ख़ास कहानी | संस्मरण

रचनाकार: अमृतराय

सन् 35 के दिनों की बात है। मैंने तब साल डेढ़ साल पहले से लिखना शुरू ही किया था। मैं तब इलाहाबाद में रहता था। हाईस्कूल में पढ़ता था और प्रेमचंद बम्बई से लौटकर बनारस आ गए थे। 

मैंने अपनी एक कहानी पिताजी के पास उनकी राय और इसलाह के लिए भेजी। यह कहानी कुछ ऐसी थी जिसमे करुणरस की स्रोतस्विनी बहाने के उद्देश्य से मैंने अपने सभी प्रधान पत्रों को मौत के घाट उतार दिया था। मत्यु से अधिक करुण तो कोई चीज होती नही अगर करुणरस का पूर्ण परिपाक करना है तो कहानी में दो-चार मौतें तो होनी ही चाहिए।  लिहाजा नायक-नायिका सब मर गए। पिताजी ने कहानी पढ़कर बडे दोस्ताना अंदाज़ में मुझ लिखा कि कहानी तो अच्छी है--बस एक बात है कि इननी मौतें न हों हो अच्छा, क्योंकि ऐसी कहानियाँ कमजोर मानी जाती हैं जिनमें ज्यादा मौतें होती हैं। बाकी सब बहुत ठीक है। 

बाकी उसमें था है क्या? निरी बचकानी कहानी थी। लेकिन मैंने बहुत सुपीरियर अंदाज़ में उनको जवाब लिखा कि हाँ जो बात तुम लिखते हो--हम लोग पिताजी को तुम कहते थे 'आप’ नहीं,  आप में पता नहीं कितनी दूरी का आभास था—हाँ तो जो बात तुम लिखते हो वह आमतौर पर सही हो सक्नी है लेकिन जहां तक इस खास कहानी का ताल्लुक है इसमें तो इन मौतों का होना अनिवार्य है। इसी किस्म की कोई बात मैंने लिख दी जिसके बाद वे चुप हो रहे।  बेकारे और करते भी क्या? 

इस घटना का उल्लेख मैंने यह बतलाने के लिए नहीं किया कि मैं कितना गया था या हूँ बल्कि इसलिए कि आपको मालूम हो कि छोटे से छोटे लेखक से भी वे बराबरी की सतह पर उतरकर बात करते थे। हिमालय की ऊंचाई से बात करना उन्हें आता ही नहीं था। वे तो आपके होकर घुल-मिलकर ही आपसे बात कर सकते थे। इसलिए छोटे से छोटे आदमी को भी उनसे बराबरी से बात करने की जुरअत हो जाती थी और जब यह स्थिति होती है तभी आदमी सीखता भी है। प्रेमचंद एक गहरे दोस्त की तरह साथी की तरह नये लेखक के हाथ में हाथ देकर उसे अच्छा लिखना आगे बढ़ना सिखलाते थे और मुक्त हृदय से नये लेखक की प्रशंसा करते थे जिससे उसका उत्साह बढ़ता था। मेरे जीवन का तो यह कठोरतम दुर्भाग्य है कि जब मैं उनसे कुछ सीखने के काबिल हुआ तभी व मुझसे अलग हो गए।

-अमृतराय
[अमृतराय के संस्मरण ‘मेरा बाप’ से]

*अमृतराय (3 सितंबर, 1921-14 अगस्त, 1996) प्रेमचंद के छोटे बेटे थे जो स्वयं प्रतिष्ठित कथाकार और उपन्यासकार थे।