मैं रामलुभाया के घर पहुँचा तो देख कर चकित रह गया कि वह बोतल खोल कर बैठा हुआ था।
"यह क्या रामलुभाया !'' मैंने कहा, "तुम तो मदिरा के बहुत विरोधी थे।'"
"विरोधी तो अब भी हूँ; किंतु क्या करूं । इस वर्ष भी आचार्य ने मुझे पुरस्कार नहीं दिया।"
"तो तुम मदिरा पीने बैठ गए ?''
‘‘गम तो गलत करना ही था।'' वह बोला।
"मिल गया होता तो तुम अपनी विजय का समारोह कर रहे होते; और तब भी मित्रों के साथ बैठ कर पी रहे होते।'' मैंने कहा।
‘‘नहीं ऐसी बात नहीं है।'' वह बोला, ‘‘यह तो मैं पूर्णतः हताश होके कर रहा हूँ। समझ लो कि जीवन में प्रगति के सारे मार्ग बंद हो जाने के कारण विष पीने का साहस नहीं कर सकता तो मदिरा ले कर बैठ गया।''
‘‘साहित्य का पुरस्कार नहीं मिला तो प्रगति के सारे मार्ग ही बंद हो गए ?''
‘‘और क्या। पैंतालीस वर्ष हो गए लिखते और पुरस्कार फिर भी नहीं मिला।'' वह रो दिया, ‘‘ कल के बच्चे भी अपने घर में कई कई पुरस्कार सजाए बैठे हैं।''
‘‘धैर्य रखो। संभव है कि अगले वर्ष मिल जाए।'' मैंने कहा।
‘‘नहीं ! मुझे नहीं मिल सकता।'' वह बोला, ‘‘अगले वर्ष चकोरी को मिलेगा।''
‘‘क्यों चकोरी तुम से अच्छा लिखती है ?''
‘‘नहीं ! किंतु पुरस्कार देने वाले आचार्य की मजबूरी साहित्य नहीं, स्त्री है।''
‘‘ उस से क्या ?'' मैंने कहा।
‘‘और चकोरी की कमजोरी पुरस्कार है।'' रामलुभाया बोला, ‘‘वह पुरस्कार के लिए अपना सौदा कर लेगी।''
‘‘तुम एक भली स्त्री को बदनाम कर रहे हो। कोई स्त्री इस प्रकार का कुत्सित व्यापार नहीं करेगी। ऐसे व्यापार में उस की उपलब्धि क्या है, हानि ही हानि है।'' मैं ने उसे डांट दिया, ‘‘और आचार्य भी पचहत्तर को पार कर गए हैं, उन पर इस प्रकार के आक्षेप उचित नहीं हैं।''
‘‘क्या करें पचहत्तर पार वाले ही यह सब कर रहे हैं।'' वह बोला, ‘‘और चकोरी जैसियों की कोई मर्यादा नहीं है।''
‘‘तो तुम मदिरा पी-पी कर अपना स्वास्थ्य खराब करोगे, पुरस्कार तो तुम्हें तब भी नहीं मिलेगा।'' मैंने कहा।
‘‘तो क्या करूं ? विष खा लूं क्या ?''
‘‘नहीं विष क्यों खाओगे ?'' मैं ने कहा, ‘‘आचार्य की मजबूरी मदिरा नहीं है क्या ?''
‘‘नहीं ! ये तो बिल्कुल शुद्ध संतरे के रस वाले हैं, पर दूसरे संप्रदाय के हैं, जो पेग नहीं भांड के हिसाब से पीते हैं।''
‘‘उनकी मजबूरी स्त्री नहीं है ?''
‘‘है, पर पीने के बाद।''
‘‘तो तुम यह बोेतल उन आचार्य को ही भेंट क्यों नहीं कर आते ?'' मैंने कहा, ‘‘पुरस्कार का पुरस्कार पाओगे और मदिरा जैसे विष से भी बच जाओगे।''
‘‘मेरा आत्मसम्मान यह स्वीकार नहीं करता।''
‘‘उन लंपट आचार्य के हाथों पुरस्कार लेना तुम्हारा आत्मसम्मान स्वीकार करता है क्या ?'' मैंने बात बदली, ‘‘कोेई और मार्ग नहीं है ?''
‘‘है न ! पैसे का प्रबंध हो जाए तो उन की पत्रिका, बोतल और रात की रंगीनी - सब कुछ उपलब्ध हो जाएगा।''
‘‘तुम वह भी करने में अक्षम हो।''
‘‘हां !''
मैं चुपचाप उसे देखता रहा। बेचारा कितना असहाय है।
‘‘वैसे हम साहित्य क्षेत्र की चर्चा कर रहे हैं, या आचार्यों की लंपटता की ?'' मैंने पूछा।
‘‘अरे वह सब कुछ नहीं। हम तो चर्चा कर रहे हैं किसी की मजबूरी और किसी की कमजोरी की।'' वह पुनः रो दिया।
[ चैत्रा पूर्णिमा 2056 / 31.3.1999 ]
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