खाली घर

रचनाकार: रामदरश मिश्र

लगभग साल भर बाद घर जा रहा हूँ। एक अज्ञात भय की कंपकंपी मेरे मन को छू-छू जाती है...कैसा दिखेगा घर? कैसे दिखेंगे कमरे?

शाम होने को है। मैं गाँव के पास पहुँच गया हूँ। गांव के पश्चिम की यह कच्ची सड़क है। मुझे बहुत प्यारी है यह। बचपन में इस सड़क की ठण्डी धूल में पैर धंसाकर हम खेलते थे और इस कोने वाले आम के पेड़ के नीचे खड़े हम बाहर गए हुए अपने पिता जी का इन्तजार करते थे, तीर्थ नहाकर लौटने वाली माता की राह अगोरते थे, ये मिठाइयाँ लाते थे हमारे लिए। जब इस सड़क पर आता हूँ तो बचपन की कच्ची धूल सारे तन से लिपट जाती है। जी होता है, एक बार सड़क पर लोटूँ। मगर इस बार ऐसा नहीं लग रहा है। लगता है, हमारे पद चिह्नों को रौंदते हुए हजारों पाँव गुजर गये हों।

'बीनू।' धीरे से पुकारा मैंने। हाँ, बीनू ही तो है। उसी आम के पेड़ के नीचे खड़ा होकर पश्चिम की ओर देख रहा है।

'बीनू!' मैंने पास आकर उसके कन्धे पर धीरे से हाथ रख दिया। उसने मेरी ओर एक बार शून्य आँखों से देखा, मानो पहचानने की कोशिश कर रहा हो। मैं बाहें फैलाये खड़ा था, वह स्तब्ध देखता रहा, फिर एकाएक मेरी बाहों में आ टूटा, 'चाचा!' मैंने उसे छाती में भींच लिया।

'चाचा, तुम उधर से (उसने उंगली उठाकर पश्चिम दिशा की ओर संकेत किया) आ रहे हो?'

'हाँ बेटे, उधर से ही आ रहा हूँ।'

'तो तुमने मेरी अम्माँ को नहीं आते देखा!'

'नहीं बेटा मैंने तो नहीं देखा।' मेरी आँखें भर आयीं।

'अम्माँ क्यों नहीं आती चाचा? मैं तो रोज-रोज उसकी राह अगोरता हूँ... बाबूजी कहते हैं कि अम्माँ गंगा नहाने गयी है। तुमने तो नहीं देखा चाचा? बहुत से लोग उसे कन्धे पर उठाकर गंगाजी पहुँचाने गये थे। बाबूजी उसे गंगाजी पहुँचाकर लौट आये थे, कहते थे, अम्माँ बाद में आयेंगी। कब आयेंगी चाचा? मैं तो कितने दिन से यहाँ आ-आकर उसे बुलाता हूं...।'

मेरे भीतर एक हूक सी उठ रही थी। लगता था, जैसे अब जोर से रो पड़ूँगा... 

बिनोद मेरे छलछलाते आँसुओं को नहीं देख पा रहा था, 'अम्माँ के बिना अच्छा नहीं लगता चाचा। कुछ भी अच्छा नहीं  लगता... अम्माँ कितना नहा रही है चाचा? उसे मेरा मोह नही लगता अब...? चाचा, चम्पा कहती है कि अम्मा मर गयी, अब कभी नहीं आयेगी। वह गंगाजी में डूबकर भगवान के यहाँ चली गयी। मरना क्या होता है चाचा? बाबू जी इतने बड़े होकर झूठ बोलेगे! चम्पा तो बड़ी झूठी है, झूठ बोलती है न चाचा?'

'हाँ बेटा!' और मैं फफक कर रो पड़ा।

'तुम भी रोते हो चाचा! जब अम्माँ गंगाजी नहाने जा रही थी, तो सभी रो रहे थे। बाबूजी रो रहे थे, गाँव के लोग रो रहे थे और तुम भी रोते हो! गंगाजी नहाने जाना कोई खराब बात है क्या चाचा?'

'नहीं बेटा!'

'तो क्यों लोग रो रहे थे... क्यों तुम रो रहे हो?'

'बेटा, तुम्हें इतने दिनों पर देखा है तो मोह से रुलाई आ गयी।'

'मेरी माँ कब आयेगी चाचा? सभी झूठ बोलते हैं, तुम नहीं झूठ बोलोगे!'

