जिसे रौंदा है जब चाहा तब जिसका किया है दुरूपयोग, सबसे ज़्यादा। जब चाहा तब निकाल फेंका जिसे बाहर। कितना तो जुतियाया है जिसे प्रकोप में, प्रलोभ में वह तुम्हीं हो न भाषा।
तुम्हीं हो न सहकर बलात्कार से भी ज़्यादा रह जाती हो मूक सोचो भाषा - रह जाती हो मूक जबकि सम्पदा है शब्दों की, अर्थों की - रह जाती हो मूक।
और देखो तो ढूँढ लेते हैं दोष तुम्हीं में सब तुम्हें ही लतियाते हैं कितना - कि कितनी गन्दी है भाषा कितनी भ्रष्ट और अश्लील है अमर्यादित और टुच्ची यानी ये सब विशेषण डाल दिए जाते हैं तुम्हारे ही गले।
कभी तो आता होगा मन में, न सही जुबान पर, भाषा के कि गन्दी वह नहीं, नहीं वह भ्रष्ट और अश्लील ही। क्या कहेंगे उसे जो उसे ढालता है, पालता है और करा करा कर दु्ष्कर्म अपनी रोज़ी चलाता है। और सर से पाँव तक करते हुए नंगा खुद नंगा हो जाता है और फिर खुद तुझे ही ओढ़ता है भाषा। कभी तो सोचती होगी न भाषा। कोई आयोग भी तो नहीं जहाँ दे सके दस्तक। कभी तो सोचती होगी न भाषा! कौन दम रखा है इस ससुरी भाषा में होती है महज पानी फिसल कर रह जाती है चिकने घड़ों पर बेमानी।
पर होती बहुत ज़रूरी है, अगर मानो। न मिले तो सूख जाए कंठ और जुबान भी।
माने जाते हैं आप बड़े सो माने न मानें पर इतना ज़रूर मान लीजिए कि सोचती ही होगी भाषा भी कभी न कभी!
- दिविक रमेश
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