मैं 1988 के अंत में न्यूज़ीलैंड आया था। भारत से स्नातक की शिक्षा के बाद हिंदी-अँग्रेजी दोनों में पत्रकारिता की थी।
न्यूज़ीलैंड आने से पहले तक मैं पंजाब केसरी, दैनिक ट्रिब्यून, विश्व मानव, वीर प्रताप और हरिगंधा के अतिरिकत अनेक-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका था। मेरी एक छोटी कहानी 'दूसरा रुख' को बरेली की "अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य, कला परिषद्" ने 'साहित्यालंकार' से सम्मानित किया था।
यहाँ पहुंचा तो उस समय भी भारत के हिंदी पत्र-पत्रिकाओं से जुड़ा रहा।

विद्यालय वार्षिकी कपिस्थली में रोहित कुमार का आलेख
लेखन से मेरा परिचय विद्यार्थी जीवन से रहा है। हमारे विद्यालय में वार्षिकी प्रकाशित होती थी, नाम था ‘कपिस्थली’ उसमें पहले-पहल मेरी रचना प्रकाशित हुई थी।

महाविद्यालय वार्षिकी 'ज्ञानांजलि' में रोहित कुमार हैप्पी का आलेख
कॉलेज में गया तो वहाँ भी 'ज्ञानांजलि' वार्षिकी थी। उसमें भी रचना सहयोग के अतिरिक्त सम्पादन में सहयोगी रहा।विद्यालय तक मैंने 'रोहित कुमार' के नाम से लिखा। मेरे घर का नाम 'हैप्पी' था। अधिकतर लोग मुझे 'हैप्पी' के नाम से ही जानते थे। महाविद्यालय में आते-आते मैं दैनिक पत्रों और एक-दो स्थानीय पत्रों से जुड़ चुका था। मैं अब अपना नाम रोहित कुमार 'हैप्पी' लिखता था और तभी से मेरा यही नाम लेखन में उपयोग होता आया है।
न्यूज़ीलैंड आने पर यहाँ कोई हिंदी की पत्र-पत्रिका नहीं मिली। हाँ, एक भारतीय पत्र अंगेजी में था। यहाँ आते ही पहले ही मास से मैं उस सामुदायिक पत्र (Community Newspaper) ‘द न्यूज़ीलैंड इंडियन टाइम्स’ के संपर्क में आ गया। यहाँ के मुख्यधारा के अंग्रेजी पत्रों में ‘लेटर टु एडिटर’ के माध्यम से मेरा लेखन आरंभ हो गया। दो वर्ष इसी प्रकार व्यतीत हो गए। मैं हिंदी साहित्य पिपासु था लेकिन कोई माध्यम न था। क्या करता? तलाश जारी रखी और प्रयास भी।
न्यूज़ीलैंड में हिंदी पत्रकारिता और इसके सूत्रधार
सन् 1991 से ‘द न्यूज़ीलैंड इंडियन टाइम्स’ से जुड़ गया।
'द न्यूज़ीलैंड इंडियन टाइम्स' मूलत:अँग्रेज़ी का समाचार पत्र था और इसके संपादक थे, फीजी से संबंध रखने वाले 'आफिफ शाह'। एक दिन संपादक से कुछ 'हिंदी पन्ने' भी पत्र में जोड़ने का अनुरोध किया। उन्हें यह आइडिया काफी भाया। प्रिंटर से पूछा तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया कि ऐसा कर पाना असंभव है। हिंदी फन्ट की भरी समस्या थी।