मैं कुछ समझ नहीं सका! बार-बार भीतर से हूल सी मार रही थी। मैंने बीनू का ध्यान फेरने की गरज से कहा, 'वो देखो, चम्पा आ रही है तुम्हें खोजती हुई ।'

चम्पा इधर को ही आ रही थी। शायद वह जानती थी कि रोज की तरह विनोद यहीं होगा।

चम्पा -- बारह साल की गोरी-गोरी लड़की, रबड़ सी मुलायम देह, आँखों में स्वच्छ हँसी तैरती हुई, भरा-भरा चेहरा; आज लग रहा था कि उसके पूरे शरीर को कोल्हू में पेरकर निचोड़ लिया गया हो। आंखों में सर्द स्याही फैली हुई थी। मुझे देखकर मुस्करायी, जैसे श्मशान में चिता की लौ जल उठी हो, फिर हबसने लगी।

'चाचा, यह चम्पा क्यों रोती है? यही कहती है, अम्माँ मर गयी है, कभी नहीं आयेगी, इसलिए रोती है यह। अम्माँ नहीं आयेगी चाचा?'

'आयेगी, आयेगी मेरे बेटे, आयेगी...'

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घर में घुसा तो बीनू को नीचे उतार दिया। वह धीरे-धीरे भाभी के कमरे की ओर बढ़ गया। मैं भी अनजाने खिंचा चला गया। कमरे में झाँका तो कलेजा सनसना उठा। उनका बक्स अस्त-व्यस्त पड़ा हुआ था, उनकी तसवीर तिरछी होकर लटकी थी, उनका आइना बीच में फूट गया था, बीनू के जूते-मोजे यहाँ-वहां बिखरे पड़े थे। कमरे में झाँका तो जी धक्क से रह गया, एक विराट सूनापन जैसे झाँय कर उठा हो।

इस बार नौकरी पर जा रहा था तो भाभी मुस्कराती हुई दरवाजे पर खड़ी थीं, लेकिन उनकी आँखों के भीतर से एक अगाध व्यथा झांक रही थी।

'जल्दी-जल्दी आया करो बाबू। जाते हो तो आने का नाम ही नहीं लेते!' भाभी का भीगा हुआ स्वर गीले कपड़े की तरह मेरे अंग-अंग पर बिछ गया था।

'बहुत दूर चला गया हूँ भाभी! दूसरे प्रेस की नौकरी, जल्दी नहीं आना हो पाता है। और आज के जमाने में साल-दो साल का समय भी क्या होता है भाभी?

'तुम्हें नहीं होता है, लेकिन देहात के घर में तो साल-दो-साल पूरा एक जुग होता है बाबू। शहर जाकर निरमोही हो गये हो न! यहाँ तो मन बहुत उदासता है।'

'मन क्यों उदासता है भाभी? भइया हैं, चम्पा है, विनोद है और और तुम्हारी रंगीनी है, इतने तो साथी हैं...।'

'छोड़ो बाबू, तुम्हारे भइया को गृहस्थी और परोपकार के काम से फुर्सत भी कहाँ? चम्पा पढ़ने जाती है। हाँ, बीनू है, जो अकेले इस सारे सन्नाटे को काटने में लगा रहता है। हाँ, मेरी देवरानी आ जाती तो...।'

'अरे छोड़ो भाभी, अभी क्या जल्दी है? बला जितनी देर से आये उतना ही अच्छा।'

'यह मीठी बला है लाला, इसे कौन नहीं चाहता? और जल्दी की बात कही, सो जिन्दगी का क्या भरोसा? कौन जाने, इस बार मुझे देखकर जा रहे हो, अगली बार आओ, न पाओ!'

