लेखक हमेशा यही चाहता है कि उसकी सब रचनाएं सुंदर हों, पर ऐसा होता नहीं। अधिकांश रचनाएं तो यत्न करने पर भी साधारण होकर रह जाती हैं। अच्छे-से-अच्छे लेखकों की रचनाओं में भी थोड़ी सी चीजें अच्छी निकलती हैं। फिर उसमें भी भिन्न-भिन्न रुचि की चीजें होती हैं और पाठक अपनी रुचि की चीज़ों को छांट लेता है और उन्हीं का आदर करता है। हर एक लेखक की हरएक चीज, हरएक आदमी को पसंद आ जाए, ऐसा बहुत कम देखने में आता है।
मेरी प्रकाशित कहानियों की संख्या तीन सौ के लगभग हो गई है। उनके कई संग्रह छप गए हैं, लेकिन आजकल किसके पास इतना समय है कि उन सभी कहानियों को पढ़ सके। अगर हम हर एक लेखक को हरएक चीज पढ़ना चाहें, तो शायद दस-पांच लेखकों में ही हमारी जिंदगी खत्म हो जाए, इसलिए हमारे मित्रों का बहुत दिनों से आग्रह था कि मैं अपना कोई ऐसा संग्रह, निकालूं, जिससे पाठक को मेरी कृतियों का मूल्य निर्धारित करने में सुविधा हो, जिसे मेरी रचनाओं का नमूना कहा जा सके, जिसे पढ़कर लोग जीवन के विषय में मेरी धारणाओं से परिचित हो सके। यह संग्रह इमी उद्देश्य से किया गया है। इसमें मैंने उन्हीं कहानियों का संग्रह किया है, जिन्हें मैं खुद पसंद करता हूं और जिन्हें भिन्न-भिन्न रुचि के आलोचकों ने भी पसंद किया है।
कहानी सदैव से जीवन का एक विशेष अंग रही है। हरएक बालक को अपने बचपन की वो कहानियां याद होंगी जो उसने अपनी माता या बहिन में सुनी थीं। कहानियां सुनने को वह कितना लालायित रहा था, कहानी शुरू होते ही वह किस तरह सब-कुछ भूलकर सुनने में तन्मय हो जाता था, कुत्ते और बिल्लियों की कहानियां सुनकर वह कितना प्रसन्न होता था-इसे शायद वह कभी नहीं भूल सकता। बाल-जीवन की मधुर स्मृतियों में कहानी शायद सबसे मधुर है। वह खिलौने और मिठाइयां और तमाशे सब भूल गए, पर वह कहानियां अभी तक याद हैं और उन्हीं कहानियों को आज उसके मुंह में उसके बालक उसी नृष गौर उत्सुकता से सुनते होंगे। मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी लालसा यह है कि वह एक कहानी बन जाए और उसकी कीर्ति हरएक जबान पर हो।
कहानियों का जन्म तो उसी समय से हुआ, जब आदमी ने बोलना सीखा, लेकिन प्राचीन कथा-साहित्य का हमें जो कुछ ज्ञान है, वह 'कथा-सरित्सागर', 'ईसप की कहानियां और 'अलिफ लैला' आदि पुस्तकों से हुआ है। यह उस समय के साहित्य के उज्ज्वल रत्न हैं। उनका मुख्य लक्षण उनका कथा-वैचित्र्य था। मानव-हृदय को वैचित्र्य से सदैव प्रेम रहा है। अनोखी घटनाओं और प्रसंगों को सुनकर हम अपने बाप-दादों की भाति ही प्रसन्न होते हैं। हमारा ख्याल है कि जन-रुचि जितनी आसनी से अलिफ लैला की कथाओं का आनंद उठाती है, उतनी आसानी से नवीन उपन्यासों का आनंद नहीं उठा सकती और अगर काउंट टाल्सटाय के कथनानुसार जनप्रियता ही कला का आदर्श मान लिया जाए, तो अलिफ़लैला के समाने स्वयं टाल्स्टाय के 'वार एण्ड पीस' और ह्यूगो के 'ला मिज़रेबल' की कोई गिनती नहीं। इस सिद्धांत के अनुसार हमारी राग-रागिनियां, हमारी सुंदर चित्रकारियां और कला के अनेक रूप, जिन पर मानव जाति को