बिना मातृभाषा की उन्नति के देश का गौरव कदापि वृद्धि को प्राप्त नहीं हो सकता। - गोविंद शास्त्री दुगवेकर।

मैं और कुछ नहीं कर सकता था

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 विष्णु नागर

मैं क्या कर सकता था
किसी का बेटा मर गया था
सांत्वना के दो शब्द कह सकता था
किसी ने कहा बाबू जी मेरा घर बाढ़ में बह गया
तो उस पर यकीन करके उसे दस रुपये दे सकता था
किसी अंधे को सड़क पार करा सकता था
रिक्शावाले से भाव न करके उसे मुंहमांगा दाम दे सकता था
अपनी कामवाली को दो महीने का एडवांस दे सकता था
दफ्तर के चपरासी की ग़लती माफ़ कर सकता था
अमेरिका के खिलाफ नारे लगा सकता था
वामपंथ में अपना भरोसा फिर से ज़ाहिर कर सकता था
वक्तव्य पर दस्तख़त कर सकता था

और मैं क्या कर सकता था
किसी का बेटा तो नहीं बन सकता था
किसी का घर तो बना कर नहीं दे सकता था
किसी की आँख तो नहीं बन सकता था
रिक्शा चलाने से किसी के फेफड़ों को सड़ने से रोक तो नहीं सकता था

और मैं क्या कर सकता था-
ऐसे सवाल उठा कर खुश हो सकता था
मान सकता था कि अब तो सिद्ध है वाकई मैं एक कवि हूँ
और वक़्त आ चुका है कि मेरी कविताओं के अनुवाद की किताब अब
अंग्रेजी में लंदन से छप कर आ जाना चाहिए।

- विष्णु नागर
[हँसने की तरह रोना]

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