हो गया पूर्ण अज्ञात वास, 
पांडव लौटे वन से सहास, 
पावक में कनक-सदृश तप कर, 
वीरत्व लिये कुछ और प्रखर,
  नस-नस में तेज-प्रवाह लिये, 
 कुछ और नया उत्साह लिये।
सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
सूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
  विघ्नों को गले लगाते हैं,
  काँटों में राह बनाते हैं।
मुख से न कभी उफ़ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग-निरत नित रहते हैं,
 शूलों का मूल नशाने को,
 बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके आदमी के मग में?
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर
पर्वत के जाते पाँव उखड़,
  मानव जब जोर लगाता है,
  पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर,
हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेहँदी में जैसे लाली हो,
वर्तिका-बीच उजियाली हो,
  बत्ती जो नहीं जलाता है,
  रोशनी नहीं वह पाता है।
पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड,
झरती रस की धारा अखण्ड,
मेंहदी जब सहती है प्रहार,
बनती ललनाओं का सिंगार।
  जब फूल पिरोये जाते हैं,
  हम उनको गले लगाते हैं।
वसुधा का नेता कौन हुआ?
भूखंड-विजेता कौन हुआ?
अतुलित यश-क्रेता कौन हुआ?
नव-धर्म-प्रणेता कौन हुआ?
  जिसने न कभी आराम किया,
  विघ्नों में रहकर नाम किया।
जब विघ्न सामने आते हैं,
सोते से हमें जगाते हैं,
मन को मरोड़ते हैं पल-पल,
तन को झँझोरते हैं पल-पल।
  सत्पथ की ओर लगाकर ही,
  जाते हैं हमें जगाकर ही।
वाटिका और वन एक नहीं,
आराम और रण एक नहीं।
वर्षा, अंधड़, आतप अखंड,
नरता के हैं साधन प्रचंड।
  वन में प्रसून तो खिलते हैं,
  बागों में शाल न मिलते हैं।
कंकड़ियाँ जिनकी सेज सुघर,
छाया देता केवल अंबर,
विपदाएँ दूध पिलाती हैं,
लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।
  जो लाक्षा-गृह में जलते हैं,
  वे ही शूरमा निकलते हैं।
बढ़कर विपत्तियों पर छा जा,
मेरे किशोर! मेरे ताजा!
जीवन का रस छन जाने दे,
तन को पत्थर बन जाने दे।
  तू स्वयं तेज भयकारी है,
  क्या कर सकती चिनगारी है?
वर्षों तक वन में घूम-घूम, 
बाधा -विघ्नों को चूम-चूम, 
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, 
पांडव आये कुछ और निखर।
  सौभाग्य न सब दिन सोता है, 
  देखें, आगे क्या होता है।
मैत्री की राहं बताने को, 
सबको सुमार्ग पर लाने को, 
दुर्योधन को समझाने को, 
भीषण विध्वंस बचाने को,
  भगवान हस्तिनापुर आये,
  पांडव का संदेशा  लाये।
दो न्याय अगर तो आधा दो, 
पर, इसमें भी यदि बाधा हो, 
तो दे दो केवल पाँच ग्राम, 
रक्खो अपनी धरती तमाम।
  हम वही खुशी से खायेंगे, 
  परिजन पर असि न उठायेंगे।
दुर्योधन वह भी दे न सका, 
आशिष समाज की ले न सका, 
उलटे, हरि को बाँधने चला, 
जो था असाध्य, साधने चला।
  जब नाश मनुज पर छाता है, 
  पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुंकार किया, 
अपना स्वरूप-विस्तार किया, 
डगमग-डगमग दिग्गज डोले, 
भगवान कुपित होकर बोले--
  "जंजीर बढ़ा कर साध मुझे, 
   हाँ-हाँ, दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है, 
यह देख, पवन मुझमें लय है, 
मुझमें विलीन झंकार सकल, 
मुझमें लय हैं संसार सकल।
 अमरत्व फूलता मुझमें, 
  संहार भूलता है मुझमें।
उद्याचल मेरा दीप्त भाल, 
भूमंडल वक्षस्थल विशाल, 
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं, 
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
  दिपते जो ग्रह-नक्षत्र-निकर, 
  सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख, 
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख, 
चर-अचर जीव, जग क्षर-अक्षर, 
नश्वर मनुष्य, सुरजाति अमर,
  शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र, 
  शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र;
शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश, 
शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश, 
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल, 
शत कोटि दंडधर लोकपाल।
  जंजीर बढ़ाकर साध इन्हें!
  हाँ-हाँ, दुर्योधन! बाँध इन्हें।
भूलोक, अतल पाताल देख, 
गत और अनागत काल देख, 
यह देख, जगत का आदि-सृजन, 
यह देख, महाभारत का रण;
  मृतकों से पटी हुई भू है, 
  पहचान कहाँ इसमें तू है।
अम्बर में कुन्तल-जाल देख, 
पद के नीचे पाताल देख, 
मुट्ठी, में तीनों काल देख, 
मेरा स्वरूप विकराल देख ।
  सब जन्म मुझी से पाते हैं, 
  फिर लौट मुझी में आते हैं।
जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन, 
साँसों में पाता जन्म पवन, 
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर, 
हँसने लगती है सृष्टि उधर।
          मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
          छा जाता चारों ओर  मरण ।
बाँधने मुझे तो आया है, 
जंजीर बड़ी क्या लाया है? 
यदि मुझे बाँधना चाहे मन, 
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
            सूने को साध न सकता है, 
            वह मुझे बाँध कब सकता है?
हित-वचन नहीं तूने माना, 
मैत्री का मूल्य न पहचाना, 
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ, 
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
            याचना नहीं, अब रण होगा, 
            जीवन - जय या कि मरण होगा।
टकरायेंगे नक्षत्र - निकर, 
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर, 
फण शेषनाग का डोलेगा, 
विकराल काल मुँह खोलेगा ।
             दुर्योधन! रण ऐसा होगा,
             फिर कभी नहीं जैसा होगा।
भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।"
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
दोनों पुकारते थे जय-जय!
-रामधारी सिंह दिनकर