गर्व है, कला के क्षेत्र से बाहर हो जाएंगे। जनरुचि तरज और विहाग की अपेक्षा बिरहे और दादरे को ज्यादा पसंद करती है। बिरहों और ग्राम गीतों में बहुधा बड़े ऊंचे दर्जे की कविता होती है, फिर भी यह कहना असत्य नहीं कि विद्वानों और आचार्यों ने कला के विकास के लिए जो मर्यादाएं बना दी हैं, उनसे कला का रूप अधिक सुंदर और संयत हो गया है। प्रकृति में जो कला है वह प्रकृति की है, मनुष्य की नहीं। मनुष्य को तो वहाँ कला मोहित करती है, जिस पर मनुष्य की आत्मा की छाप हो, जो गीली मिट्टी की भांति मानव-हृदय के सांचे में पककर संस्कृत हो गई हो। प्रकृति का सौंदर्य हमें अपने विस्तार और वैभव से पराभूत कर देता है। उसमें हमें आध्यात्मिक उल्लास मिलता है, पर वही दृश्य जब मनुष्य की तूलिका, रंगों और मनोभावों से रंजित होकर हमारे सामने आता है, तो वह जैसे हमारा अपना हो जाता है। उसमें हमें आत्मीयता का संदेश मिलता है।
लेकिन भोजन जहां थोड़े से मसाले से अधिक रुचिकर हो जाता है, वहां यह भी आवश्यक है कि मसाले मात्रा से बढ़ने न पायें। जिस तरह मसालों के बाहुल्य से भोजन का स्वाद और उपयोगिता और कम हो जाती है, उसो भाति साहित्य भी अलंकारों के दुरुपयोग से विकृत हो जाता है। जो कुछ स्वाभाविक है, वही सत्य है। स्वाभाविकता से दूर होकर कला अपना आनंद खो देती है और समझने वाले थोड़े से कलाविद् ही रह जाते हैं, उसमें जनता के मर्म को स्पर्श करने की शक्ति नहीं रह जाती।
पुरानी कथा-कहानियां अपने घटना वैचित्र्य के कारण मनोरंजक तो हैं, पर उनमें उस रस की कमी है जो शिक्षित रुचि साहित्य में खोजती है। अब हमारी साहित्यिक रुचि कुछ परिष्कृत हो गई है। हम हरएक विषय की भांति साहित्य में भी बौद्धिकता को तलाश करते हैं। अब हम किसी राजा की अलौकिक वीरता या रानी के हवा में उड़कर राजा के पास पहुंचने में या भूत-प्रेतों के काल्पनिक चरित्रों को देखकर प्रसन्न नहीं होते। हम उन्हें यथार्थ के कांटे पर तोलते हैं और उसे जौं-भर भी इधर-उधर नहीं देखना चाहते। आज के उपन्यासों और आख्यायिकाओं में अस्वाभाविक बातों के लिए गुंजाइश नहीं है। उनमें हम अपने जीवन का ही प्रतिबिंब देखना चाहते हैं। उसके एक-एक वाक्य को, एक-एक पात्र को, यथार्थ के रूप में देखना चाहते हैं। उनमें जो कुछ भी हो, वह इस तरह लिखा जाए कि साधारण बुद्धि उसे यथार्थ समझे। घटना, वर्तमान कहानी या उपन्यास का मुख्य अंग नहीं है। उपन्यासों में पात्रों का केवल बाह्य रूप देखकर हम संतुष्ट नहीं होते। हम उनके मनोगत भावों तक पहुंचना चाहते हैं, और जो लेखक मानव-हृदय के रहस्यों को खोजने में सफल होता है, उसी की रचना सफल समझी जाती है। हम केवल इतने ही में संतुष्ट नहीं होते कि अमुक व्यक्ति ने अमुक काम किया। हम देखना चाहने हैं कि किन मनोभावों से प्रेरित होकर उसने वह काम किया, अतएव मानसिक द्वंद वर्तमान उपन्यास या गल्प के खास अंग हैं।
