मैंने लिखा कुछ भी नहीं तुम ने पढ़ा कुछ भी नहीं । जो भी लिखा दिल से लिखा
सामने गुलशन नज़र आया गीत भँवरे ने मधुर गाया । फूल के संग मिले काँटे भी
प्राण का पंछी सवेरे क्यों चहकता है शबनम बूँद से नया बिरवा लहकता है हड्डियों के पसीने से इसे सींचा है
हड्डियों में बस गई है पीर। पाँव में काँटा लगा जैसे जो बढ़ते क़दम को रोके
हिन्दी हिन्दी कर रहे 'या-या' करते यार। अंगरेजी में बोलते जहां विदेशी चार॥ मुख पोथी ही नहीं है दर्पण है साकार।
डॉ सुधेश दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से हिन्दी के प्रोफ़ेसर पद से सेवानिवृत्त हैं। आप हिंदी में विभिन्न विधाओ में सृजन करते हैं। यहाँ आपकी ?...