अकबर से लेकर औरंगजेब तक मुगलों ने जिस देशभाषा का स्वागत किया वह ब्रजभाषा थी, न कि उर्दू। -रामचंद्र शुक्ल
 
व्यंग्य
हिंदी व्यंग्य. Hindi Satire.

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हाउ डेयर यू? - दिलीप कुमार

उस्ताद किस्सागो जनाब कृश्न चन्दर साहब की कालजयी रचना “एक गधे की आत्मकथा” में एक इंसान जैसा सोचने वाला गधा कई दिनों तक एक गधी के साथ घास चरने का शगल करता रहा था। जब गधे को हद इम्कान इस बात की तस्दीक हो गई कि गधी भी मुझमें रुचि रखती है और यह गधी तो जीवन संगिनी बनाई जा सकती है। गधे को वह गधी देसी गधियों से इतर लगी तो उसने गधी से इजहारे दिल किया कि “तुम मेरी शरीके हयात बनोगी।" 
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हैदराबादी कुर्सी - डॉ सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त

अरे भाई, अपने शहर हैदराबाद की बात ही निराली है। यहाँ की गली-गली में जो बयार बहती है, वो क्या कहें! अब देखिए, दिल्ली में कभी कोई तैमूर, तो कभी चंगेज खाँ आए, वहाँ से लेकर यहां तक बड़े-बड़े लोग आए, लूट कर चले गए। सोने-चाँदी, हीरे-जवाहरात सब उठा ले गए, लेकिन हमारे हैदराबाद का वो 'सिंहासन', मतलब यहाँ के कल्चर का कोई जवाब नहीं मिला उनको। वो सिंहासन जो कि रिवायत और इज़्ज़त का हिस्सा था, वो यहाँ की हवा में ही रचा-बसा है।
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लगाने का लाभ - सी भास्कर राव

एक लाभ होता है लगाने का। जैसे तेल लगाना, मक्खन लगाना, चूना लगाना आदि। इसका पहला और प्रत्यक्ष लाभ तो यह है कि इस लगाने में कोई खर्च नहीं है। बस सिर्फ लगा भर देने से काम चल जाता है। पानी लगाने के लिए वास्तव में आपको न तेल चाहिए, न मक्खन और न चुना। यदि सचमुच लगाने के लिए इन वस्तुओं का इस्तेमाल करना हो तो लगाने वालों की संख्या आधी भी नहीं रह जाती। चूंकि मुफ्त में यह सब लग जाता है, इसलिए लोग मजे से दूसरों को लगा देते हैं। इसलिए यह सब लगाने वालों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, जो तनिक सिद्धांतवादी हैं, वे भी कभी-न-कभी, किसी-न-किसी को, कुछ-न-कुछ लगाने के लिए मजबूर हो ही जाते हैं। दरअसल, बिना कुछ लगाए आज के जमाने में काम ही नहीं चलता है। जब तक लगाने में हिचक होती है, दिक्कत सिर्फ तभी तक है। एक बार संकोच से बाहर आकर किसी को अपनी जरूरत के हिसाब से, इन वस्तुओं में से कुछ लगा दें तो फिर लगाते जाने का सिलसिला अपने-आप चालू हो जाता है। 
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