स्वर के सागर की बस लहर ली है
और अनुभूति को वाणी दी है
मुझ से तू गीत माँगता है क्यों
मैं ने दुकान क्या कोई की है
स्वर सभी तान पर नहीं मिलते
हृदय अभिमान पर नहीं मिलते
पास पैसा है ओर धुन भी है
गीत दूकान पर नहीं मिलते
मंत्र मैं ने लिया है तो अपना
हृदय भी यदि दिया है तो अपना
दूसरे किस लिए करें चिंता
बुरा मैं ने किया है तो अपना
जान कर तू फ़िजूल रोता है
और मुँह आँसुओं से धोता है
जिंदगी है यह कोई खेल नहीं
खेल भी खेल नहीं होता है
प्यार किस चीज़ को कहते हैं लोग
क्या इसी दुनिया में रहते है लोग
कृभी इच्छा है कभी आशा है
तेज धारा है और बहते है लोग
हाल तुम से भी कुछ लिखाऊँ मैं
देखने की कला सिखाऊँ मैं
वे जो गूंगे हैं आँख वाले है
उन की दुनिया तुम्हें दिखाऊँ मैं
-त्रिलोचन