अनसुनी करके तेरी बात, न दे जो कोई तेरा साथ
तो तुही कसकर अपनी कमर अकेला बढ़ चल आगे रे।
अरे ओ पथिक अभागे रे।
अकेला चल, अकेला चल, अकेला ही चल आगे रे॥
देखकर तुझे मिलन की बेर, सभी जो लें अपने मुख फेर
न दो बातें भी कोई करे, सभय हो तेरे आगे रे,
अरे ओ पथिक अभागे रे।
तो अकेला ही तू जी खोल सुरीले मन मुरली के बोल
अकेला गा--अकेला सुन, अरे ओ पथिक अभागे रे
अकेला ही चल आगे रे॥
जायं जो तुझे अकेला छोड़, न देखें मुड़ कर तेरी ओर,
बोझ ले सिर पर जब बढ़ चले गहन पथ में तू आगे रे
अरे ओ पथिक अभागे रे।
तो तुही पथ के कण्टक क्रूर, अकेला कर भय संशय दूर,
पैर के छालों से कर चूर--अरे ओ पथिक अभागे रे,
अकेला हो चल आगे रे।
और सुन तेरी करुण पुकार, अँधेरी पावस निशि में, द्वार
न खोले ही, न दिखावें दीप, न कोई भी जो जागे रे
अरे ओ पथिक अभागे रे।
तो तुही वज्रानल में हाल जलाकर अपना उर-कंकाल
अकेला जलता रह चिरकाल अरे ओ पथिक अभागे रे
अकेला ही चल आगे रे
अकेला चल, अकेला चल, अकेला ही चल आगे रे।
-रबीन्द्रनाथ टैगोर
[भावानुवाद : रघुवंशलाल गुप्त]
*रवीन्द्रनाथ के 'एकला चल; गान का भावानुवाद