ऋतु फागुन नियरानी हो, कोई पिया से मिलावे । सोई सुदंर जाकों पिया को ध्यान है, सोई पिया की मनमानी, खेलत फाग अगं नहिं मोड़े, सतगुरु से लिपटानी । इक इक सखियाँ खेल घर पहुँची, इक इक कुल अरुझानी । इक इक नाम बिना बहकानी, हो रही ऐंचातानी ।।
पिय को रूप कहाँ लगि बरनौं, रूपहि माहिं समानी । जौ रँगे रँगे सकल छवि छाके, तन- मन सबहि भुलानी। यों मत जाने यहि रे फाग है, यह कछु अकथ- कहानी । कहैं कबीर सुनो भाई साधो, यह गति विरलै जानी ।।
- कबीर |