प्रेमचन्दजी का स्मारक | माधुरी, दिसंबर 1936

रचनाकार: भारत-दर्शन संकलन

माधुरी (दिसंबर, 1936) के स्थायी स्तम्भ हमारा दृष्टिकोण के अंतर्गत प्रेमचंद के बारें प्रकाशित निम्नलिखित सामग्री प्रकाशित हुई--

प्रेमचन्दजी का स्मारक

बाबू प्रेमचन्दजी के स्वर्गवास से हिन्दी-संसार का एक रत्न और भारत का एक सच्चा मनुष्य नहीं रहा, इसमें कुछ भी संदेह नहीं। बाबूजी एक प्रवीण साहित्यिक ही नहीं, एक आदर्श पुरुष भी थे। वह हृदय में कपट रखना जानते ही नहीं थे।

इन पंक्तियों के लेखक को वर्षों साथ रहकर उन्हें पहचानने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, और इसी आधार पर वह कह सकता है कि बाबूजी के समान "मनुष्य" इस ज़माने में विरले ही होते हैं। उनके वियोग का आघात अवश्य ही हिन्दी-संसार के लिए असह्य है। पर काल से किसी का वश नहीं चलता। हमें विवश होकर इष्ट से इष्ट का वियोग बरदाश्त करना पड़ता है। बाबूजी समाज, देश और मातृ-भाषा के प्रति अपने कर्तव्य का पालन कर गये अब हमें उनके प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन करना चाहिए। उनके जीवन में हमने उनके प्रति कितना कर्त्तव्य पालन किया, इस परपश्चात्ताप या विवाद करना भी व्यर्थ ही है।

श्रीयुत जैनेन्द्रजी ने बाबूजी के स्मारक के बारे में एक अपील निकाली है। बाबूजी का स्मारक अवश्य स्थापित करना चाहिए। इस सम्बन्ध में दो रायें नहीं हो सकतीं। पर उस स्मारक का रूप क्या हो, यह अवश्य विचारणीय है। नागरी-प्रचारिणी सभा काशी और हिन्दी साहित्य-सम्मेलन को इस स्मारक की व्यवस्था में अग्रसर होना चाहिए। आदरणीया शिवरानी देवीजी (प्रेमचन्द जी की धर्मपत्नी) ने लोगों की दी हुई व्यक्तिगत आर्थिक सहायता को अस्वीकार करके जिस उदात्त भाव का परिचय दिया है, वह प्रेमचन्द की धर्म-पत्नी के अनुरूप ही है। हमारी राय है कि प्रेमचन्दजी का एक स्मारक तो "हंस" पत्र है। इसके लिए वह अन्तिम क्षण तक उद्योग करते रहे हैं। इसलिए सर्वसाधारण जनता तो हंस की ग्राहकश्रेणी में नाम लिखाकर उनके स्मारक में सहायता पहुँचा सकती है। दूसरा स्मारक एक प्रकाशन संस्था का खोला जाना ठीक होगा। उससे प्रेमचन्दजी की ग्रंथावली के अलावा सभी प्रसिद्ध हिन्दी-लेखकों की ग्रंथावलियाँ (सस्ते संस्करण के रूप में) निकाली जायें। यह एक लिमिटेड संस्था हो। इसके हिस्से देश के धनी-मानी सज्जन खरीदें। धन का परिमाण एक लाख रुपये से कम न हो। स्मारक के और भी रूप हो सकते हैं। इसका निर्णय शीघ्र ही हो जाना चाहिए।

[यह माधुरी (दिसंबर, 1936) के स्थायी स्तम्भ हमारा दृष्टिकोण के अंतर्गत प्रकाशित हुआ था और उस समय माधरी के संपादक रूपनारायण पांडेय थे। सनद रहे, प्रेमचंदजी ने इस पत्रिका का 1922-24 तक सम्पादन किया था।]