दिव्य दोहे

रचनाकार: अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

अपने अपने काम से है सब ही को काम।
मन में रमता क्यों नहीं मेरा रमता राम ॥

गुरु-पग तो पूजे नहीं जी में जंग उमंग।
विद्या क्यों विद्या बने किए अविद्या संग॥

बातें करें आकास की बहक बहक हों मौन।
जो वे बनते संत है तो असंत हैं कौन ॥

अपने पद पर हो खड़े तजें पराई पौर।
रख बल अपनी बाँह का बनें सफल सिरमौर॥

कोई भला न कर सका खल को बहुत खखेड़।
सुंदर फल देते नहीं बुरे फलों के पेड़॥

भले बुरे की ही रही भले बुरे से आस।
काँटे है तन बेधते देते सुमन सुबास॥

जो ना भले है, तो भले कैसे दें फल फूल।
कांटे बोवें क्यों नहीं कांटे भरे बबूल ॥

ऊंचा होकर भी सका तू चल भली न चाल।
चंचल दल तेरे रहें क्यों चलदल सब काल॥

मिले बुरे में कब भले यह कहना है भूल।
काँटों में रहते नहीं क्या गुलाब के फूल॥

आम आम है प्रकृति से और बबूल बबूल।
काँटे ही काँटे रहे रहे फूल ही फूल॥

-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध'