स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव की बेला में स्वतंत्रता के संग्राम में साहसिक योगदान देने वाले महानायकों का स्मरण हो रहा है। जो निश्चित ही वंदनीय और अभिनंदनीय कदम है, लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या इन महानायकों का स्मरण कोई कहे तब ही करना चाहिए? ऐसा करना निश्चित ही हमारे समाज को उस राष्ट्रीय अवधारणा से दूर करने का प्रयास करता है, जो पतन का बड़ा कारण है। आज हमारे समाज का बहुत बड़ा वर्ग इन महानायकों के चरित्र की कोई जानकारी नहीं रखता। इसलिए हमें यह भी नहीं पता कि आज हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं, उसके पीछे कितना संघर्ष करना पड़ा है। इन महानायकों ने अंग्रेजों के साथ प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से लोहा लिया। ऐसे राष्ट्रनायकों में से कई तो ऐसे हैं, जो संघर्ष करते हुए बलिदान हो गए। सोचने का विषय यह है कि आखिर इन्होंने किसके लिए संघर्ष किया, क्या अपने लिए? नहीं... इस भारत देश के लिए किया। उन्होंने भारत के समाज के लिए किया।
भारत के साथ गहरा तादात्म्य और अनुराग रखने वाले जितने भी राष्ट्र भक्त थे, उनकी लेखनी जनजागरण करने वाली ही होती थी। देश में उस समय के साहित्यकारों का जो दायित्व था, उसको साहित्यकारों ने बखूबी निभाया। ऐसे ही एक महान साहित्यकार जयशंकर प्रसाद जी हैं। उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीय संस्कारों का जो प्रवाह पैदा किया, उसने भारत के नागरिकों के मन में राष्ट्रीयता की अलख जगाई। हालांकि उनका लेखन केवल स्वतंत्रता चाहने तक सीमित है, ऐसा नहीं माना जा सकता। प्रसाद जी का साहित्य भारत की परिधि में आने वाले हर उस बात को अपनाने पर जोर देती थी, जो एक मजबूत राष्ट्र के लिए आवश्यक होती हैं। जयशंकर प्रसाद के साहित्य में राष्ट्रीय समग्रता का दर्शन परिलक्षित होता था। जयशंकर प्रसाद मूलत: छायावादी साहित्यकार थे। उनके छायावादी साहित्य में भी राष्ट्र जागरण करने का अपरिमित सामथ्र्य था। जयशंकर प्रसाद ने अपने नाटकों के माध्यम से जनमानस में जिस राष्ट्रीय भावना का संचार किया था, वह अतुलनीय है। उनके ऐतिहासिक नाटकों ने जनसामान्य को नवजागरण के लिए प्रेरित किया, जिसमें उन्होंने अतीत के गौरव को जन सामान्य के समक्ष रखा। उन्होंने अपने साहित्य की रचना करके समाज के सामने यह बताने का सफल प्रयास किया कि हमारे पूर्वज किस प्रकार के गौरवशाली थे, हमारा इतिहास कितना गौरवशाली था। उनकी सभी रचनाएं भारत बोध कराने वाली प्रतिनिधि रचनाएं रहीं। जिसमें एक नवीन भारत, एक सुसंस्कृत भारत, एक गौरवशाली भारत का स्वरूप दृष्टव्य होता था।
जयशंकर प्रसाद अपने छायावादी काव्य के माध्यम से भारत के स्व को जगाने का कार्य करते दिखाई दिए। यह उनकी रचनाओं का वैशिष्टय है। जो भारत के सांस्कृतिक अभीष्ठ को अधिष्ठित करने का सामथ्र्य रखता था। उनके एक-एक शब्द में राष्ट्रीय ध्वनि गुंजित होती है। वे राष्ट्र के सांस्कृतिक स्वरूप को ध्यान में रखते हुए समाज को स्वतंत्रता की पुकार देते हैं।
जयशंकर प्रसाद जी की राष्ट्रीय चेतना का स्वर सुगठित है, सुकोमल है और प्रच्छन्न भी है। वे अपने काव्य के माध्यम से भारत के वैशिष्टय को ही प्रदर्शित करते हैं। यहां राष्ट्रीय जागरण ने सांस्कृतिक जागरण का रूप धारण कर लिया है। इस सांस्कृतिक जागरण की अभिव्यक्ति 'प्रथम प्रभात', 'अब जागो जीवन के प्रभात', 'बीती विभावरी जाग री' आदि रचनाओं के अध्ययन से स्पष्ट हो जाती है। प्रसाद जी की राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति शैली अभिधात्मक नहीं है, बल्कि यह अप्रत्यक्ष है, व्यंजना पर आधारित है - यह स्वच्छन्दतावाद की मूल चेतना से अभिन्न है––
अब जागो जीवन के प्रभात,
वसुधा पर ओस बने बिखरे,
हिमकन आंसू जो क्षोभ भरे,
ऊषा बटोरती अरुण गात।
प्रसाद जी के साहित्य में संकुचित राष्ट्रीयता नहीं है। बहुत व्यापक है। यह विश्व के किसी भी देश की सीमा से बंधा हुआ नहीं है। बल्कि यह कहा जाए कि इसमें वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा को आत्मसात करते हुए विश्व मंगल की कामना है।
'बीती विभावरी जाग री!