हिंदी का साधक मायूस नहीं हुआ। हिंदी की संभावना तलाशता रहा। प्रिन्टर से फिर चर्चा हुई। मैंने हस्तलिपि का सुझाव दिया तो उन्होंने इसपर विचार का आश्वासन दिया। अगली बार खुद संपादक मेरे साथ प्रिंटर से मिलने गए। लंबी बातचीत के बाद उसने सुझाया कि यदि आप दिये गये फारमेट में हिंदी में लिखकर सप्लाई कर दें तो संभव हो सकता है। उस समय हिंदी के फांट तो प्रचलित ही नहीं थे।
फिर अगली बार इसपर काम कैसे किया जाए, इसपर चर्चा हुई। तब डिजिटल युग नहीं था। सब हाथ से करना पड़ता था। मेरे पास एक बड़ा-सा फ्रेम भेजा जाता था, जिसमें हिंदी के लिए स्थान खाली रखा गया होता था। उसी में हाथ से लिखकर वह प्रिन्टर को लौटाना होता था।
सो 1992 में हस्तलिपि के साथ 'द इंडियन टाइम्स' में कुछ समाचार प्रकाशित होने आरम्भ हुए। फिर नियमित रूप से हिंदी हस्तलिपि में कुछ पृष्ठों के प्रकाशन जोड़ दिए गए।
1992 में 'द इंडियन टाइम्स' में रोहित कुमार 'हैप्पी' की हस्तलिखित हिंदी रिपोर्ट
फिर कुछ समय बाद 'द न्यूज़ीलैंड इंडियन टाइम्स' पत्र बेच दिया गया। नये प्रकाशक थे 'कुअर सिंह!' वे भी फीजी से ही थे। पत्र आर्थिक तंगी से गुजर रहा था। कुछ समय बाद स्व० एम सी विनोद भी 'द इंडियन टाइम्स' के साथ जुड़ गए। वे फीजी में बरसों वहाँ के साप्ताहिक-पत्र 'शान्ति-दूत' के संपादक रहे थे। वे हिंदी में लेखन तो करते ही थे, उनकी हस्तलिपि भी बहुत ख़ूबसूरत थी। वे उम्र में मुझसे काफी बड़े थे और हिंदी के कारण उनका मुझसे अपार स्नेह था। वे मेरे काम की बहुत सराहना किया करते थे। उस समय समाचारपत्र की टीम में हिंदी पर चर्चा करने वाले हम दो ही जीव थे। शेष सदस्यों को हिंदी व साहित्य की इतनी जानकारी न थी, इसलिए हम दोनों की बहुत बनती थी। मेरे आग्रह पर वयोवृद्ध मास्टर एम सी विनोद भी पत्र हेतु हस्तलिपि में कुछ सामग्री देने लगे।

स्व० एम सी विनोद की हिंदी हस्तलिपि
स्व० एम सी विनोद को सब 'मास्टरजी' बुलाया करते थे। मास्टर जी खूब सुझाव दिया करते थे लेकिन कुछ व्यक्तिगत कारणों से अधिकतर वे इन गतिविधियों में हिस्सा नहीं लेते थे। समर्थन खूब करते और मार्गदर्शन भी। एक दिन कवि-सम्मेलन की चर्चा करते-करते मैंने मास्टर जी से पूछा कि यहाँ कवि सम्मेलन करवाएं तो कैसा रहेगा? उन्होंने कहा कि 'मास्टर नफीस अख्तर' से बात की जाए क्योंकि वे भी शायरी का खूब शौक रखते हैं। मास्टर नफीस अख्तर भी 'द इंडियन टाइम्स' के लिए ‘उर्दू’ में लिखा करते थे और उनका शायरी में रूझान रखने वालों के साथ तालमेल था। बातचीत आगे बढ़ी सबको 'कवि सम्मेलन और मुशायरे' का प्रस्ताव अच्छा लगा।
न्यूज़ीलैंड में पहला 'कवि सम्मेलन' व 'मुशायरा'