'भाभी!' मैं जोर से तड़पा।

'यह तो एक दृष्टान्त की बात कह रही हूँ बाबू, घबराने की बात नहीं।'

मुझे क्या पता था कि यह दृष्टान्त भाभी पर ही चरितार्थ होगा। साल भर बाद भी लग रहा है कि भाभी उसी प्रकार दरवाजे पर ओठों पर हँसी और आंखों में अगाध व्यथा लेकर मुझे विदा दे रही हैं... मुझे लग रहा है कि वे कमरे के एक कोने में बैठी सन्दूक से पैसे निकाल रहीं हैं। खाट पर लेटी हुई वीनू को कहानियाँ सुना रही हैं। मेरे पैर अपने आप अन्दर बढ़ गये; जैसे एक भयंकर खालीपन चीत्कार कर उठा हो... डरकर मैं पीछे लौट आया।

शाम गहरा रही थी। मुझे लगा कि भाभी रसोई घर में चूल्हे के पास बैठी रोटियाँ सेंक रही हैं और धीरे-धीरे कोई ब्याह का गीत गुनगुना रही हैं... चूल्हा उदास पड़ा था धुए से धुमठा हुआ। दो-चार सुलगी हुई लकड़ियाँ बिखरी थीं। शायद चम्पा ने शाम के लिए रोटियाँ सेंकी हैं।

'चाचा, मेरी अम्मा मुझे यहीं बैठाकर रोटियाँ खिलाती थी। कभी रोता था तो गोदी में बैठाकर रोटियाँ सेंकती थी और जब मैं बहुत तंग करने लगता था तो गोदी से उठाकर फेंक देती थी और जब मैं उस कोने में बैठकर अहकने लगता था तो रोती हुई आती थी, छाती से लगा लेती थी। अब मैं इसी कोने में बैठा रहता हूँ, कोई नहीं आता लेने के लिए, मैं तो अब रोता भी नहीं।'

और स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ... भाभी तुलसी के चौरे पर दीप जलाकर विनय की मुद्रा में झुकी हुई हैं... चूल्हे के पास बैठी हुई हैं...  चूल्हे की आँच से तपे हुए गोरे मुख मण्डल पर पसीने की बूंदें छा गयी हैं, गरम-गरम रोटियों की उष्मा पूरे घर में महक रही है... 

शाम के अन्धकार में पूरा घर डूब गया। कहीं कोई गति नहीं... मुझे रह-रहकर लगता था कि एक आकृति सूने आँगन के अन्धकार को चीरती इस घर से उस घर तक लहर गयी है...

ओसारे में बैठा था बिनोद और चम्पा के साथ। भइया आये, शायद कोई पंचायत करके। एक ढेबरी जल रही थी। भाई साहब धीरे से आकर खाट पर बैठ गये। ढेबरी के मन्द प्रकाश में देखा घुटा हुआ सिर, चेहरे की रेखाए जैसे एकदम कठोर हो गयी हैं, स्तब्ध आँखें जिनमें आँसू उठकर सूख गए हो। 'कब आये?' कुछ देर बाद टूटी आवाज में पूछा उन्होंने।

'घण्टा भर पहले।'

लगता था भाई साहब किसी शून्य लोक में खो गये हों।

'बाबूजी चलिए खाना खा लीजिए। चाचाजी आप भी।' चम्पा बोली।

'भाई साहव यन्त्र की तरह उठ खड़े हुए, 'चलो।' बिनोद को उन्होंने गोद में उठा लिया।

'चम्पा कुछ बना लेती है, यही एक सहारा है।' भाई साहब निरद्वेग भाव से बोले।

'खाओ बेटा बीनू, खाते क्यों नहीं?' मैंने बिनोद को उकसाया।

'मुझे अच्छा नहीं लगता चम्पा का बनाया हुआ खाना। मेरी माँ को बुला दो। मुझे कितना अच्छा अच्छा खाना खिलाती थी। चम्पा को तो कुछ आता ही नहीं। तुम लोगों ने मेरी अम्माँ को घर से निकाल दिया है। कोई बुलाता नहीं उसे। मैं नहीं खाऊँगा। कभी नहीं खाऊँगा।'

भाई साहब ने बड़ी कठोर मुद्रा से एक बार मेरी ओर, एक बार बिनोद की ओर देखा। कहना मुश्किल था कि उस मुद्रा में कठोरता अधिक थी कि बेबसी। बिनोद सहम गया।

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खाना खाकर हम लोग चारपाई पर बैठे। फिर उसी जड़ता ने भइया को दबोच रखा। मुझे कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हो रही थी। कुछ देर बाद वे स्वयं बोले, 'निमोनिया हो गया था। देहात में जितनी कोशिश हो सकती थी, की, नहीं बच सकी।'

फिर वही कठोर चुप्पी भाई साहब ने साध ली। ढेबरी के प्रकाश में मैंने उनके धूसर मुख की स्तब्ध जड़ता को धीरे-धीरे काँपते हुए देखा, फिर जैसे सारा चेहरा पिघल गया और टप्प-टप्प आँसू चूने लगे, फिर जैसे सारे आँसू एक साथ उमड़ पड़े, उन्होंने आँसुओं को पोंछा नहीं।

चम्पा और बिनोद सो गये थे। भाई साहब ने इतनी देर बाद पूछा, 'कैसे रहे, तुम?'

