जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

पूस की रात

 (कथा-कहानी) 
Print this  
रचनाकार:

 मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand

हल्कू ने आकर स्त्री से कहा-सहना आया है, लाओ, जो रुपए रखे हैं, उसे दे दूँ। किसी तरह गला तो छूटे।
मुन्नी झाड़ू लगा रही थी। पीछे फिर कर बोली-तीन ही तो रुपए हैं, दे दोगे तो कंबल कहाँ से आवेगा? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी? उससे कह दो, फसल पर रुपए दे देंगे। अभी नहीं।

हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ा रहा। पूस सिर पर आ गया, कंबल के बिना हार में रात को वह किसी तरह नहीं सो सकता। मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियाँ जमावेगा, गालियाँ देगा। बला से जाड़ों में मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी। यह सोचता हुआ वह अपना भारी-भरकम डीलडौल लिए हुए (जो उसके नाम को झूठा सिद्ध करता था) स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला-ला दे दे, गला तो छूटे। कंबल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचूँगा।

मुन्नी उसके पास से दूर हट गई और आँखें तरेरती हुई बोली- कर चुके दूसरा उपाय! जरा सुनूँ कौन-सा उपाय करोगे? कोई खैरात दे देगा कंबल? न जाने कितनी बाकी है, जो किसी तरह चुकने में ही नहीं आती। मैं कहती हूँ, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते? मर-मर कर काम करो, उपज हो तो बाकी दे दे, चलो छुट्टी हुई। बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है। पेट के लिए मजूरी करो। ऐसी खेती से बाज आएं। मैं रुपए न दूँगी-न दूँगी।

हल्कू उदास होकर बोला-तो क्या गाली खाऊँ?

मुन्नी ने तड़पकर कहा-गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है? मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भौंहें ढीली पड़ गईं। हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भाँति उसे घूर रहा था।
उसने जाकर आले पर से रुपए निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिए। फिर बोली-तुम छोड़ दो अबकी से खेती। मजूरी में सुख से एक रोटी खाने को तो मिलेगी। किसी की धौंस तो न रहेगी। अच्छी खेती है। मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर से धौंस।

हल्कू ने रुपए लिए और इस तरह बाहर चला गया मानो अपना हृदय निकालकर देने जा रहा है। उसने मजूरी से एक-एक पैसा काटकर तीन रुपए कंबल के लिए जमा किए थे। वे आज निकले जा रहे थे। एक-एक पग के साथ उसका मस्तक अपनी दीनता के भार से दबा जा रहा था।

पूस की अँधेरी रात। आकाश पर तारे ठिठुरते हुए मालूम होते थे। हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पत्तों की छतरी के नीचे बाँस के खटोले पर अपनी पुरानी गाढ़े की चादर ओढ़े पड़ा काँप रहा था। खाट के नीचे उसका संगी कुत्ता जबरा पेट में मुँह डाले सर्दी से कूँ-कूँ कर रहा था। दो में से एक को भी नींद न आती थी।

हल्कू ने हाथ निकालकर जबरा की ठंडी पीठ सहलाते हुए कहा-कल से मत आना मेरे साथ, नहीं तो ठंडे हो जाओगे। यह रांड पछुआ न जाने कहाँ से बरफ लिए आ रही है। उठूँ, फिर एक चिलम भरूँ। किसी तरह रात तो कटे। आठ चिलम तो पी चुका। यह खेती का मजा है। और एक-एक भाग्यवान ऐसे पड़े हैं, जिनके पास जाड़ा जाए तो गर्मी से घबड़ाकर भागे। मोटे-मोटे गद्दे, लिहाफ, कंबल। मजाल है, जाड़े का गुजर हो जाए। तकदीर की खूबी है। मजूरी हम करे, मजा दूसरे लूटेंगे।

हल्कू उठा और गड्ढे में से जरा-सी आग निकालकर चिमल भरी। जबरा भी उठ बैठा। हल्कू ने चिलम पीते हुए कहा-पिएगा चिलम, जाड़ा तो क्या जाता है, हाँ, जरा मन बहल जाता है। जबरा ने उसके मुँह की ओर प्रेम से छलकती हुई आँखों से देखा। हल्कू आज और जाड़ा खा ले। कल से मैं यहाँ पुआल बिछा दूँगा। उसी में घुसकर बैठना, तब जाड़ा न लगेगा।

सहसा जबरा ने किसी जानवर की आहट पाई। इस विशेष आत्मीयता ने उसमें एक नई स्फूर्ति पैदा कर दी थी, जो हवा के ठंडे झोंकों को तुच्छ समझती थी। वह झटपट उठा और छतरी के बाहर आकर भोंकने लगा। हल्कू ने उसे कई बार चुमकारकर बुलाया; पर वह उसके पास न आया। हार कर चारों तरफ दौड़-दौड़कर भौंकता रहा। एक क्षण के लिए आ भी जाता तो तुरंत ही फिर दौड़ पड़ता। कर्तव्य हृदय में अरमान की भाँति उछल रहा था।

एक घंटा और गुजर गया। रात ने शीत को हवा में धधकाना शुरू किया। हल्कू उठ बैठा और दोनों घुटनों को छाती से मिलाकर सिर को उसमें छिपा लिया, फिर भी ठंड कम न हुई। ऐसा जान पड़ता था, सारा रक्त जम गया है, धमनियों में रक्त की जगह हिम बह रहा है। उसने झुककर आकाश की ओर देखा, अभी कितनी रात बाकी है। सप्तर्षि अब भी आकाश में आधे भी नहीं चढ़े। ऊपर आ जाएँगे, तब कहीं सवेरा होगा। अभी पहर से ऊपर रात है।

