मेरे चेहरे में वे आँखें लौट आयी हैं जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है : हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड़ डूब गए हैं।
और जहाँ हर चेतावनी ख़तरे को टालने के बाद एक हरी आँख बन कर रह गयी है।
बीस साल बाद मैं अपने-आप से एक सवाल करता हूँ जानवर बनने के लिए कितने सब्र की ज़रूरत होती है? और बिना किसी उत्तर के चुपचाप आगे बढ़ जाता हूँ क्योंकि आजकल मौसम का मिज़ाज यूँ है कि खून में उड़ने वाली पंक्तियों का पीछा करना लगभग बेमानी है।
दोपहर हो चुकी है हर तरफ़ ताले लटक रहे हैं दीवारों से चिपके गोली के छर्रों और सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में एक दुर्घटना लिखी गई है हवा से फड़फड़ाते हिन्दुस्तान के नक़्शे पर गाय ने गोबर कर दिया है।
मगर यह वक़्त घबराये हुए लोगों की शर्म आँकने का नहीं और न यह पूछने का - कि संत और सिपाही में देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य कौन है!
आह! वापस लौटकर छूटे हुए जूतों में पैर डालने का वक़्त यह नहीं है बीस साल बाद और इस शरीर में सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुज़रते हुए अपने-आप से सवाल करता हूँ - क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है जिन्हें एक पहिया ढोता है या इसका कोई खास मतलब होता है?
और बिना किसी उत्तर के आगे बढ़ जाता हूँ चुपचाप।
-सुदामा पांडेय 'धूमिल' |