प्राचीन कलाओं में लेखक बिल्कुल नेपथ्य में छिपा रहता था। हम उसके विषय में उतना ही जानने थे, जितना वह अपने को अपने पात्रों के मुख से व्यक्त करता था। जीवन पर उसके क्या चिचार हैं, भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में उसके मनोभावों में क्या परिवर्तन होते हैं, इसका हमें कुछ पता न चलता था, लेकिन आजकल उपन्यासों में हमें लेखक के दृष्टिकोण का भी स्थूल-स्थल पर परिचय मिलता रहता है। हम उसके मनोगत विचारों और भावों द्वारा उसका रूप देखते रहते हैं और ये भाव जितने व्यापक और गहरे अनुभवपूर्ण होते हैं, उतनी ही लेखक के प्रति हमारे मन में श्रद्धा उत्पन्न होती है। यों कहना चाहिए कि वर्तमान आख्यायिका या उपन्यास का आधार ही मनोविज्ञान है। घटनाएं और पात्र तो उसी मनोवैज्ञानिक सत्य को स्थिर करने के निमित्त ही लाए जाते हैं। उनका स्थान बिलकुल गौण है। उदाहरणतः इस संग्रह में 'सुजान भगत' 'मुक्ति मार्ग', 'पंच-परमेश्वर', 'शतरंज के खिलाड़ी' और 'महातीर्थ' सभी में एक-न-एक मनोवैज्ञानिक रहस्य को खोलने की चेष्टा की गई है।
यह तो सभी जानते हैं कि आख्यायिका का प्रधान धर्म मनोरंजन है, पर साहित्यिक मनोरंजन वह है जिससे हमारी कोमल और पवित्र भावनाओं को प्रोत्साहन मिले-हसमें सत्य, निःस्वार्थ सेवा, न्याय आदि देवत्व के अंश हैं, वह जाग्रत हों। कला में मानवीय आत्मा की वह चेष्टा है जो उसके मन में अपने आपको पूर्ण देखने की होती है। अभिव्यक्ति मानव-हृदय का स्वाभाविक गुण है। मनुष्य जिम समाज में रहता है, उसमें मिलकर रहता है। जिन मनोभावों से वह अपने मेल के क्षेत्र को बढ़ा सकता है, अर्थात् जीवन के अनंत प्रवाह में सम्मिलित हो सकता है, वही सत्य है। जो वस्तुएं भावनाओं के इस प्रवाह में बाधक होती हैं, वे सर्वथा अस्वाभाविक हैं। पर ये स्वार्थ, अहंकार और ईष्या की बाधाएं न हो तो हमारी आत्मा के विकास को शक्ति कहां में मिलती? शक्ति तो संघर्ष में है। हमारा मन इन बाधाओं को परास्त करके अपने स्वाभाविक कर्म को प्राप्त करने की सदैव चेष्टा करता रहता है। इसी संघर्ष से साहित्य की उत्पत्ति होती है। यही साहित्य की उपयोगिता भी है। साहित्य में कहानी का स्थान इसीलिए ऊंचा है कि वह एक क्षण में ही बिना किसी घुमाव फिराव के आत्मा के किसी-न-किसी भाव को प्रकट कर देती है, आत्मा की ज्योति की आंशिक झलक दिखा देती है। और चाहे थोड़ी हो मात्रा में क्यों न हो, वह हमारे परिचय का, दूसरों में अपने को देखने का, दूसरों के हर्ष को, शोक को अपना बना लेने का, क्षेत्र बढ़ा देती है।
हिन्दी में इस नवीन शैली की कहानियों का प्रचार अभी थोड़े ही दिनों में हुआ है, पर इन थोड़े हो दिनों में इसने साहित्य के अन्य सभी अंगों पर अपना सिक्का जमा लिया है। किसी पत्र को उठा लीजिए, उसमें कहानियों की ही प्रधानता होगी। हां, जो पत्र किसी विशेष नीति या उद्देश्य से निकाले जाते हैं, उसमें कहानियों का स्थान नहीं रहता। जब डाकिया कोई पत्रिका लाता है, तो हम सबसे पहले उसकी कहानिययां पढ़ना शुरू करते हैं। इनसे हमारी वह क्षुधा तो नहीं मिटती जो इच्छापूर्ण भोजन चाहती है, पर फलों और मिठाइयों की जो क्षुधा हमें सदैव बनी रहती है, वह अवश्य कहानियों से लुप्त हो जाती है। हमारा खयाल