हिंदुस्तान की भाषा हिंदी है और उसका दृश्यरूप या उसकी लिपि सर्वगुणकारी नागरी ही है। - गोपाललाल खत्री।

मेंढ़की का ब्याह

 (कथा-कहानी) 
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रचनाकार:

 वृंदावनलाल वर्मा

उन जिलों में त्राहि-त्राहि मच रही थी। आषाढ़ चला गया, सावन निकलने को हुआ, परन्तु पानी की बूंद नहीं। आकाश में बादल कभी-कभी छिटपुट होकर इधर-उधर बह जाते। आशा थी कि पानी बरसेगा, क्योंकि गांववालों ने कुछ पत्रों में पढ़ा था कि कलकत्ता-मद्रास की तरफ जोर की वर्षा हुई है। लगते आसाढ़ थोड़ा सा बरसा भी था । आगे भी बरसेगा, इसी आशा में अनाज बो दिया गया था । अनाज जम निकला, फिर हरियाकर सूखने लगा। यदि चार-छ: दिन और न बरसा, तो सब समाप्त । यह आशंका उन जिलों के गांवों में घर करने लगी थी। लोग व्याकुल थे।

गांवों में सयानों की कमी न थी। टोने टोटके, धूप-दीप, सभी-कुछ किया, लेकिन कुछ न हुआ। एक गांव का पुराना चतुर नावता बड़ी सूझ-बूझ का था। अथाई पर उसने बैठक करवाई। कहां क्या किया गया है, थोड़ी देर इस पर चर्चा चली। नावते ने अवसर पाकर कहा--"इन्द्र वर्षा के देवता हैं-उन्हें प्रसन्न करना पड़ेगा।"

"सभी तरह के उपाय कर लिए गए हैं। कोई गांव ऐसा नहीं हैं, जहां कुछ न कुछ न किया गया हो। पर अभी तक हुआ कुछ भी नहीं है।" --बहुत-से लोगों ने तरह-तरह से कहा और उन गांवों के नाम लिए : होम-हवन, सत्यनारायण कथा, बकरों-मुर्गों का बलिदान, इत्यादि किसी-किसी ने फिर सुझाए; परन्तु नावते की एक नई सूझ अन्त में सबको माननी पड़ी। नावते ने कहा--"बरसात में ही मेंढ़क क्यों इतना बोलते हैं ? क्यों इतने बढ़ जाते हैं? कभी किसी ने सोचा ? इन्द्र वर्षा के देवता हैं, सब जानते हैं। पानी की झड़ी के साथ मेंढ़क बरसते हैं, सो क्यों ? कोई किरानी कह देगा कि मेंढ़क नहीं बरसते । बिलकुल गलत। मैंने खुद बरसते देखा है। बड़ी नांद या किसी बड़े बर्तन को बरसात में खुली जगह रख के देख लो। सांझ के समय रख दी, सवेरे बर्तन में छोटे-छोटे मेंढ़क मिल जाएंगे। बात यह है कि इन्द्र देवता को मेंढ़क बहुत प्यारे हैं। वे जो रट लगाते हैं, तो इन्द्र का जय-जयकार करते हैं।"

अथाई पर बैठे लोग मुंह ताक रहे थे कि नावते जी अन्त में क्या कहते हैं। नावता अन्त में बहुत आश्वासन के साथ बोला --"मेंढ़क-मेंढ़की का ब्याह करा दो । पानी न बरसे, तो मेरी नाक काट डालना।" मेंढ़क-मेढ़की का ब्याह ! कुछ के ओंठों पर हँसी झलकने को हुई, परन्तु अनुभवी नावते की गम्भीर शक्ल देखकर हँसी उभर न पाई।

एक ने पूछा --"कैसे क्या होगा उसमें ? मेंढ़की के ब्याह की विधि तो बतलाओ, दादा।"


नावते ने विधि बतलाई--"वैसे ही करो मेंढ़क-मेढ़की का ब्याह, जैसे अपने यहां लड़के-लड़की का होता है। सगाई, फलदान, सगुन, तिलक, आतिशबाजी, भांवर, ज्योनार, सब धूम-धाम के साथ हो, तभी इन्द्रदेव प्रसन्न होंगे।" लोगों ने आकाश की ओर देखा। तारे टिमटिमा रहे थे। बादल का धब्बा भी वहां न था। पानी न बरसा तो मर मिटेंगे। ढोरों-बैलों का क्या होगा ? बढ़ी हुई निराशा ने उन सबको भयभीत कर दिया।

लोगों ने नावते की बात स्वीकार कर ली । चन्दा किया गया । आस-पास के गांवों में भी सूचना भेजी गई। कुतूहल उमगा और भय ने भी अपना काम किया। यदि नावते के सुझाव को ठुकरा दिया, तो सम्भव है, इन्द्रदेव और भी नाराज हो जाएं ? फिर ? फिर क्या होगा ? चौपट ! सब तरफ बंटाढार ! आस-पास के गांवों ने भी मान लिया। काफी चन्दा थोड़े ही समय में हो गया ।

नावते ने एक जोड़ी मेंढ़क भी कहीं से पकड़ कर रख लिए । एक मेंढ़क था, एक मेंढ़की। ब्राह्मणों की कमी नहीं थी। ब्याह की घूम-धाम का मजा और ऊपर से दान-दक्षिणा ।

गांव के दो भले आदमी मेंढ़क-मेढ़की के पिता भी बन गए । मुहूर्त शोधा गया-जल्दी का मुहूर्त !