तू अब तक सोई है आली
आंखों में भरे विहाग री!
इन पंक्तियों द्वारा प्रसाद जी राष्ट्र को जागरण का संदेश देते हैं। साहित्यकार आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी का कहना है, 'बीती विभावरी जाग री' शीर्षक जागरण गीत प्रसाद जी के संपूर्ण काव्य प्रयास के साथ उनकी युग-चेतना का परिचायक प्रतिनिधि गीत कहा जा सकता है।' राष्ट्रीय चेतना का स्थूल रूप उनके नाटकों के गीतों, 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' और 'हिमाद्रि तुंग श्रृंग से' में मिलता है। नाटकों के माध्यम से उन्होंने राष्ट्रीय चेतना का प्रसार किया। और जब वे कहते हैं––
इस पथ का उद्देश्य नहीं है श्रांत भवन में टिक रहना,
किंतु पहुंचना उस सीमा पर जिसके आगे राह नहीं।
इन पंक्तियों के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना के जागरण के साथ ही विश्व को सदैव चलते रहने का संदेश देते हैं। जयशंकर प्रसाद ने जहां एक ओर समाज की कमियों को उजागर किया है, वहीं समाज को इस प्रकार से झकझोरा है कि सोया हुआ व्यक्ति भी उठकर खड़ा हो जाए और अपने गंतव्य की ओर अग्रसर हो जाए। यही उनके साहित्य की विशेषता है। 'कामायनी' संकुचित राष्ट्रवाद से ऊपर उठकर विश्वमंगल वाली रचना है। वह संपूर्ण मानवजाति की समरूपता का सिद्धांत अपनाकर आनंद लोक की यात्रा का संदेश देती है––
समरस थे जड़ और चेतन, सुंदर आकार बना था
चेतना एक विलसती, आनंद अखंड घना था।
विश्व भर सौरभ से भर जाए, सुमन के खेलो सुंदर खेल।
'कामायनी' की मिथकीय सीमाओं में भी कर्म चेतना, संघर्ष चेतना, एकता जैसे तत्व हैं, जिनका महत्व राष्ट्रीय आंदोलन के लिए था।
'चित्राधार' में तो वे यहां तक कहने का साहस कर गए कि उस ब्रह्म को लेकर मैं क्या करूंगा जो साधारण जन की पीड़ा नहीं हरता। 'आंसू' में भी विश्वमंगल की भावना की अभिव्यक्त हुई है।
'सबका निचोड़ लेकर तुम, सुख से सूखे जीवन में
बरसो प्रभात हिमकन-सा, आंसू इस विश्व-सदन में।'
सारांशत: हम यह कह सकते हैं कि प्रसाद जी का काव्य राष्ट्रीय काव्य, सांस्कृतिक जागरण का काव्य है। ये स्वाधीन चेतना के बल पर नई मानव परिकल्पना में सक्षम हैं। वह नई संबंध भावना का संकेत हैं। यहां राष्ट्रीयता का भाव संकुचित नहीं है, बल्कि विश्वमंगल हेतु है।
'शक्तिशाली हो, विजयी बनो, विश्व में गूंज रहा यह गान।'
भारत के सांस्कृतिक भाव को अपने शब्दों के माध्यम से सकारात्मक दिशा देने वाले जयशंकर प्रसाद जी यह भली भांति जानते थे कि किसी व्यक्ति में जो संस्कार मातृशक्ति दे सकती है, वह कोई और नहीं दे सकता। शायद इसीलिए जयशंकर प्रसाद ने अपने अधिकतम नाटकों के प्रमुख पात्रों के लिए नारी का चयन किया। वह नारी के माध्यम से भारत में यह संदेश प्रसारित करना चाहते थे कि राष्ट्रीय चेतना का बोध अगर नारी को हो जाए तो भारत देश स्व स्फूर्त होकर उस दिशा की ओर अग्रसर हो जाएगा… जो राष्ट्रीय उत्थान की ओर ले जाने में समर्थ है। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में नारियों की सहभागिता सुनिश्चित करने और राजनीतिक सक्रियता लाने हेतु महात्मा गांधी की भांति नाटककार जयशंकर प्रसाद ने यह स्पष्ट किया है कि नारियों को घर की चार दीवारी से बाहर लाना आवश्यक है। उन्होंने अपने नाटकों में आग से खेलने वाली राजनीतिक सूझबूझ से सम्पन्न अनेक नारियों का चित्रण किया है। चन्द्रगुप्त नाटक की 'अलका' वीर क्षत्राणी बनकर अपने स्वतंत्र नारी व्यक्तित्व का परिचय देती हैं। चन्द्रगुप्त और चाणक्य के साथ मिलकर देश की रक्षा के लिये वह नटी का रूप धारण करती है, पर्वतेश्वर के बंदीगृह में चाणक्य से संकेत पाकर वह पर्वतेश्वर की प्रणयिनी बनने की राजनीति खेलती है।