अगस्त 1992 में एक हाल किराये पर लेकर 'द इंडियन टाइम्स' के झंडे के नीचे अगुआई में कवि सम्मेलन और मुशायरे का आयोजन हुआ। यह न्यूज़ीलैंड में आयोजित पहला 'कवि सम्मेलन' व 'मुशायरा' था। हाल पूरी तरह भरा हुआ था। कवि सम्मेलन का मंच संचालन मैंने और मुशायरे का मंच संचालन 'मास्टर नफीस अख्तर' ने किया था। कवि सम्मेलन की खूब सराहना हुई। इस कवि सम्मेलन की रिपोर्ट 'द इंडियन टाइम्स' के अतिरिक्त उस समय नार्वे से प्रकाशित होने वाली हिंदी पत्रिका 'शांति-दूत' में भी प्रकाशित हुई।

'द इंडियंन टाइम्स' में प्रकाशित हस्तलिपि रिपोर्ट और नार्वे से प्रकाशित शांति दूत में मुद्रित रिपोर्ट
भारतीय पत्रों का कठिन दौर
अगले एक-दो वर्षों में कई अन्य पत्र भी प्रकाशित हुए लेकिन सभी एक दूसरे को चोट पहुंचाते हुए बंद हो गए। इन्हीं बंद हुए पत्र-पत्रिकाओं में 'द इंडियन टाइम्स' भी सम्मिलित था।
भारत-दर्शन का प्रकाशन
1995 में फिर से मैंने किसी पत्र-पत्रिका के प्रकाशन की संभावना तलाशनी आरंभ की। एक पत्र चलाने की योजना बनाई। इसपर काम करना आरम्भ किया लेकिन यह योजना फलीभूत न हो सकी।
1996 में हिंदी प्रकाशन 'भारत-दर्शन' आरम्भ किया। भारत-दर्शन जैसी पत्रिका का संपादन व प्रकाशन करने से पहले मैं न्यूज़ीलैंड में अपनी हस्तलिपि से हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत कर चुका था। म्रेरे पास पत्रकारिता और प्रकाशन का अनुभव था। मैं कम्प्युटर में कुशल था और इस समय तक न्यूजेलन्द में डिजिटल प्रिंटिंग आरंभ हो चुकी थी। भारत-दर्शन का पहला अंक अगस्त-सितंबर 1996 था लेकिन अभी तक हमारा ISNB नहीं आया था। पहले अंक का पहला संस्करण डिजिटल प्रिंटिंग से प्रकाशित हुआ और यह बिना ISNB के था। पत्रिका हाथों-हाथ चली गई और हमें इसी अंक का दूसरा संस्करण निकालना पड़ा। अब तक ISNB भी आ गया था यथा पहले अंक के दूसरे संस्करण पर ISNB मुद्रित था।
भारत-दर्शन के पहले अंक का प्रथम और द्वितीय संस्करण, 1996 (डिजिटल प्रकाशन)
पत्रिका दिनोदिन प्रसिद्ध होने लगी लेकिन इसके लिए 'तन, मन और धन' के समर्पण की आवश्यकता थी। स्वयं सामग्री एकत्रित करना, संपादन करना, प्रकाशन करवाना और उसके पश्चात इसे सभी भारतीय दुकानों व संस्थाओं पर वितरित करना। युवा था और हिंदी-प्रेम के कारण उर्जा भी खूब थी।
बाद में दो मित्रों का वितरण में अवश्य सहयोग रहा। आज भी अपने दोनों सहयोगियों 'वीरेंद प्रकाश' व 'हिंमाशु शाह' की याद है। प्रकाश ऑकलैंड के कई हिस्सों में 'भारत-दर्शन' पत्रिका रख आते ओर 'हिंमाशु' ने कई बार 'साप्ताहिक मंडियों' में आते-जाते भारतीयों से पूछ-पूछकर कि क्या वे हिंदी पढ़ते हैं--भारत-दर्शन की प्रतियाँ बांटी हुई हैं।
प्रकाशन का खर्चा और अर्थ व्यवस्था
हाँ, खर्चा कैसे उठाते थे? इसकी चिंता बहुतेरों को रहती थी! इसलिए नहीं कि वे मदद करना चाहते थे बल्कि इसलिए कि ऐसा कैसे संभव हो पा रहा है?