'ठीक।' जैसे भाई साहब की जड़ता संक्रामक होकर मुझे भी लपेटने लगी थी।

'तुम तो नहीं आ सके, बड़ी पीड़ा से मरी है। लक्ष्मी घर सूना कर गयी! कुछ सोच नहीं पाता, इस बीनू का क्या करूँ? घर में दूसरी कोई औरत होती तो शायद संभाल लेती। मैं अकेले क्या-क्या करूँ - घर-गृहस्थी, अंचायत पंचायत... सौ लफड़े बीनू... जैसे एक बड़े तपते हुए सुनसान में कोई चिड़िया का बच्चा आ फंसा हो... इस असहाय को मैं कैसे समझाऊँ? सुधीर... तुम्हारी भाभी बिनोद की व्यथा समझती थी। उसकी आंखों में एक गहरी काली रात थरथरा रही थी, वह इसीलिए मर-मर कर मरी है... कितनें दिन की छुट्टी है?'

'सात दिन की। चार दिन तो आने-जाने में बीत जाते हैं।'

'हूँ...'

बिनोद सोने में जोर-जोर से रोने लगा, 'नहीं न...हीं... न...हीं.... अहहहह...'

भाई साहब ने मेरी ओर देखा, बोले, 'देखो, ऐसे ही रोता है... रात में तीन-चार बार, सो नहीं पाता हूँ...।'

विनोद रोये जा रहा था, मैने ठीक-ठाक कर फिर उसे सुला दिया।

हम लोग सो गये। दो घण्टे बाद बीनू फिर उसी तरह चीखने लगा, 'नहीं... न...हीं' भाई साहब ने उसे थपकी देकर सुला दिया। फिर घण्टा भर बाद वह चीखने लगा। भाई साहब खीझ उठे। उसके गाल पर दो थप्पड़ रसीद किये और खाट के नीचे ढकेल दिया--'कमीना, पाजी! बोल, फिर रोयेगा?' बिनोद भय से काँपने लगा। रोते-रोते कह रहा था, 'नहीं अब नही रोऊंगा, अब नहीं।'

मैंने बिनोद को अपने पास सुला लिया--फिर कुछ देर बाद रोने लगा, किन्तु गनीमत थी कि भाई साहब पहर रात रहते ही बैलों को सानी-पानी देने के लिए उठ गए थे!

सुबह होते ही बीनू भाभी के कमरे की ओर दौड़ा, 'अम्माँ अम्माँ! तुम आ गयीं।' इस कमरे से उस कमरे में गया, उस कमरे से उस कमरे में, फिर उदास होकर आंगन के एक कोने में बैठ गया। आँखों से आँसू भर रहे थे।

मैं उसे इस हालत में देखकर सहम गया, जहाँ का तहाँ खड़ा रहा। छत पर शरद की धूप उतर आयी थी, एक गौरैया अपने बच्चे को चारा खिला रही थी।

'चल भइया, हाथ मुंह धो ले और दूध पी ले।' चम्पा पास आकर बोली।

'मैं नहीं हाथ-मुह धोऊँगा, मैं नहीं दूध पीऊंगा, मैं अम्मां के पास जाऊँगा, पहुँचा दो मुझे।'

मैं बीनू को गोद में लेने के लिए लपका, वह छटपटाकर अलग हो गया। वह उसी जिद के साथ कहता रहा, 'मैं अम्माँ के पास जाऊँगा। वह आती है, भाग जाती है, अब मैं भी उसके पास जाऊँगा। देखूँ, कैसे भागती है!"

"अम्माँ कहाँ आती है, बेटा?'

'यहीं आती है, रोज रातको आती है सफेद साड़ी पहने हुए। जब मैं उसे पकड़ने जाता हूँ तो भाग जाती है। अब मुझी को उसके पास ले चला न!'