बाजे-गाजे के साथ फलदान, सगुन की रस्में अदा की गई । दोनों के घर दावत-पंगत हुई। मेंढ़क-मेंढ़की नावते के ही पास थे । वही उन्हें खिला-पिला रहा था। अन्यत्र हटा कर उनके मरने-जीने की जोखिम कौन ले ?
तिलक-भांवर का भी दिन आया । पानी के एक बर्तन में मेंढ़की उस घर में रख दी गई, जिसके स्वामी को कन्यादान करना था । उसने सोचा--"हो सकता है, पानी बरस पड़े। कन्यादान का पुण्य तो मिलेगा ही ।"

मेंढ़क दूल्हा पालकी में बिठलाया गया। रखा गया बांध कर । उछल कर कहीं चल देता, तो सारा कार-बार ठप हो जाता । आतिशबाजी भी फूंकी गई, और बड़े पैमाने पर। एक तो, आतिशबाजी के बिना ब्याह क्या ? दूसरे, अगर पिछले साल किसी ने आतिशबाजी पर एक रुपया फूका था, तो इस साल कम से कम सवा का धुआं तो उड़ाना ही चाहिए।

तिलक हुआ । जैसे ही मेंढ़क के माथे पर चन्दन लगाने के लिए ब्राह्मण ने हाथ बढ़ाया कि मेंढ़क उछला । ब्राह्मण डर के मारे पीछे हट गया। खैरियत हुई कि मेंढ़क एक पक्के डोरे से बर्तन में बंधा था, नहीं तो उसकी पकड़- धकड़ में मुहूर्त चूक जाता । कुछ लोग मेंढ़क की उछल-कूद पर हँस पड़े। कुछ ने ब्राह्मण को फटकारा--"डरते हो ? दक्षिणा मिलेगी, पण्डित जी ! करो तिलक।"

पण्डित जी ने साहस बटोरकर मेंढ़क के ऊपर चन्दन छिड़क दिया । फिर पड़ी भांवर ।

एक पट्ट पर मेंढ़क बांधा गया, दूसरे पर मेंढ़की। दोनों ने टर्र-टर्र शुरू की।

नावता बोला --"ये एक-दूसरे से ब्याह करने की चर्चा कर रहे हैं।"

ब्राह्मणों ने भांवरें पढ़ीं और पढ़वाई। फिर दावत-पंगत हुई। मेंढ़की की विदाई हुई। मेंढ़क के 'पिता जी' को दहेज भी मिला। मनुष्यों के विवाह में दहेज दिया जाए, तो मेंढ़क-मेंढ़की के विवाह में ही क्यों हाथ सिकोड़ा जाए ? पानी बरसे या न बरसे, मेंढ़क के पिता जी बहरहाल कुछ से कुछ तो हो ही गए। नावता दादा की अंटी में भी रकम पहुंची और इन्द्रदेव ने भी कृपा की।

बादल आए, छाए और गड़गड़ाए ; फिर बरसा मूसलाधार। लोग हर्ष मग्न हो गए। नावते की धाक बैठ गई; कहता फिर रहा था--"मेरी बात खाली तो नहीं गई ! इन्द्रदेव प्रसन्न हो गए न।"

पानी बरसा और इतना बरसा कि रुकने का नाम न ले रहा था। नाले चढ़े, नदियों में बाढ़ें आई। पोखरे और तालाब उमड़ उठे। कुछ तालाबों के बांध टूट गए। खेतों में पानी भर गया। सड़कें कट गई। गांवों में पानी तरंगें लेने लगा। जनता और उसके ढोर डूबने-उतराने लगे। बहुत से तो मर भी गए। सम्पति की भारी हानि हो गई। आठ-दस दिन के भीतर ही भीषण बर्बादी हुई। इन्द्रदेव के बहुत हाथ-पैर जोड़े। वह न माने, न माने। लोग कह रहे थे कि इससे तो वह सूखा ही अच्छा था।

फिर नावते की शरण पकड़ी गई अब क्या हो ? उसका नुस्खा तैयार था। बोला--"कोई बात नहीं। सरकार ने तलाक-कानून पास कर दिया है। मेंढ़क-मेंढ़की की तलाक कराए देता हूं। पानी बन्द हो जाएगा।"


"पर मेंढ़कों का वह जोड़ा कहां मिलेगा?" --लोगों ने प्रश्न किया। नावते का उत्तर उसकी जेब में ही था। उसने चट से कहा- "मेरे पास है।"

"कहां से आया ? कैसे"--प्रश्न हुआ ।

उत्तर था--"मेंढ़क के पिता के घर से दोनों को ले आया था। जानता था कि शायद अटक न जाए।"

पानी बरसते में ही तलाक की कार्यवाई जल्दी-जल्दी की गई । तलाक की क्रिया के निभाने में न तो अधिक समय लगना था और न कुछ वैसा ख़र्चा ।

मेंढ़क-मेंढ़की दोनों छोड़ दिए गए । दोनों उछल कर इधर-उधर हो गए।

परन्तु पानी का बरसना बंद न हुआ । बाढ़ पर बाढ़ और जनता के कष्टों का वारापार नहीं ।


गाँव छोड़-छोड़कर लोग इधर-उधर भाग रहे थे । एक-दो के मन मेज़ आया कि नावता मिल जाए, तो उसका सर फोड़ डालें ।

परन्तु नावता कहीं नौ-दो-ग्यारह हो गया ।

- वृन्दावनलाल वर्मा

[ श्रेष्ठ हिन्दी कहानियां, १९६८]

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