शिक्षा के प्रसार के लिए नागरी लिपि का सर्वत्र प्रचार आवश्यक है। - शिवप्रसाद सितारेहिंद।

आँसू के कन

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 जयशंकर प्रसाद | Jaishankar Prasad

वसुधा के अंचल पर

   यह क्या कन-कन सा गया बिखर !
जल शिशु की चंचल क्रीड़ा-सा
जैसे सरसिज दल पर ।

लालसा निराशा में दलमल
वेदना और सुख में विह्वल
यह क्या है रे मानव जीवन!
             कितना था रहा निखर।

मिलने चलते अब दो कन
आकर्षण -मय चुम्बन बन
दल की नस-नस में बह जाती
               लघु-मघु धारा सुन्दर।

हिलता-डुलता चंचल दल,
ये सब कितने हैं रहे मचल
कन-कन अनन्त अम्बुधि बनते
          कब रूकती लीला निष्ठुर ।

तब क्यों रे, फिर यह सब क्यों
यह रोष भरी लीला क्यों ?
गिरने दे नयनों से उज्ज्वल
             आँसू के कन मनहर
             वसुधा के अंचल पर ।

       - जयशंकर प्रसाद

  [ हंस, जनवरी १९३३]

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