नाटककार प्रसाद के नाटकों का मूल उद्देश्य सांस्कृतिक चेतना जागृत करना, नारी अस्मिता को स्थापित करना और राष्ट्रीय भावनाओं को जन-जन तक पहुँचाना रहा है। उन्होंने ढर्रे पर न चलकर राष्ट्रीयता से ओतप्रोत सिद्धांतों को परिमार्जित करते हुए नाटकों के लिए नारी पात्रों का चयन किया है। जिसके माध्यम से उन्होंने राष्ट्रीय चेतना जगाई है। उनके सभी प्रमुख नाटकों में नारी के गौरवमय राष्ट्रीय स्वरूप के भव्य दर्शन होते हैं। 'चन्द्रगुप्त' नाटक की नारी पात्र 'अलका' सिल्यूकस के समक्ष अपने राष्ट्र प्रेम का परिचय देती हुई कहती है कि 'मेरा देश है, मेरे पहाड़ हैं, मेरी नदियाँ और जंगल हैं, इस भूमि के एक-एक परमाणु मेरे हैं और मेरे शरीर के एक-एक क्षुद्र अंश उन्हीं परमाणुओं से बने हैं।' 'स्कंदगुप्त' की जयमाला 'अजातशत्रु' की मल्लिका, 'चन्द्रगुप्त' की मालविका, 'स्कंदगुप्त' की रामा, देवसेना आदि में राष्ट्रीयता की भावना नस-नस में व्याप्त हैं। जातीय गौरव, राष्ट्रीय प्रेम और विश्व कल्याण की कामना को स्थापित करने में प्रसाद के नाटकों की नारियाँ उल्लेखनीय हैं। अत: कह सकते हैं कि प्रसाद के नाटकों में आदर्श और मर्यादा के साथ-साथ देश भक्ति की डोर पकड़कर गतिमान होने वाली गौण नारी पात्रों में भी आम जनमानस को प्रभावित करने की विशेष क्षमता है। अन्ततोगत्वा हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रसादजी तथा उनके समकालीन नाटककारों ने जिस राष्ट्रीय चेतना को अपनी कृतियों में समाहित और प्रकाशित किया है। यही उनका स्वतंत्रता के लिए एक ऐसी पुकार है, जिसकी आवश्यकता उस समय तो थी ही, साथ आज भी महसूस की जा रही है। उन्होंने ऐसे साहित्य की रचना की, जिसको पढ़ते समय राष्ट्रीय गौरव का अनुभव होता है। वे कहते हैं कि––
वही है रक्त वही है देह वही साहस वैसा ही ज्ञान।
वही है शांति वही है शक्ति वही हम दिव्य आर्य संतान।।
जियें तो सदा उसी के लिए यही अभिमान रहे यह हर्ष।
निछावर कर दें हम सर्वस्व हमारा प्यारा भारतवर्ष।।
इसी प्रकार जयशंकर प्रसाद भारत की स्वर्णिम आभा को प्रकट करते हुए स्वतंत्रता की पुकार देते हैं। वे कहते हैं कि––
हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती,
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती।
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो।
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी।
अराति सैन्य सिंधु में, सुवाड़वाग्नि से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो, बढ़े चलो।
जयशंकर प्रसाद ने अपनी लेखनी के माध्यम से स्व का बोध कराया है। राष्ट्र के स्वर्णिम अतीत को संकेतों के माध्यम के प्रकट किया है। जयशंकर प्रसाद जी के साहित्य में देश को जगाने का भाव है तो वहीं स्वतंत्रता की रक्षा का बोध है। स्व का तात्पर्य उनके पूरे लेखन में प्रकट हुआ है। इसलिए स्वतंत्रता के इस अमृत महोत्सव पर जयशंकर प्रसाद जी का स्मरण करना अति आवश्यक भी है और यह देश की आवश्यकता भी है।
-डॉ वंदना सेन
विभागाध्यक्ष, (हिंदी) आधार पाठ्यक्रम
पीजीवी महाविद्यालय, जीवाजीगंज
लश्कर ग्वालियर मध्यप्रदेश
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