है कि कहानियों ने अपने सार्वभौम आकर्षण के कारण संसार के प्राणियों को एक दूसरे के जितना निकट कर दिया है, उनमें जो एकात्मभाव उत्पन्न कर दिया है, उतना और किसी चीज ने नहीं किया। हम आस्ट्रेलिया का गेहूं खाकर, चीन की चाय पीकर, अमेरिका की मोटरों पर बैठकर भी उनको उत्पन्न करने वाले प्राणियों से बिलकुल अपरिचित रहते हैं, लेकिन मोपासां, अनातोले फ्रांस, चेखब और टाल्सटाय की कहानियां पढ़कर हमने फ्रांस और रूस से आत्मिक संबंध स्थापित कर लिया है। हमारे परिचय का क्षेत्र सागरों, द्वीपों और पहाड़ों को लांघता हुआ फ्रांस और रूस तक विस्तृत हो गया है। हम वहां भी अपनी ही आत्मा का प्रकाश देखने लगते हैं। वहां के किसान, मजदूर और विद्यार्थी हमें ऐसे लगते हैं, मानो उनसे हमाग घनिष्ठ परिचय हो।
हिन्दी में 20-25 साल पहले गल्पों की कोई चर्चा न थी। कभी-कभी बंगला या अंग्रेजी कहानियों के अनुवाद छप जाते थे। आज कोई ऐसा पत्र नहीं, जिसमें दो-चार कहानियां प्रतिमास न छपती हों। कहानियों के अच्छे-अच्छे संग्रह निकलते जा रहे हैं। अभी बहुत दिन नहीं हुए कि कहानियों का पढ़ना समय का दुरुपयोग समझा जाता था। बचपन में हम कभी कोई किस्सा पढ़ते पकड़ लिए जाते थे तो कड़ी डांट पड़ती थी। यह खयाल किया जाता था कि किस्सों से चरित्र भ्रष्ट हो जाता है और उन 'फ़िसाना-अजायब' और 'शुकबहत्तरी' और 'तोता मैना' के दिनों में ऐसा खयाल होना स्वाभाविक ही था। उस वक्त कहानियां कहीं स्कूली पाठ्यक्रम में रख दी जातीं, तो शायद पिताओं का एक डेपुटेशन इसके विरोध में शिक्षा विभाग के अध्यक्ष की सेवा में पहुंचता। आज छोटे-बड़े सभी क्लासों में कहानियां पढ़ाई जाती हैं और परीक्षाओं में उन पर प्रश्न किए जाते हैं। यह मान लिया जाता है कि सांस्कृतिक विकास के लिए सरस साहित्य से उत्तम कोई साधन नहीं है। अब लोग यह भी स्वीकार करने लगे हैं कि कहानी कोरी गल्प नहीं है, और उसे मिथ्या समझना भूल है। आज से दो हजार वर्ष पहले यूनान के विख्यात फिलासफर अफलातून ने कहा था कि हर एक काल्पनिक रचना में भी मौलिक सत्य मौजूद रहता है। 'रामायण', 'महाभारत' आज उतने ही सत्य हैं, जितने आज से पांच हजार साल पहले थे, हालांकि इतिहास, विज्ञान और दर्शन में सदैव परिवर्तन और परिवर्द्धन होते रहते हैं। कितने ही सिद्धांत जो एक जमाने में सत्य समझे जाते थे, आज असत्य सिद्ध हो गए हैं। पर कथाएं आज भी उतनी ही सत्य हैं, क्योंकि उनका संबंध मनोभावों से है और मनोभावों में कभी परिवर्तन नहीं होता। किसी ने बहुत ठीक कहा है कि "कथा में नाम और सन् के सिवा सब-कुछ सत्य है और इतिहास में नाम और सन् के सिवा कुछ भी सत्य नहीं। गल्पकार अपनी रचनाओं को जिस सांचे में चाहे ढाल सकता है, किंतु किसी दशा में भी वह उस महान् सत्य की अवहेलना नहीं कर सकता जो जीवन-सत्य कहलाता है।
-प्रेमचंद
[प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां की भूमिका -- अगस्त, 1933 (प्रथम संस्करण सितंबर, 1934) में प्रकाशित प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य' भाग-2 में संकलित]