जीवन का एक सुखी दिन लगभग पैंतालीस साल पुरानी रचना है। उस दिन के सुखों में एक ऐसा ही सुख है जिसमें बस कंडक्टर एक रुपए का नोट लेकर पूरी की पूरी रेजगारी वापस कर देता है और टिकट की पुश्त पर ‘इकन्नी' का बकाया नहीं लिखता। जाहिर है कि यह रचना उन दिनों की है जब ‘इकन्नी' भी आदान-प्रदान में एक महत्वपूर्ण सिक्के की भूमिका निभाती थी।
संपादक महोदय ने मुझसे प्रत्याशा की है कि पुनःप्रकाशन के लिए अपनी किसी श्रेष्ठ रचना का चयन कर दूं। मेरी श्रेष्ठ रचनाएं बहुत कम हैं और जो होंगी भी उन पर भरोसा नहीं है। उन्हें दूसरे लोग ही जानते होंगे, मैं उतना विश्वासपूर्वक नहीं। फिर भी, यह रचना चुनने के कुछ कारण हैं। एक तो यही कि यह लंबी नहीं है और पाठक के लिए इसे पढ़ते हुए अधिक समय नष्ट नहीं करना पड़ेगा। दूसरा कारण यह है कि यह रचना मुझे पसंद है। मेरी अपेक्षाकृत कम खराब रचनाओं में से है। तीसरी बात यह है कि अनजाने ही सहज उक्तियों के सहारे सीधी-सादी भाषा में एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति का इसमें जो चरित्र उभरता है वह दिखावट, दम्भ, अपने को अनावश्यक रूप से चतुर मानने की प्रवृत्ति और जीवन की छोटी-छोटी झुंझलाहटों को भुलाकर शहीद बनने की टिपिकल स्थिति है जो मध्यवर्गीय चरित्र की अपनी विशेषता है। यह भी लक्ष्य किए जाने योग्य है कि यह रचना भारत एक बाजारवाद के विकास के बहुत पहले की है और मध्यवर्गीय चरित्र के प्रति जो संकेत दिए गए हैं वही आज अपने विराट स्वरूप में विकसित हो रहे हैं।
रचना का अंत एक स्वल्प बुद्धिजीवी की उस अपरिहार्य परिस्थिति से होता है जिसका कि नाम पागलपन है। फर्क यह है कि यहां हमारा मुख्य पात्र खुद पलायन नहीं करता बल्कि उस उत्सवभाव का आनंद उठाता है कि उसके दूसरे मित्र अगले दिन उसे अकेला छोड़कर पिकनिक पर जाने वाले हैं।
यह तो सरसरी तौर पर मेरी अपनी प्रतिक्रियाएं हैं। पाठक अगर चाहें तो इस रचना में इस तरह की कई और बहुत सी खूबियां खोज सकते हैं। और, अंत में यह निष्कर्ष तो स्पष्ट है ही कि इन सब छोटी-छोटी कृपाओं के लिए ईश्वर को धन्यवाद - गॉड मे बी थैंक फॉर स्माल मर्सीज़।
सवेरे नहा-धोकर मैंने लांड्री से धुलकर आई हुई कमीज और पतलून पहनने को निकाली और ताज्जुब के साथ देखा, उनका कोई भी बटन टूटा नहीं है। तभी एक कोने में रखे हुए जूतों पर निगाह पड़ी, पुरानी आदत के मुताबिक आज के दिन नौकर ने उन पर काली पॉलिश लालवाले ब्रुश से नहीं की थी। जूते पर सही ब्रुश का प्रयोग हुआ था। मन-ही-मन मैंने कहा, यह मेरे जीवन का एक सुखी दिन होगा।
कॉलेज जाने के लिए बस पर चढ़ा और एक रुपए का नोट कंडक्टर के हाथ में दे दिया। जितनी रेजगारी मिलनी थी, उसने वह पूरी-की-पूरी वापस कर दी। टिकट की पुश्त पर इकन्नी का प्रोनोट नहीं लिखा। सीट पर मेरी बगल में कोई महिला नहीं बैठी थी, इसलिए फिल्मी रोमांस की कमज़ोरी से फुर्सत पाकर मैं आराम से पैर फैलाकर बैठ गया। मेरे पड़ोस में एक साहब आज का अखबार पढ़ रहे थे। मुझे उसकी ओर ताकता हुआ पाकर उन्होंने उपरवाला पन्ना मेरी ओर बढ़ा दिया। अखबार में मैंने देखा, न उस दिन किसी विदेशी ने हिन्दुस्तान को तरक्की की सनद दी थी, न प्रधानमंत्री की कोई स्पीच ही आई थी। अब मैं इत्मीनान से बिना ऊबे हुए अखबार पढ़ने लगा।
रेलवे-क्रॉसिंग पर रेलवे के प्वाइंटमैन ने बस को आता हुआ देखकर भी फाटक खुला रहने दिया। बस बिना रुके हुए ऐसी आसानी से फाटक पार कर गई मानो ऐसा रोज ही हुआ करता हो। कॉलेज के पास बस के रुकते ही मैं बिना किसी को धकेले, बिना किसी के घुटनों से टकराए, बिना ‘थैंक्यू' और ‘सॉरी' कहे नीचे उतर आया। स्टैंड पर एक चाटवाला मुझे मिला तो जरूर, पर उसने न तो मेरी ओर देखा ही और न मुझे पुसलाने वाली आवाज़ में गरमागरम चाट की आवाज़ ही लगाई।