मैं कोई व्यापारी नहीं बल्कि लेखक था फिर पैसे की मुझको इतनी भूख कहाँ थी! मैं कहता--
"मैं सोचता नहीं हूँ बहुत घाटे-मुनाफे
ज़िंदगी की मैंने की दुकान नहीं है।"
यदि हम गीता में विश्वास करते हैं तो 'कर्म' पर बल देते हैं 'फल' की इच्छा नहीं पालते। 1996 में 'भारत-दर्शन' का प्रिंट संस्करण आरंभ हुआ और उसके साथ ही 1997 में इंटरनेट संस्करण भी। भारत-दर्शन विश्व में इंटरनेट पर उपस्थिति दर्ज करवाने वाली सबसे पहली हिंदी पत्रिका थी।
उस समय में जब इंटरनेट आम नहीं था तो 'भारत-दर्शन' का प्रकाशन कैसे संभव हुआ?
1996 के शुरुआती दिनों में वे न्यूज़ीलैंड की एक लायब्रेरी में पहले-पहल इंटरनेट को जानने व इसका उपयोग करने गया। सबसे पहले मैंने किसी हिंदी पत्र-पत्रिका को खोजना चाहा लेकिन कोई परिणाम नहीं आया। भारतीय पत्र-पत्रिका खोजने पर 'द हिंदू' के दर्शन हुए जो अँग्रेज़ी में था। लायब्रेरीयन से इस बारे में पूछा तो उसने कुछ देर खोजने के बाद इस बात की पुष्टि की कि 'हिंदी' का कोई प्रकाशन इंटरनेट पर नहीं है। बस तभी मेरे दिमाग में यह आया कि यदि नहीं है तो होना चाहिए और भारत-दर्शन को इंटरनेट पर प्रकाशित करने के काम में जुट गया। कुछ समय बाद 'भारत-दर्शन इंटरनेट पर प्रकाशित होने लगा।
भारत-दर्शन इंटरनेट पर
भारत-दर्शन का मुद्रित प्रकाशन (प्रिंट मीडिया) के तुरत बाद इसका पहला इंटरनेट संस्करण 1997 में प्रकाशित हुआ। इसके साथ ही पत्रिका को 'इंटरनेट पर विश्व की पहली हिंदी साहित्यिक पत्रिका' होने का गौरव प्राप्त हुआ और विश्व-भर में फैले हिंदी प्रेमियों ने 'भारत-दर्शन' के इंटरनेट संस्करण की सराहना की। इस प्रकार इंटरनेट की दुनिया में हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता का उदय 'भारत-दर्शन' के रूप में हुआ।
भारत-दर्शन का पहला ऑनलाइन संस्करण - दिसंबर 1997 [ xoom.com/Rohi ]
वर्ष 1998 में भारत-दर्शन अपने डोमेन पर उपलब्ध हो गया। साथ ही यह xoom.com/ पर भी चलता रहा। वर्तमान में भारत-दर्शन हिंदी न्यू मीडिया में अग्रणी है।
हिंदी शिक्षण में योगदान
अच्छे स्तरीय पाठ तैयार करना, सृजनात्मक/रचनात्मक अध्यापन प्रणालियां विकसित करना, पठन-पाठन की नई पद्धतियां और पढ़ाने के नए वैज्ञानिक तरीके खोजना, जैसी बातें विदेशों में हिंदी के विकास के लिए एक चुनौती है।
'इंटरनेट आधारित 'हिंदी-टीचर' ने हिंदी जगत में एक नया अध्याय जोड़ा।
90 के दशक में भारत-दर्शन का 'ऑनलाइन हिंदी टीचर'
इंटरनेट पर भारत-दर्शन के माध्यम से हिंदी सिखाने की पहल की। एक ऑनलाइन 'हिंदी टीचर' विकसित किया गया जिसके माध्यम से जिनकी भाषा हिंदी नहीं वे हिंदी सीख सकें। इसके शिक्षण का माध्यम अंग्रेज़ी रखा गया ताकि विदेशों में जन्मे बच्चे व विदेशी इसका लाभ उठा सकें। 90 के दशक में यह तकनीक व प्रौद्योगिकी उपलब्ध करवाना अपने आप में एक उपलब्धि थी।
हमारे लिए बडे़ गर्व कि बात है कि आज भारत-दर्शन विश्व के अग्रणी हिंदी अन्तरजालों (इंटरनेट साइट ) में से एक है। विश्व हिंदी मानचित्र पर न्यूजीलैंड का नाम 'भारत-दर्शन' ने अंकित किया है।
हिंदी फाँट
लोग हिंदी में टंकण कर सके इसके लिए मैंने 1997 में 'भारतदर्शन' नाम से एक हिंदी फाँट विकसित किया जिसेनिशुल्क वितरित किया गया। हजारों की संख्या में लोगों ने इसका उपयोग किया और न्यूज़ीलैंड की अधिकतर सरकारी एजेंसियाँ व अनुवाद कम्पनियाँ इस 'फाँट' का इस्तेमाल करती रही हैं। 1999 में इसका दूसरा संस्करण 1.1 निकाला गया। यह फाँट उस समय के प्रसिद्ध ‘सुषा’ फाँट के कुंजीपटल के अनरूप उसका बेहतर रूप था।
भारत दर्शन फाँट - द्वितीय संस्करण 1.1 (1999)
भारत की स्वतंत्रता का स्वर्ण जयंती समारोह : सभी भारतीय समुदाय एक मंच पर
'भारत-दर्शन' कुछ ही समय में काफी लोकप्रिय हो गई थी। विशेषकर ऑकलैंड में सभी समुदायों से मेरे घनिष्ठ संबंध थे। अगस्त ‘97 में पहली बार सभी भारतीयों को भारतीय स्वतंत्रता दिवस की ’स्वर्ण जयंती समारोह' पर एक मंच प्रदान किया। इससे पहले केवल गुजराती समुदाय ही ‘स्वतंत्रता-दिवस’ मनाता था और सारा कार्यक्रम गुजराती में ही होता था। 1997 में न्यूज़ीलैंड में रह रहे सभी समुदाय एक मंच पर आए और समारोह हिंदी में हुआ। इसमें मुख्य अतिथि भारतीय उच्चायुक्त व विशिष्ट अतिथि न्यूज़ीलैंड के रेसरिलेशंस कौंसिलिएटर थे।
इस अवसर पर विभिन्न हिंदी सेवियों को सम्मानित किया गया।
विभिन्न आयोजन
90 के दशक में सांस्कृतिक कार्यक्रम, चित्रकला प्रदर्शनी व फिल्म फेस्टिवल का भारतीय उच्चायुक्त के सहयोग से आयोजन किया। रेडियो तराना में कार्यरत हेमंत पारिख का सहयोग सराहनीय रहा। साउंड सिस्टम और फिल्म फेस्टिवल में स्क्रीन-प्रोजेक्टर इत्यादि में उनका तकनीकी ज्ञान बहुत लाभकारी रहा। उन्हें जब कुछ कहा वे सहयोग के लिए उपस्थित रहे।
हिंदी का प्रचार-प्रसार करने में अन्य संस्थाओं में हिन्दी रेडियो तराना, अपना एफ एम, प्लैनेट एफ एम ( पूर्व में एक्सेस कम्युनिटी रेडियो) और ट्रायंगल टी वी का योगदान भी सराहनीय रहा है।
हिंदी का प्रचार-प्रसार करना है तो 'जो घर फूँके आपणा, चले हमारे साथ!' की तरज पर ही संभव है। "तन, मन, धन” सब कुछ न्योछावर करने वाले हों तो हम भी आपके साथ खड़े हैं लेकिन कबीर बनना आसान कहाँ है?
दीवाली मेले' का आयोजन
1998 में एक एक गैर-भारतीय ने एक बैठक में मेरे समक्ष भारतीय समुदाय के लिए कुछ आयोजन का प्रस्ताव रखा। एक-दो बैठकों के बाद मैंने 'दीवाली' के आयोजन की बात कही। कुछ समय बाद हमने 'भारत-दर्शन’ के बैनर तले 'दीवाली मेले' की योजना बनाई। फिर हमने 2-3 बार ऑकलैंड इंडियन एसोसिएशन से बैठकें रखी। अंततः ऑकलैंड इंडियन एसोसिएशन ने हमें दोनों सभागार दे दिए। स्टॉल इत्यादि से जो राशि प्राप्त होनी थी वह हमने ऑकलैंड इंडियन एसोसिएशन को डुनेट करने की कही थी। हमने दीवाली के अतिरिक्त अन्य उत्सव आयोजित करने की योजना बनाई थी यथा हमने अपना नाम 'इंडियन फेस्ट' रख लिया और ऑकलैंड इंडियन एसोसिएशन हमारी मुख्य सहयोगी बन गई।
दीवाली मेले का समाचार और विज्ञापन, भारत-दर्शन, सितंबर-अक्तूबर 1998
सो, न्यज़ीलैंड में दीवाली 'भारत-दर्शन' व एक न्यूज़ीलैंडर महिला (Genny) ने 1998 में 'दीवाली मेला' के रूप में पहली बार आयोजित की। इससे पूर्व केवल कुछ रामायण मंडलियां अपने स्तर पर दीवाली मनाती थीं। दीवाली का यह भव्य आयोजन पहली बार ऑकलैंड के 'महात्मा गांधी' सेंटर में इंडियन एसोसिएशन के सहयोग से हो रहा था, जिसने निःशुल्क अपना हॉल दिया था। अगले दो-तीन वर्षों में यह 'दीवाली मेला' इतना प्रसिद्ध हुआ कि ऑकलैंड कौंसिल ने इसका बीड़ा उठा लिया व तभी से यह देश भर में आयोजित हो रहा है। प्रसन्नता की बात है कि अब 'दीवाली' देश भर में मनाई जाती है।
वर्ष 2001 के बाद यह इतना प्रसिद्ध हुआ कि ऑकलैंड सिटी कौंसिल ने इसके प्रबंधन की जिम्मेवारी स्वयं उठा ली। 'भारत-दर्शन' के इस मेले के आयोजन का ध्येय हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं का प्रचार-प्रसार करना भी था।
फीज़ी हिंदी साहित्य का प्रकाशन
मैंने विभिन्न हिंदी समाचारपत्र-पत्रिकाओं के लिए 2000 में फीज़ी कू कवर किया था। उस समय विभिन्न फीज़ी के साहित्यकारों जिनमें स्व० डॉ० विवेकानंद शर्मा, स्व० जोगिन्द्र सिंह कंवल, नीलम कुमार इत्यादि सम्मिलित हैं, से भेंट हुई थी। तभी से मेरे ह्रदय में फीज़ी के प्रति विशेष स्नेह है। अभी तक अनेक फीजी के साहित्यकारों की रचनाओं को प्रकाशित कर चुके हैं। प्रयास है कि फीजी के साहित्यकारों का हिंदी साहित्य और विस्तृत पाठक-वर्ग तक पहुँच सके।
भावी योजनाएं
हमारी हार्दिक अभिलाषा है कि उच्च-स्तरीय लेखन व दुर्लभ हिंदी साहित्य को ऑनलाइन उपलब्ध करवाया जाए। इसके लिए हम पिछले कुछ वर्षों से कार्य कर रहे हैं। इसके साथ ही, फीजी, ऑस्ट्रेलिया व न्यूज़ीलैंड के हिंदी साहित्यकारों को विशेष रूप से लेखन हेतु प्रोत्साहित करना चाहेंगे।
-रोहित कुमार हैप्पी
*रोहित कुमार हैप्पी लेखक, कवि, पत्रकार होने के साथ-साथ अच्छे डिजिटल आर्टिस्ट भी हैं। आपने न्यूज़ीलैंड की मैसी यूनिवर्सिटी से जर्नलिज्म किया। इसके अतिरिक्त इंवेसिटिगेटिव सर्विसिस, ग्रॉफिक्स, प्रिंट मीडिया, वेब डिजाइन एंड वेब राइटिंग और ब्राडकास्टिंग में प्रशिक्षित हैं। नेट इंवेस्टिगेशन में आपको महारत है जिसका उपयोग आप बहुधा अपनी ख़ोजी पत्रकारिता में करते हैं।
[भारत-दर्शन]