'बेटा! वे बहुत दूर गयी हैं। तुम वहाँ नहीं पहुँच पाओगे, थक जाओगे, बच्चे हो न! वे खुद एक दिन आ जायेंगी।'

'आती तो रोज रात को है मगर भाग जाती है।'

'तुम रातको रोते हो, इसलिए भाग जाती है।'

'मैं रोता नहीं चाचा, रोना अपने आप आ जाता है, मैं क्या करूँ?'

'क्यों रोना आ जाता है?'

'चाचा, मैं देखता हूँ कि अम्मां आयी है खूब सफेद कपड़े पहने हुए। उसका मुँह भी बहुत महीन कपड़े से ढका हुआ है। मुझसे दूर बैठी हुई मुझे निहारती रहती है। पता नहीं क्यों मेरे पास नहीं आती? अब मुझे प्यार नहीं करती? बैठी-बैठी रोती है, कुछ खाने की नहीं देती। और जब मैं अम्माँ अम्माँ पुकारता हुआ उसकी ओर दौड़ता हूँ तो वह आंगन से उड़ जाती है और मेरा सिर भीत से टकरा जाता है। मैं समझता हूँ कि मां मेरी बदमाशियों से नाराज होकर मुझसे दूर भाग रही है। मैं पुकारता हूँ, अब नहीं अम्मां, अब नहीं बदमाशी करूंगा। मगर अम्मां नहीं सुनती है, उड़ जाती है, मैं देखता रहता हूँ कि वह दूर दूर चमकते तारों में जाकर मिल गयी है मैं रोता सा आँगन में खड़ा रहता हूँ--।'

मुझे रातको बीनू के रोने का कारण समझ में आ गया, मन अद्भुत करुणा से भारी हो गया। उसे गोद में उठाया, 'मेरे बड़े अच्छे मुन्ने, चलो हाथ-मुह धो लो, दूध पी लो, जब अम्माँ सुनेगी कि तुम अच्छे लड़के हो गये हो, दूध लेते हो तो जल्दी आयेगी।'

बीनू कुछ बोला नहीं, जैसे उसे हम सबकी बातों पर अब अविश्वास हो रहा था, फिर भी एक अज्ञात आशा चमकी होगी मन में, तभी तो वह मेरी बांहों में धीरे से खिच आया।

'ऐसे नहीं, अम्माँ ऐसे मुह घोती थी। इतने बड़े हुए, मुंह भी घोना नहीं आया चाचा !' और वह स्वयं वैसे धोने लगा, जैसा अम्माँ घोती थी।

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बिनोद को लेकर घूमने निकल गया। शरदकी धूप कटते हुए खेतों और भरते हुए खलिहानों की फसलों पर फैल गयी थी। पानी से भरे गड्डों से एक अजब सी गन्ध आ रही थी। मुझे लगा कि मेरा मन भी एक बड़ासा आकाश है, जिसमें उदास धूप फैली हुई है और रह रहकर एक चील टिहा उठती है। अपने बचपन का एक प्रसंग याद आ रहा था। मां मामाके साथ मायके जा रही है। मैं अंधेरे में बाँहों से आँखें घेरकर झर झर झर झर रो रहा हूँ। दस साल का हूँ, फिर भी मोह से भरकर हृदय उमड़ उमड़ आ रहा है। मां लौटकर देखती है कि मेरा चेहरा सूख गया है, हड्डियां निकल आयी हैं, आंखें धंस गयीं हैं, मां बैठी रो रही हैं--मां, कितना दर्द भरा शब्द है यह! और यह चार साल का बिनोद, जिसकी मां हमेशा के लिए छिन गयी--और-- और आगे सोचना नहीं हो पाता। बिनोद को लिये हुए लौट आता हूँ।

'चाचा।'

'हां बेटा।'

'मेरी माँ थी न, बड़ी अच्छी थी। हाँ, बड़ी अच्छी थी। लेकिन पता नहीं क्यों छोड़कर चली गयी!'

मैं चुप था।

'चाचा, अम्मां मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ती थी, मगर इस बार क्यों अकेला छोड़ गयी? मुझसे पूछा भी नहीं कि गंगा नहाने जा रही हूँ। यह भी नहीं कहा कि कब आयेगी। जब मैं उसके साथ जाने लगा तो गांव के कई लोगों ने मुझे पकड़ लिया। मैं बहुत रोया, लेकिन किसी ने जाने नहीं दिया अम्माँ के साथ। कितने बुरे लोग हैं, जो बेटे को अम्माँ के साथ नहीं जाने देते...'