उसने पास के अरहर के खेत में जाकर कई पौधे उखाड़ लिए और उनका एक झाडू बनाकर हाथ में सुलगता हुआ उपला लिए बगीचे की तरफ चला। जबरा ने उसे आते देखा, तो पास आया और दुम हिलाने लगा।

थोड़ी देर में अलाव जल उठा। उसकी लौ ऊपर वाले वृक्ष की पत्तियों को छू-छूकर भागने लगी। उस अस्थिर प्रकाश में बगीचे के विशाल वृक्ष ऐसे मालूम होते थे, मानो उस अथाह अंधकार को अपने सिरों पर सँभाले हुए हों। अंधकार के उस अनंत सागर में यह प्रकाश एक नौका के समान हिलता, मचलता हुआ जान पड़ता था।

हल्कू अलाव के सामने बैठा आग ताप रहा था। एक क्षण में उसने दोहर उतारकर बगल में दबा ली और दोनों पाँव फैला दिए; मानों ठंड को ललकार रहा हो, तेरे जी में जो आए सो कर। ठंड की असीम शक्ति पर विजय पाकर वह विजय-गर्व को हृदय में छिपा न सकता था।

पत्तियाँ जल चुकी थीं। बगीचे में फिर अँधेरा छाया था। राख के नीचे कुछ-कुछ आग बाकी थी, जो हवा का झोंका आ जाने पर जाग उठती थी, पर एक क्षण में फिर आँखें बंद कर लेती थी। हल्कू ने फिर चादर ओढ़ ली और गर्म राख के पास बैठा एक गीत गुनगुनाने लगा। उसके बदन में गर्मी आ गई थी। ज्यों-ज्यों शीत बढ़ती जाती थी, उसे आलस्य दबाए लेता था।
जबरा जोर से भूँककर खेत की ओर भागा। हल्कू को ऐसा मालूम हुआ कि जानवरों का एक झुंड उसके खेत में आया है। शायद नीलगायों का झुंड था। उनके कूदने-दौड़ने की आवाजें साफ कान में आ रही थीं। फिर ऐसा मालूम हुआ कि वह खेत में चर रही हैं। उनके चरने की आवाज चर-चर सुनाई देने लगी। उसने दिल ने कहा-नहीं, जबरा के होते कोई जानवर खेत में नहीं आ सकता। नोच ही डाले। मुझे भ्रम हो रहा है। कहाँ? अब तो कुछ नहीं सुनाई देता। मुझे भी कैसा धोखा हुआ।

उसने जोर से आवाज लगाई-जबरा, जबरा! जबरा भौंकता रहा। उसके पास न आया।

फिर खेत में चरे जाने की आहट मिली। अब वह अपने को धोखा न दे सका। उसे अपनी जगह से हिलना जहर लग रहा था। कैसा दंदाया हुआ बैठा था। इस जाड़े-पाले में खेत में जाना, जानवरों के पीछे दौड़ना, असूझ जान पड़ा। वह अपनी जगह से न हिला।

उसने जोर में आवाज लगाई-होलि-होलि! होलि! जबरा फिर भौंक उठा। जानवर खेत चर रहे थे। फसल तैयार है। कैसी अच्छी खेती थी, पर ये दुष्ट जानवर उसका सर्वनाश किए डालते हैं। हल्कू पक्का इरादा करके उठा और दो-तीन कदम चला, एकाएक हवा का ऐसा ठंडा, चुभने वाला, बिच्छू के डंक का सा झोंका लगा कि वह फिर बुझते हुए अलावा के पास आ बैठा और राख को कुरेदकर अपनी ठंडी देह को गर्माने लगा। वह उसी राख के पास गर्म जमीन पर चादर ओढ़कर सो गया।

जबरा अपना गला फाड़े डालता था, नीलगायें खेत का सफाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास शांत बैठा हुआ था। अकर्मण्यता ने रस्सियों की भाँति उसे चारों तरफ से जकड़ रखा था।

सवेरे जब उसकी नींद खुली, तब चारों तरफ धूप फैल गई थी। और मुन्नी कह रही थी-क्या आज सोते ही रहोगे? तुम यहाँ आकर रम गए और उधर सारा खेत चौपट हो गया।

हल्कू ने उठकर कहा-क्या तू खेत से होकर आ रही है? मुन्नी बोली-हाँ, सारे खेत का सत्यानाश हो गया। भला ऐसा भी कोई सोता है। तुम्हारे यहाँ मड़ैया डालने से क्या हुआ?

हल्कू ने बहाना किया-मैं मरते-मरते बचा, तुझे अपने खेत की पड़ी है। पेट में ऐसा दर्द हुआ कि मैं ही जानता हूँ।

दोनों फिर खेत की डाँड़ पर आए। देखा, सारा खेत रौंदा पड़ा हुआ है और जबरा मड़ैया के नीचे चित्त लेटा है, मानो प्राण ही न हों। दोनों खेत की दशा देख रहे थे।

मुन्नी के मुख पर उदासी छाई थी। पर हल्कू प्रसन्न था।

मुन्नी ने चिंतित होकर कहा-अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी।

हल्कू ने प्रसन्न मुख से कहा-रात की ठंड में यहाँ सोना तो न पड़ेगा।

साभारः प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां

 

Back
Posted By nitin upreti   on Monday, 23-Nov-2015-13:31
Heart touching story.......
 
Post Comment
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश