पत्रकारिता एक मिशन के रूप में
मुंशी प्रेमचंद को आमतौर पर उनके कथा-साहित्य के लिए जाना जाता है, लेकिन उनका पत्रकार व्यक्तित्व भी उतना ही महत्वपूर्ण है। उनके लिए पत्रकारिता केवल जीविका का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्रीय जागरण का एक सशक्त माध्यम थी। वे मानते थे कि साहित्य "राजनीति के आगे मशाल" है, और यही धारणा उनकी पत्रकारिता में भी झलकती है।
उनकी लेखनी—चाहे साहित्यिक हो या संपादकीय—हमेशा समाज के वंचित वर्गों की आवाज़ बनी। उन्होंने पत्रकारिता को ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता, सामंतवाद, अस्पृश्यता, सांप्रदायिकता और किसान समस्याओं के विरुद्ध वैचारिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। हालांकि यह पत्रकारिता उन्हें आर्थिक संकट में डालती रही, पर उन्होंने वैचारिक मूल्यों से कभी समझौता नहीं किया।
साहित्य और पत्रकारिता: एक-दूसरे के पूरक
प्रेमचंद के कथा-साहित्य और पत्रकारिता के बीच सहजीवी संबंध था। उनके उपन्यासों में जहाँ समस्याओं की भावनात्मक प्रस्तुति होती है, वहीं पत्रकारिता के माध्यम से वे उनका विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। ‘गोदान’ का होरी जिस त्रासदी को जीता है, उस पर ‘हंस’ और ‘जागरण’ के लेखों में बौद्धिक विमर्श मिलता है। यह दोहरी रणनीति प्रेमचंद की सामाजिक दृष्टि की गहराई को दर्शाती है।
प्रेमचंद का सम्पादकीय नेतृत्व: कालानुक्रमिक विश्लेषण
(i) मर्यादा (1921, काशी)
- राष्ट्रवादी मासिक पत्रिका
- सम्पूर्णानंद की गिरफ्तारी के बाद प्रेमचंद ने कुछ महीनों के लिए संपादन संभाला
- यह प्रेमचंद की सम्पादकीय यात्रा की शुरुआत थी
(ii) माधुरी (1922–1931, लखनऊ)
- नवल किशोर प्रेस की प्रमुख मासिक पत्रिका
- प्रेमचंद ने 1922 से 1931 के मध्य लगभग छह वर्षों तक संपादन किया
- व्यावसायिक सीमाओं के बावजूद पत्रिका का साहित्यिक स्तर ऊंचा उठाया
- यहीं से वैचारिक स्वायत्तता की चाह ने उन्हें अपनी पत्रिका शुरू करने की प्रेरणा दी
(iii) हंस (1930–1936, बनारस)
- प्रेमचंद द्वारा स्थापित मासिक पत्रिका
- प्रगतिशील विचारधारा और राष्ट्रवाद का मंच
- आर्थिक संकट व सरकारी दमन के बावजूद निरंतर प्रकाशित
- ‘हंस’ का नाम जयशंकर प्रसाद ने सुझाया था
- अंतिम समय तक इसका संपादन करते रहे
(iv) जागरण (1932–1934, बनारस)
- प्रेमचंद द्वारा सम्पादित साप्ताहिक पत्र
- तात्कालिक सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं पर वैचारिक हस्तक्षेप
- लगातार आर्थिक घाटे के कारण बंद करना पड़ा
प्रेमचंद के सम्पादकीय कार्य
पत्रिका | स्थान | प्रकार | सम्पादन अवधि | विशेषताएं |
---|---|---|---|---|
मर्यादा | काशी | मासिक | 1921 | असहयोग आंदोलन के समय अस्थायी संपादन |
माधुरी | लखनऊ | मासिक | 1922–1931 | प्रेस की प्रतिष्ठित पत्रिका; साहित्यिक उन्नयन |
हंस | बनारस | मासिक | 1930–1936 | स्वयं की पत्रिका; प्रगतिशील आंदोलन का केंद्र |
जागरण | बनारस | साप्ताहिक | 1932–1934 | तात्कालिक विषयों पर निर्भीक टिप्पणी |
अन्य पत्रिकाओं में लेखक के रूप में
◉ ज़माना (कानपुर)
प्रेमचंद की पहली कहानी 'सांसारिक प्रेम और देशप्रेम' 1907 में इसी पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। 'सोज़े-वतन' यहीं छपा और प्रतिबंधित हुआ। ‘प्रेमचंद’ नाम रखने की सलाह भी यहीं से मिली।
◉ चाँद (प्रयाग)
महादेवी वर्मा से जुड़ी इस पत्रिका में उनका उपन्यास 'निर्मला' धारावाहिक रूप में छपा। यह पत्रिका महिला मुद्दों को उठाने में अग्रणी थी।
◉ सरस्वती (इलाहाबाद)
यद्यपि प्रेमचंद इसके नियमित लेखक नहीं थे, परन्तु उनकी हिंदी कहानी 'सौत' (1915) यहीं प्रकाशित हुई।
◉ अन्य पत्रिकाएँ
प्रेमचंद ने 'आवाज़-ए-खल्क', 'स्वदेश', 'विशाल भारत' जैसी पत्रिकाओं में भी लिखा, जिससे उनकी पत्रकारिता की गहराई और विविधता झलकती है।
पत्रकारिता में वैचारिक प्रतिबद्धता की मिसाल
प्रेमचंद की पत्रकारिता उनके साहित्य से अलग नहीं, बल्कि उसकी पूरक रही है। वे केवल सम्पादक नहीं थे, बल्कि एक वैचारिक आंदोलन के अगुवा थे। उन्होंने अपनी पत्रिकाओं के माध्यम से समाज के अंतःकरण को जाग्रत किया। आर्थिक विफलताएँ उनके लिए वैचारिक प्रतिबद्धता की कीमत थीं—और यही पत्रकारिता का उनका सबसे बड़ा आदर्श बन गया।
-रोहित कुमार हैप्पी