'हाँ बेटा।'

दोपहर को खा पीकर एक मित्रसे मिलने चला गया। घर लौटा तो देखा बीनू भाभी के घर में बैठा हुआ सिसक रहा है, उसके आगे भाभी की फोटो है। मैं धीमे से वहाँ से सरक आया रो लेने दो, हलका हो जायेगा।

कुछ देर बाद लौटा तो देखा बिनोद फोटो को छाती से चिपकाये कमरे के अस्त-व्यस्त सामानों पर सो गया है। मुंह पर आंसुओं की लकीरें सूख गयीं हैं। चम्पा रोटी बना रही थी। मैंने कहा 'बेटा चम्पा अब तू ही इसकी माँ है, बहन है ख्याल रखा कर इसका।'

चम्पा भरभराकर रो पड़ी जैसे बहुत देर से रुका हुआ बांध टूट गया हो'। बहुत देर तक हुचक हुचक रोती रही और रोटियां सेकती रही! कुछ देर बाद बोली, 'बहुत सताता है यह, ऐसी ऐसी बातें करता है कि धीरज छूट जाता है, छाती फट जाती है...'

आगे बढ़कर मैंने बीनूको गोद में उठा लिया। ओह! इसकी देह तो गरम है तवे की तरह। 'चम्पा जरा बिस्तर ठीक करना बेटा, इसे बुखार है।'

बिनोद को चारपाई पर सुला दिया। वह बुखार की बेहोशी में बर्राने लगा, 'अम्मां.. कहां हो... बुला लो...आओ...,

शाम को भाई साहब आये, माथा पकड़कर बैठ गये। 'सुधीर, कुछ समझ में नहीं आता क्या करूँ? घर में कोई औरत होती तो थोड़ा बहुत संभालती भी... बेचारी चम्पा खुद ही बच्ची है, क्या क्या करे मेरे प्यारे बच्चे, अभागे बच्चे...!'

भइया रोने लगे। मैं चुप रहा। कुछ देर बाद बोला 'भइया, जो आ पड़ा है झेलना ही होगा। आप भी कुछ बाहर से अपने को समेटकर बीनू में अपने को केन्द्रित कीजिए और और कुछ दिनों के लिये बहन को बुला लीजिए।'

'बुलाया था भाई, लेकिन वह आने की स्थिति में नहीं है। ...लोग तरह-तरह के इशारे भी करने लगे हैं? सुधू कितने गन्दे हैं लोग कि उसे मरे हुए महीना भर भी नहीं हुआ कि शादी के इशारे करने लगे हैं। नहीं, यह नही होगा। मैं बीनू के लिए विमाता नहीं लाऊंगा, कुछ करूंगा, करूंगा कुछ, मगर यह नहीं... नहीं...।' लगा, जैसे भइया किसी तेज भंवर में पड़ गये हों।

मेरे पास कुछ दवाएं थीं, बीनू को खिलायीं। दूसरे दिन उसका बुखार उतर गया। होश आते ही पूछा, 'चाचा! मां आ गयी?'

तीसरे दिन शाम को नौकरी पर लौटने लगा। भाई साहब सख्त चेहरे पर आंसुओं का तनाव लिए खड़े थे। चम्पा मुंह फेरकर हवस रही थी। बीनू... बीनू कहीं खेलने निकल गया था। नहीं उसे मत बुलाओ, खेलने दो, उसे खेलने देना चाहिए। एक और चेहरा इस विदा के साथ जुड़ा हुआ है, वह आज नहीं है। लौट रहा हूँ एक बोझ लेकर, एक खाली घर लेकर..

गाँव के बाहर निकला तो देखकर स्तब्ध रह गया। बीनू उसी आम के पेड़ के नीचे पश्चिम की ओर मुंह किये खड़ा था एक अनन्त प्रतीक्षा में...

उसके पास जाने की हिम्मत नहीं हुई। मैंने दूसरा रास्ता पकड़ा। दूर तक मुड़ मुड़ कर देखता रहा, बीनू उसी प्रकार खड़ा था...

-रामदरश मिश्र