समस्त आर्यावर्त या ठेठ हिंदुस्तान की राष्ट्र तथा शिष्ट भाषा हिंदी या हिंदुस्तानी है। -सर जार्ज ग्रियर्सन।

मैंने जाने गीत बिरह के

 (काव्य) 
Print this  
रचनाकार:

 आनन्द विश्वास | Anand Vishvas

मैंने जाने गीत बिरह के, मधुमासों की आस नहीं है,
कदम-कदम पर मिली विवशता, साँसों में विश्वास नहीं है।
छल से छला गया है जीवन,
आजीवन का था समझौता।
लहरों ने पतवार छीन ली,
नैया जाती खाती गोता।
किस सागर जा करूँ याचना, अब अधरों पर प्यास नहीं है,
मैंने जाने गीत बिरह के, मधुमासों की आस नहीं है।

मेरे सीमित वातायन में,
अनजाने किया बसेरा।
प्रेम-भाव का दिया जलाया,
आज बुझा, कर दिया अंधेरा।
कितने सागर बह-बह निकलें, आँखों को एहसास नहीं है,
मैंने जाने गीत बिरह के, मधुमासों की आस नहीं है।

मरुथल में बहतीं दो नदियाँ,
कब तक प्यासा उर सींचेंगीं।
सागर से मिलने को आतुर,
दर-दर पर कब तक भटकेंगीं।
तूफानों से लड़-लड़ जी लूँ, इतनी तो अब साँस नहीं है,
मैंने जाने गीत बिरह के, मधुमासों की आस नहीं है।

विश्वासों की लाश लिये मैं,
कब तक सपनों के संग खेलूँ।
सोई-सोई सी प्रतिमा को,
सत्य समझ कब तक मैं बहलूँ।
मिथ्या जग में सच हों सपने, मुझको यह एहसास नहीं है,
मैंने जाने गीत बिरह के, मधुमासों की आस नहीं है।

- आनन्द विश्वास
ई-मेल: anandvishvas@gmail.com

Back

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें