चल मन! हरि चटसाल पढ़ाऊँ।। गुरु की साटी ग्यान का अच्छर, बिसरै तौ सहज समाधि लगाऊँ।।
ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै । गरीब निवाजु गुसाईआ मेरा माथै छत्रु धरै ॥ जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै ।
अब कैसे छूटे राम रट लागी। प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अँग-अँग बास समानी॥ प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा॥
जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात। रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।। रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं।
हरि सा हीरा छाड़ि कै, करै आन की आस । ते नर जमपुर जाहिँगे, सत भाषै रैदास ।। १ ।। अंतरगति रार्चैँ नहीं, बाहर कथैं उदास ।