रात भर का वह गहरा अँधेरा, गहन अवसाद था बहुतेरा,
रजनी चुपचाप अश्रु बहाती, तुहिन कणों से धरा नहलाती,
अरुणिमा पूरब में छटी जब, रात की गंभीरता घटी तब,
नवल अरुण की लालिमा ले, गगन मुख मंडल मुस्काया,
नव दुल्हन सी प्रकृति सजी, दिश दिशा अनुरंजित हो उठी,
नीडों में सिहरन लहरी, खग चिरप चिरप चहचहाये,
मलयज के झोंकों से किसलय, का आँचल डोला लहराया,
मदमत्त भ्रमर मधुर गुंजायें, कोयलिया स्वर्गीय गीत गाए,
विहगों के दुदुम्भी नाद से, वन उपवन निनादित सुगंधित,
स्वर्णिम रजत सलिल में उतर , सद्य स्नाता चंचल किरणें,
नृत्यांगना सी, चपल उर्मियाँ ठुमुक ठुमुक कर नाच उठीं।
- शारदा मोंगा
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