौछार, यह ठंडी हवाओं के झकोरे,
अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई आप मत पूछिए क्या हम पे सफ़र में गुजरी
आँसू जब सम्मानित होंगे मुझको याद किया जाएगा जहाँ प्रेम का चर्चा होगा मेरा नाम लिया जाएगा। मान-पत्र मैं नहीं लिख सका
जन्म मरण समय की गति के हैं दो चरण
कोई नहीं पराया, मेरा घर संसार है। मैं ना बँधा हूँ देश-काल की जंग लगी जंजीर में, मैं ना खड़ा हूँ जाति-पाति की ऊँची-नीची भीड़ में,