दिनभर कॉलेज में बड़ा सुख रहा। लड़कों को यूरोप-यात्रा पर एक सीधा-सादा लेख पढ़ाया। दूसरे दर्जे में सदाचार की महिमा समझाई। न तो उन्हें कोई प्रेम-गीत ही पढ़ाना पड़ा, न किसी हास्य-व्यंग्यपूर्ण उक्ति का अर्थ समझाना पड़ा। खाली घंटे में मेरी कोई भी छात्रा अपनी किसी भाव-प्रधान कहानी या कविता में संशोधन कराने नहीं आई। किसी चापलूस छात्रों ने मेरी किसी असफल रचना की प्रशंसा नहीं की। किसी लेक्चरार ने विद्यार्थियों के सामने मुझे ‘अमां यार' कहकर नहीं पुकारा। मेरे एक प्रतिद्वंद्वी लेक्चरार के कमरे में कुछ विद्यार्थी क्रांति के नारे लगाते बाहर निकल आए। स्टापफ-रूम में प्रिंसिपल के बारे में खूब गंदे-गंदे किस्से, बिना अपनी ओर से कुछ कहे ही, फोकट में सुनने को मिल गए।
शाम को घर वापस आने के पहले एक मित्र एक बड़े रेस्तरां में चाय पिलाने ले गए, पर बातें उन्होंने मुझे ही करने दीं। खुद ज्यादातर चुप रहे। रेस्तरां के सामने रिक्शेवाले को पैसे देने के लिए मैंने अपनी जेबें टटोलीं, मेरी जेब से दस रुपए का नोट निकला, पर मित्र की जेब से पहले ही एक अठन्नी निकल आई। रेस्तरां के भीतर भी मुझे कोई उलझन नहीं हुई। वेटर का हुलिया बड़े लंबे-चौड़े रोबदार बुजुर्ग का न था। वह दुबला-पतला था और नौसिखिया-सा दिखता था। पड़ोस की मेजों पर न कुछ मसखरे नौजवान थे, न फैशनेबल लड़कियां थीं, न हंसी के ठहाके थे, न कोई मुझे घूर रहा था, न कोई मेरे बारे में कानाफूसी कर रहा था। रेस्तरां में भीड़ न थी पर इतने लोग थे कि काउंटर के पीछे से मैनेजर सिर्फ हमीं को नहीं, औरों को भी देख रहा था। हमारे चलने के पहले पास की मेज पर दो गंभीर चेहरे वाले आदमी आ गए और जब मैंने आपसी बातचीत में ‘एक्ज़िस्टेंशिएलिज्म' का अनावश्यक जिक्र किया, तब उन लोगों ने निगाह उठाकर मेरी ओर देखा था। रेस्तरां के बाहर आने पर मेरा एक परिचित बीमा-एजेंट सड़क के दूसरी ओर जाता हुआ दीख पड़ा, पर उसने मुझे देखा नहीं। इसके बाद अचानक ही मुझे तीन परिचित आदमी मिल गए। उन्होंने नमस्कार किया और उसका जवाब पाया। मेरे मित्र को कोई परिचित आदमी नहीं मिला।
घर वापस आकर मैंने श्रीमती जी से सिनेमा चलने का प्रस्ताव किया पर उन्होंने क्षमा मांगी और कहा कि उन्हें लेडीज़ क्लब जाना है। इसलिए मैं पूर्व निश्चय के अनुसार अपने एक मित्र के साथ सिनेमा देखने चला गया। सिनेमा का टिकट खिड़की पर ही मिला और असली कीमत पर मिला। पंखे के नीचे सीट मिल गई। सिनेमा शुरू होने के पहले साबुन, तेल और वनस्पति घी के विज्ञापनवाली फिल्में नहीं दिखाई गईं। पास की सीट से किसी ने सिगरेट के धुएं की फूंक मेरे मुंह पर नहीं मारी। पीछे बैठनेवालों में किसी ने अपने पैर मेरी सीट पर नहीं टेके। अंधेरे में किसी ने मेरा अंगूठा नहीं कुचला। हीरो की मुसीबत पर किसी पड़ोसी ने सिसकारी नहीं भरी। हिंदी की फिल्म थी, फिर भी वह अठारह रील पूरी करने के पहले ही खत्म हो गई। सिनेमा से बाहर आने पर कई रिक्शेवालों ने मिलकर मुझ पर हमला नहीं किया। रिक्शा करने पर मजबूर हुए बिना ही मैं पैदल वापस लौट आया। रात में सुनसान सड़क पर मेरे पैदल चलने पर भी कोई साइकिलवाला मुझसे नहीं टकराया, किसी मोटरवाले ने मुझे गाली नहीं दी, किसी पुलिसवाले ने मेरा चालान नहीं किया।
घर आकर खाना खाने बैठा तो उस वक़्त रुपए की कमी पर कोई घरेलू बातचीत नहीं हुई। नौकर पर गुस्सा नहीं आया। बातचीत के दौरान मैं श्रीमतीजी से साहित्य-चर्चा करता रहा, यानी अपने साथ के साहित्यकारों को कोसता रहा। वे दिलचस्पी से मेरी बातें सुनती रहीं और मेरे टुच्चेपन को नहीं भांप पाईं।
घर के चारों ओर शांति थी। किसी भी कमरे में बिना मतलब बल्ब नहीं जल रहा था, न बिना वजह किसी नल का पानी बह रहा था, न दरवाज़े पर कोई मेहमान पुकार रहा था, न रसोईघर में किसी प्लेट के टूटने की आवाज़ हो रही थी, न रेडियो पर कोई कवि सम्मेलन आ रहा था, न पड़ोस में लाउडस्पीकर लगाकर कीर्तन हो रहा था। और सबसे बड़ी बात यह कि कल आनेवाला दिन इतवार था, उस दिन मेरे सभी उत्साही मित्र शहर से कहीं दूर, पिकनिक पर चले जाने वाले थे।
[ मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं, ज्ञान भारती प्रकाशन, दिल्ली]